दशाश्वमेध घाट ,बनारस |
बात सन १९९० की है । मैं स्कूल की पढ़ाई अपने पैतृक जिला बस्ती से पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आ गया। बस्ती, पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक पिछड़ा जिला। पूरा बस्ती शहर सड़क के दो किनारों में सिमटा। आज भी यहाँ विकास का पहिया जरूरी रफ़्तार नहीं पकड़ सका है। जिसका आभास बस्ती रेलवे स्टेशन से बहार निकलते ही हो जाता है। आधुनिक हिंदी साहित्य के पुरोधा बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक बार बस्ती प्रवास के दौरान कहा था की "बस्ती को बस्ती कहूं तो किसको कहूँ उजाड़ ". बस्ती! जो उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा जिला था, अब तीन जिलों में बंट चुका है।
यहाँ के रेलवे स्टेशन पर लकड़ी के फ्रेम में टंगी हिंदी साहित्य में आलोचना की विधा शुरू करने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल (जन्म बस्ती जिले के अगौना गाँव में ) की तस्वीर गर्व का एहसास जरुर कराती है। लेकिन स्टेशन से बहार निकलते ही यह अनुभूति कहीं काफूर हो जाती है। जब ठीक सामने सड़क के दोनो तरफ बनी झुग्गियों में कुछ महिलाएं (जिन्हें हम सभ्य समाज का हिस्सा नहीं मानते) अपने परिवार का पेट भरने के लिए वह सब कुछ करने के लिए तैयार बैठी दिख जाती है जिसे करने में सायद ही उन्हें कभी ख़ुशी का एहसास हुआ हो। मगर फिर भी.…।
घर की चाकी |
मै बस्ती से बनारस अपने भाई साहब के पास आगे की पढ़ाई के लिए आ गया था। बनारस! साहित्य, संस्कृति, संस्कार, संगीत और संतों की नगरी। भारत रत्न बिश्मिल्लाह खां एवं पंडित बिरजू महाराज की नगरी। जंहा जीवन के सारे रंग एक साथ एक जगह दिखाई देते हैं। सुबह-सुबह दशाश्वमेध घाट की तरफ जाते हुए लोगों की भीड़, आस पास के मंदिरों में बजती घंटियो का मधुर संगीत सहज ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है। सभी अपने आप में मस्त। राजा हो, रंक या फ़क़ीर। बनारसी साड़ी और गमछा दोनों ही मशहूर। बनारस में घूमते हुए दो गमछों का फैशन शो कहीं भी देखने को मिल जाता है। एक कमर में लिपटा हुआ और दूसरा कंधे पर। यही है बनारसी होने का ट्रेड मार्क। मशहूर शास्त्रीय संगीतज्ञ एवं कथक नर्तक पंडित बिरजू महराज के बारे में कहा जाता है की वो बनारस में होते हैं तो इन्ही दो गमछों में दिख जाते हैं। और अगर कुरता पैजामा में दिख जाएं तो समझ लीजिए की या तो किसी कर्यक्रम या एअरपोर्ट से आ रहे हैं या किसी ऐसी जगह जा रहे हैं। यह है बनारसी सादगी और अल्हड़ पन।
मैने आगे की पढ़ाई के लिए बनारस के उदय प्रताप कॉलेज में बी.एस.सी. (बायोलोजी ) प्रथम वर्ष में दाखिला ले लिया। उदय प्रताप कॉलेज जिसे पहले क्षत्रिया कॉलेज के नाम से भी जाना जाता था। क्योंकि कभी यहाँ पर दाखिले के लिए आपका क्षत्रिय होना जरूरी था। लेकिन अब ये सब बीती बातें भर हैं। मैं पढ़ाई में कभी औवल नहीं रहा। अपने गणित ज्ञान में दिमागी तंगी के चलते हाई स्कूल में फेल भी हुआ। मगर अब स्कूल से कॉलेज आ गया था। और मेरी अधिकतर कविताओं का जन्म यहीं पर हुआ। सायद बनारस की मिट्टी और आबोहवा का ही असर था।
२० साल पुराना उसी कविता पाठ का फोटो |
कविता पाठ के बाद का ग्रुप फोटो |
उन दिनों कॉलेज में छात्र संघ का चुनाव एक नया माहौल पैदा कर देता था। सभी छात्र नेता कॉलेज से जुड़ी तमाम समस्याओं को खोद-खोद कर निकालते और अपने भाषण में रेखांकित करते। चुनाव जीतने के बाद समाधान का भरोसा भी। आखिर आजादी के बाद से नेता यही तो कर रहे हैं। कोरा आश्वासन। लेकिन यहाँ पर यह प्रसंग मैंने किसी और कारण से उठाया है। चुनाव के दिन मैं छुट्टी मानाने के मूड में था। सोंचा घर से ६-७ किलोमीटर साइकल चला कर वोट डालने क्यों जाएँ ( मैं कॉलेज साइकल से जाता था जिसे मैंने पी. एच. डी. करने तक चलाई और वह आज भी मेरे पास सुरक्षित है ) . तभी मेरे एक मित्र ने घर आकर कॉलेज चलने की बात कही और हम चुनाव का माहौल देखने कॉलेज आ गए (उस समय मेरे घर पर फोन नहीं था। और घुमन्तू फोन विलासिता की चीज हुआ करती थी। इस लिए कोई भी प्लान प्रत्यछ मिल कर ही बनाना पड़ता था). हम दोनों ने कॉलेज पहुँच कर अपना वोट अपने पसंद के उमीदवार को दिया। लेकिन जब चुनाव का नतीजा आया तो हमें अपने वोट की बहुमूल्य कीमत का पता चला। हम दोनों ने जिस उम्मीदवार को वोट दिया था वह शिर्फ़ एक वोट के अंतर से जीता था । यही है एक आम आदमी के वोट की कीमत।
बनारस में मैं बड़ी पियरी (मुहल्ले का नाम ) पर अपने भईया और भाभी के साथ रहता था। जिसे सायद गोबर गली वाला मुहल्ला कहना ज्यादा सटीक होगा। एक कहावत है कि "काजल की कोठारी में कैसो ही सयानो जाय, एक लीक काजल की लागिहों कि लागिहों ". यहाँ पर बस "काजल" की जगह "गोबर" और "कोठरी" की जगह "गली" रख दीजिये। बात बन जायेगी। लेकिन एक बात जो शोध का विषय हो सकता है। वह यह है कि, यहाँ पर एक भी मछर नहीं दिखते।हो सकता है की एक दिन गोबर से कोई इकोफ्रेंडली मास्किटो रेप्लेंट इजाद हो जाए। सदियों से हमारे गावों में मिटटी से बने घर, फर्श एवं खलिहानों को गोबर से लीपने का प्रचलन इस तरफ एक इशारा तो करता ही है। सत्यनारायण की पूजा भी गाय के गोबर के बिना पूरी नहीं होती। जरुरत है हमारी प्राचीन परम्पराओं को दकियानूसी करार दे कर छोड़ देने के बजाय उनको विज्ञानं की कसौटी पर परखने की। हो सकता है इसमें छुपा कोई गूढ़ रहस्य मानव जीवन को नया आयाम दे जाय।
हम सबको एक बार कॉलेज की तरफ से स्टडी टूर पर इंडस्ट्रियल प्रोसेस देखने के लिए रेनुकूट, मिर्जापुर जाने का अवसर मिला। यहाँ के एक केमिकल इंडस्ट्री में घूमते हुए मेरा ध्यान वहां पर ऑफिस के सामने लगे हुए एक सुन्दर गुलाब के फूल पर पड़ा। मैं उस सुन्दर फूल को सूंघने से अपने आप को रोक न सका। और वह अनुभव आज भी मेरे जेहन में जीवंत हो उठता है। क्योंकि उस गुलाब ने अपनी प्रकृति ही खो दी थी। उस गुलाब से दिमाग को शीतल कर जाने वाली खुशबु की जगह कारखाने में बनने वाले रसायन की गंध आ रही थी। मैं अवाक् था। और सोचने लगा की यह कौन सी विकास की दौड़ है। जो हमसे हमारे खेत, खलिहान, नदी, जंगल, पहाड़, पानी, हवा, सभी की प्रकृति और पहचान छीन रहा है। क्या यह कीमत कुछ ज्यादा नहीं है ?
बनारस की चर्चा हो और गंगा का जिक्र न हो यह कैसे हो सकता है। अगर गंगा नहीं होती तो शायद बनारस शहर भी नहीं होता। यह कथन अतिशयोक्ति लग सकती है। पर मेरा तो ऐसा ही मानना है। गंगा एक नदी नहीं बल्कि एक पूरी सभ्यता है। मोक्ष दायनी गंगा। जिसे भगीरथ कपिल मुनि के श्राप से भस्म हुए अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए घोर तपस्या के बाद धरती पर लाने में सफल हुए थे। वही गंगा आज खुद के मोक्ष के लिए छटपटा रही है। क्यों कि हमने आज उसकी पहचान और प्रक्रति को अपने विकास के कचरे से दूषित जो कर दिया है। गंगा का पानी कभी सड़ता नहीं है। यह उसकी प्रकृति है । जो उसमें पाए जाने वाले Bacteriophage Virus की मौजूदगी के कारण होती है। मगर कब तक वह अपना स्वरूप बचाए रख सकेगी। यह एक यछ प्रश्न है। जिसका जबाब हम सबको खोजना होगा। वर्ना जिस दिन गंगा में पानी का बहाव बंद हो जाएगा, उस् दिन बनारस जैसे न जाने कितने शहर अपनी प्रकृति उस गुलाब के फूल की तरह ही खो देंगे।
बनारस में अक्सर मैं दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियो पर जा कर बैठा करता था। और अविरल बहती गंगा को देखता रहता। अपने आस पास घट रही घटनाओं का चश्मदीद गवाह। अपनी लेखनी के लिए खुराक इकठ्ठा करता। किसी नाविक की बिदेशी शैलानी से अंग्रेजी में बात करते देख कान उधर कर देता। तो कभी किसी भिखारी को अपलक देखता रहता। ऐसी ही एक भूखी काया को एक दिन दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियो पर माँगते हुए देख उसपर लिखने से अपनी लेखनी को रोक नहीं सका और "भिछु" शीर्षक से यह कविता लिखी।
भिछु
दशाश्वमेध घाट की सीढियों पर बैठा
वह बूढ़ा भिछु
हाथ में कटोरा लिए
शारीर अस्थि पंजर मात्र
सारी इन्द्रियां साथ छोड़ चुकी थी
बची थी तो सिर्फ
भूख की आग
जिसे बुझाने के लिए वह
पसार देता है हाथ
एक उम्मीद लिए
हर गुजरने वाले के सामने
कुछ लोग डाल देते
दस पैसे
चार या आठ आने
और कोई
गुजर जाता वहां से
अनसुना करके
या झिड़कते हुए
मगर करता भी क्या
खामोश सुनता रहता है
सब कुछ
बिचलित हुए बिना
लगा रहता है
निरंतर
उसी कर्म में
गंगा घाट की
सीढ़ियों पर
वह बूढ़ा भिछु
जिसे मैं देखता रह गया था
अपलक।
सुंदर.. लिखते रहिए ..शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंThanks Chaturvedi ji
जवाब देंहटाएंchachu wo ladki kaun hai? aur woh cycle kahan hai? budding author :) your writing kills are improving per blog so keep writing.
जवाब देंहटाएंLadki ka raj abhi raj hi rahega ....aur cycle Ujjain me ghar par
जवाब देंहटाएंInteresting and very well written Vijay bhaiya, I am a fan now. Please keep writing.
जवाब देंहटाएंThanks Deepti.....Soon you will see new post
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