डॉ. विजय प्रताप सिंह
किसी को भी खुले में शौच न जाना पड़े और इसकी ब्यवस्था हो यह अत्यंत जरुरी है। परन्तु क्या शौचालय होने मात्र से समस्या का समाधान संभव है ? क्या जरूरतों की प्राथमिकता के आधार पर परियोजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है ? जब तक हम कागजी आंकड़ो में उलझते रहेंगे कुछ भी होने वाला नहीं है। महात्मा गाँधी ने आजादी से ज्यादा जरुरी माना था शौचालय को। मगर शायद उनका यह सपना आजादी के १०० साल बाद भी पूरा नहीं होने वाला। और करना भी कौन चाहता है। नहीं तो गरीबी हटाओ का नारा हर चुनाव में "नई बोतल में पुरानी शराब" कि तरह पेश करने कि जरूरत नहीं पड़ती। खैर छोड़िए वर्ना यहाँ भी हम मुख्य मद्दे से भटक जायेंगे। और मैं कोई चतुर राजनेता नहीं जो ऐसा करूँ।
संयुक्त राष्ट्र (United Nations) ने इस साल १९ नवम्बर को विश्व शौचालय दिवस के रूप में घोषित किया है। उर्दू के शायर शेख़ बाक़िर अली चिरकीन (जन्म बाराबंकी, उत्तर प्रदेश) किसी और के द्वारा उनकी शायरी चुरा कर हैदराबाद में अपने नाम से छाप लेने से अनभिज्ञ जब एक मुशायरे में अपना वही कलाम पढ़ा तो लोगों ने उनपर चुराकर कलाम पढ़ने का आरोप लगा दिया। जिससे खिन्न हो कर उन्हों ने शौचालय को अपनी शायरी की विषय वस्तु बना लिया ताकि कोई उसे चुराने कि हिमाकत न कर सके।
शौचालय सभी के लिए नितांत आवश्यक जरूरतों में से एक है। मगर अफसोस कि आजादी के सड़सठ साल बाद भी हमारे देश में लगभग ५० फीसद से ज्यादा परिवार शौचालय से महरूम खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। बेचारे चिरकीन ने मजबूर होकर शायरी के लिए शौचालय का सहारा लिया था और अब नेता वोट की खातिर शौचालय की शरण में।और यही कारण है "मंदिर से भी ज्यादा पवित्र हैं शौचालय" और "देवालय से पहले शौचालय" की राजनीतिक बयानबाजी का जिससे हम सभी भलीं भाति वाकिफ हैं।
शौचालय सभी के लिए नितांत आवश्यक जरूरतों में से एक है। मगर अफसोस कि आजादी के सड़सठ साल बाद भी हमारे देश में लगभग ५० फीसद से ज्यादा परिवार शौचालय से महरूम खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। बेचारे चिरकीन ने मजबूर होकर शायरी के लिए शौचालय का सहारा लिया था और अब नेता वोट की खातिर शौचालय की शरण में।और यही कारण है "मंदिर से भी ज्यादा पवित्र हैं शौचालय" और "देवालय से पहले शौचालय" की राजनीतिक बयानबाजी का जिससे हम सभी भलीं भाति वाकिफ हैं।
जयराम रमेश (ग्रामीण विकास मंत्री ) ने शौचालय को मंदिर से ज्यादा पवित्र बताया। जिसपर कुछ हिंदू वादी संगठनो ने आपत्ती जताई। और शुरू हो गई बुद्धू बक्से के प्राइम टाइम पर बे सर पैर की बहस। लेकिन अगर जयराम रमेश ने यह कहा होता कि "मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघर से भी पवित्र है शौचालय" तो क्या कोई भी हिंदू वादी संगठन उनके इस बयान का बिरोध करता ? शायद नहीं। या फिर शायद सारे धार्मिक संगठन वैसा ही करते जैसा कुंछ हिंदू वादी संगठनो ने किया। परंतु वोट बैंक कि राजनीति हमारे तथाकथित सेक्युलर (धर्म निरपेक्ष ! हलां की हमारे संविधान में सेक्युलर शब्द का हिंदी अनुबाद "पंथ निरपेक्ष" है) नेताओं को ऐसा बयान देने की आजादी नहीं देता।
फिर शौचालय कि "पवित्रता" वाले काँग्रेसी बयान के बाद मोदी के "प्राथमिकता" वाले बयान " देवालय से पहले शौचालय" पर कांग्रेसी हल्ला बोल। परन्तु यदि मोदी के बयान का निष्पक्ष विश्लेषण करें तो मुझे नहीं लगता की यह किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुचाने वाला बयान है। कभी महात्मा गाँधी ने "आजादी से पहले शौचालय" की वकालत की थी। तो क्या वो देश कि आजादी नहीं चाहते थे ? लेकिन आजकल हमारे राजनीतिज्ञ जनता को असल मुद्दे से भटका कर राजनीतिक नफा नुकसान वाले मुद्दों में उलझाये रखने के जुगत में हैं। आखिर इन बयानों की जरूरत क्या है ? जो सपना गाँधी ने आजादी के पहले देखा। उसके लिए आजादी के सड़सठ साल बाद भी केवल बयान बाजी हो रही है। वह भी चुनावी नफा नुकसान को ध्यान में रख कर।चुनाव आते ही नेता गण कुम्भकर्णीय (पञ्च वर्षीय) निद्रा से उठ कर बरसाती मेढक की तरह चारो तरफ टर्र-टर्र करने लग जाते हैं। जो चुनावी बारिश के बाद जनता कि आँखों से ओझल हो जायेंगे। और फिर बढ़ती हुई महंगाई पर टर्र टर्र करने कि बारी जनता कि होगी। मगर सुनने वाला कोई नहीं होगा।
किसी को भी खुले में शौच न जाना पड़े और इसकी ब्यवस्था हो यह अत्यंत जरुरी है। परन्तु क्या शौचालय होने मात्र से समस्या का समाधान संभव है ? क्या जरूरतों की प्राथमिकता के आधार पर परियोजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है ? जब तक हम कागजी आंकड़ो में उलझते रहेंगे कुछ भी होने वाला नहीं है। महात्मा गाँधी ने आजादी से ज्यादा जरुरी माना था शौचालय को। मगर शायद उनका यह सपना आजादी के १०० साल बाद भी पूरा नहीं होने वाला। और करना भी कौन चाहता है। नहीं तो गरीबी हटाओ का नारा हर चुनाव में "नई बोतल में पुरानी शराब" कि तरह पेश करने कि जरूरत नहीं पड़ती। खैर छोड़िए वर्ना यहाँ भी हम मुख्य मद्दे से भटक जायेंगे। और मैं कोई चतुर राजनेता नहीं जो ऐसा करूँ।
मगर एक बात तो सच है कि शौचालय कि समस्या से ज्यादा सार्वजनिक समस्या शायद ही कोई दूसरी हो । ट्रेन से यात्रा करते समय खास तौर पर शहरी इलाकों के स्टेशनो के आसपास सुबह-सुबह रेल लाइन पर या सड़क के किनारे खुले में शौच करते हुए पुरुष एवं महिलाओं का चेहरा छुपाते हुए दिखना बहुत आम बात है। उस समय उनकी मनः स्थिति कैसी होती होगी ? समझना मुश्किल नहीं। मगर हमारे नेता हैं कि यहाँ भी राजनीती। मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या आने वाले २०१४ के आम चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में यह उल्लेख होगा की अगले पांच साल (या किसी अन्य निश्चित अवधि ) के बाद किसी भी रेल पटरी या सड़क के किनारे खुले में शौच करता हुआ कोई नहीं दिखेगा। पर शायद नहीं। क्यों कि इसके लिए समस्या की जड़ में जाना होगा। परन्तु हमारी आदत समस्या को सतही तौर पर सुलझाने की होती है। मसलन, किसी आदिवासी गावं के सभी घरों में शौचालय बनाकर उसे आदर्श गाँव घोषित कर देना। लेकिन क्या कभी उन शौचालयों का उपयोग भी होता है ? जिस गावं में पीने का पानी दूर से लाना पड़ता हो वहां शौचालय में प्रयोग के लिए पानी कहाँ से आएगा ? इन मूलभूत जरूरतों को कौन और कैसे पूरा करेगा ? ये कुछ बुनियादी सवाल हैं। जिनके जबाब खोजने होंगे।इसलिए केवल शौचालयों का होना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि उनका उपयोग हो यह सुनिश्चित करना ज्यादा जरूरी है।
आइये अब मैं आप सब को शौचालय दर्शन पर ले चलता हूँ। जी हाँ ! "देवालय से पहले शौचालय दर्शन"। मगर मेरे इस बयान पर हो-हल्ला या प्राइम टाइम में कोई बहस नहीं होगी। और हो भी क्यों ? आखिर मैं कोई वोट बटोरू खास आदमी तो हूँ नहीं। और आम आदमी कुछ भी कहता रहे क्या फर्क पड़ता है। आखिर आजादी के बाद से अब तक आम आदमी कि कौन सी बात सुनी गई है जो सुनी जायेगी । और फिर इस बयान में नया क्या है? हम करते भी तो यही हैं। पहले शौचालय दर्शन फिर मंदिर, मस्जिद या कोई और धार्मिक स्थल। खैर छोड़िये मै भी कहाँ शब्दों के जाल में उलझ गया। इन्हें नेताओं के लिए ही छोड़ देते हैं।
मुझे पिछले दो वर्षो में दछिणी उड़ीसा के गजपति एवं रायगढ़ा जिले में आदिवासियों के लिए एक परियोजना पर काम करते हुए उनके रीति-रिवाज एवं आदिवासी क्षेत्र में बिभिन्न सरकारी योजनाओ के तहत होने वाले कामों को नजदीक से देखने और समझने का अवसर मिला। इस दौरान आदिवासी गावों में बने शौचालयों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। इन गावों में सरकारी मदद से बने शौचालयों के दर्शन लाभ से जमीनी हकीकत का पता चला। शौचालय ! तीन तरफ से खड़ी पाँच फिट ऊँची दीवार जिसके ऊपर छत नहीं और सामने दरवाजा नहीं। कहीं पर खुले आसमान के नीचे घास फूस में छिपा हुआ कमोट। कुछ सही तरीकों से बने शौचलय के भी दर्शन हुए जो बनने के बाद शायद ही उपयोग में आयें हों। मगर अब सामान रखने के काम आ रहे हैं। परन्तु ये सारे सरकारी आकड़ों में शौचलय के नाम से दर्ज हैं। इस इलाके में विभिन्न परियोजनाओं के तहत बने ९९ प्रतिशत शौचालय (यह मेरा खुद का आंकलन है ) या तो उपयोग के लायक नहीं हैं। या शौचालयों में उपयोग के लिए पानी नहीं है। या आदिवासी इन शौचालयों का उपयोग सामाजिक रूढ़ियों के कारण नहीं करते और जंगल में जाना ज्यादा ठीक समझते हैं। कारण जो भी हो। पर अंतिम सत्य एक ही है। अनुपयोगी शौचालय ! जिसकी कहानी ये छाया चित्र खुद ब खुद बयां कर रहे हैं (सभी छाया चित्र लेखक द्वारा खींचे गए हैं ).
सन २०११ कि जनगणना के अनुसार हिंदुस्तान कि आधी आबादी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर हैं जिनमें से २६ % शहरी इलाके और ७८% ग्रामीण इलाकों के लोग हैं । जबकि भारत में पहला स्वछता कानून १८७८ में कलकत्ता के झोपड़ियों में भी शौचालय को अनिवार्य बनाने के मकसद से पेस किया गया था (तब कलकत्ता भारत कि राजधानी थी )। मगर आज भी सभी कोलकाता वासियों के घर में शौचालय होगा कह नहीं सकते। इसी तरह से भारत सरकार ने जन आंदोलनों के दबाव में १९९३ में एक कानून बना कर सर पर मैला ढ़ोने कि प्रथा को अपराध कि श्रेणी में रख कर ख़तम करने कि कोशिश कि लेकिन जमीनी स्तर पर यह भी नाकाफी सिद्ध हुआ। एकबार फिर २०१२ में मैला प्रथा निषेध पुनर्वास विधेयक संसद में पारित किया। मगर यह भी उद्देश्य पूर्ति में कितना सफल होगा यह तो समय ही बतायेगा। १९९० में इस प्रथा को जड़ से मिटाने के लिए सरकार द्वारा १९९५ कि समय सीमा तय कि गई थी, बाद में इसे बढ़ा कर १९९८ कर दिया। फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वादा किया कि वे सन २००० तक इस प्रथा को जड़ से ख़तम कर देंगे। मगर आज एक दशक बाद भी कमोवेश वही स्थिति। आखिर आम जनता को वादों के सिवा मिला क्या है। आजादी से लेकर आज तक। गरीबी हटाने से लेकर मैला प्रथा मिटाने तक। शिर्फ़ कोरे वादे।
एक और बात। जहाँ आम जनता के लिए कोरे वादे वहीँ सत्ता पर आसीन लोग जनता कि गाढ़ी कमाई मनमाने ढंग से उड़ा रहे है। हमारे देश का योजना आयोग जहाँ एकतरफ कहता है कि प्रति दिन २८ रु. कमाने वाला गरीब नहीं है। वही अपने योजना भवन के दो शौचालयों कि मरम्मत में ३५ लाख रुपये खर्च करता है। एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश के केवल ४४ प्रतिशत स्कूलों में ही शौचालय कि ब्यवस्था है। और केवल १८ प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय हैं। सभी स्कूल में शौचालय।क्या यह इतना बड़ा कार्य है जिसे केंद्र एवं राज्य सरकारें मिल कर पूरा नहीं कर सकती। मगर जब उनका ध्यान वोट पाने के लिए फ्री लैपटॉप बाँटने पर हो तो शौचालय कि चिंता कौन करे।
एक और बात। जो थोड़ी अटपटी लग सकती है। हो सकता है कि ज्यादातर लोग इससे सहमत न हों। परन्तु मेरा मानना कुछ ऐसा ही है। हमें अपने उन ग्रामीण लोगों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जो सुबह शाम जंगल या खुले मैदान में जाकर हल्का हो लेते है (इसका मतलब यह न निकला जाय कि मैं इनके लिए शौचालय के पक्ष में नहीं हूँ ). क्योंकि ऐसे में वो इस कृत्य के लिए एक लीटर पानी से काम चला लेते हैं। मगर शौचालय का उपयोग करने पर कम से कम १० से १५ लीटर पानी कि बर्बादी होती हैं। जरा सोचिये। मजबूरी में ही सही क्या यह जल संरक्षण का एक माध्यम नहीं।
जिन गावों में पीने के लिए पर्याप्त स्वछ पानी नहीं मिल रहा हो क्या वहाँ कि प्राथमिकता शौचालय बनाना होना चाहिए ? या पानी कि आपूर्ति सुनिश्चित करने के बाद शौचालय कि बात और उनका उपयोग सुनिश्चित करने के लिए समाजिक रूढ़ियों को मिटाने के लिए दीर्घकालिक योजना पर काम होना चाहिए।
सन २०११ कि जनगणना के अनुसार हिंदुस्तान कि आधी आबादी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर हैं जिनमें से २६ % शहरी इलाके और ७८% ग्रामीण इलाकों के लोग हैं । जबकि भारत में पहला स्वछता कानून १८७८ में कलकत्ता के झोपड़ियों में भी शौचालय को अनिवार्य बनाने के मकसद से पेस किया गया था (तब कलकत्ता भारत कि राजधानी थी )। मगर आज भी सभी कोलकाता वासियों के घर में शौचालय होगा कह नहीं सकते। इसी तरह से भारत सरकार ने जन आंदोलनों के दबाव में १९९३ में एक कानून बना कर सर पर मैला ढ़ोने कि प्रथा को अपराध कि श्रेणी में रख कर ख़तम करने कि कोशिश कि लेकिन जमीनी स्तर पर यह भी नाकाफी सिद्ध हुआ। एकबार फिर २०१२ में मैला प्रथा निषेध पुनर्वास विधेयक संसद में पारित किया। मगर यह भी उद्देश्य पूर्ति में कितना सफल होगा यह तो समय ही बतायेगा। १९९० में इस प्रथा को जड़ से मिटाने के लिए सरकार द्वारा १९९५ कि समय सीमा तय कि गई थी, बाद में इसे बढ़ा कर १९९८ कर दिया। फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वादा किया कि वे सन २००० तक इस प्रथा को जड़ से ख़तम कर देंगे। मगर आज एक दशक बाद भी कमोवेश वही स्थिति। आखिर आम जनता को वादों के सिवा मिला क्या है। आजादी से लेकर आज तक। गरीबी हटाने से लेकर मैला प्रथा मिटाने तक। शिर्फ़ कोरे वादे।
एक और बात। जहाँ आम जनता के लिए कोरे वादे वहीँ सत्ता पर आसीन लोग जनता कि गाढ़ी कमाई मनमाने ढंग से उड़ा रहे है। हमारे देश का योजना आयोग जहाँ एकतरफ कहता है कि प्रति दिन २८ रु. कमाने वाला गरीब नहीं है। वही अपने योजना भवन के दो शौचालयों कि मरम्मत में ३५ लाख रुपये खर्च करता है। एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश के केवल ४४ प्रतिशत स्कूलों में ही शौचालय कि ब्यवस्था है। और केवल १८ प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय हैं। सभी स्कूल में शौचालय।क्या यह इतना बड़ा कार्य है जिसे केंद्र एवं राज्य सरकारें मिल कर पूरा नहीं कर सकती। मगर जब उनका ध्यान वोट पाने के लिए फ्री लैपटॉप बाँटने पर हो तो शौचालय कि चिंता कौन करे।
एक और बात। जो थोड़ी अटपटी लग सकती है। हो सकता है कि ज्यादातर लोग इससे सहमत न हों। परन्तु मेरा मानना कुछ ऐसा ही है। हमें अपने उन ग्रामीण लोगों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जो सुबह शाम जंगल या खुले मैदान में जाकर हल्का हो लेते है (इसका मतलब यह न निकला जाय कि मैं इनके लिए शौचालय के पक्ष में नहीं हूँ ). क्योंकि ऐसे में वो इस कृत्य के लिए एक लीटर पानी से काम चला लेते हैं। मगर शौचालय का उपयोग करने पर कम से कम १० से १५ लीटर पानी कि बर्बादी होती हैं। जरा सोचिये। मजबूरी में ही सही क्या यह जल संरक्षण का एक माध्यम नहीं।
जिन गावों में पीने के लिए पर्याप्त स्वछ पानी नहीं मिल रहा हो क्या वहाँ कि प्राथमिकता शौचालय बनाना होना चाहिए ? या पानी कि आपूर्ति सुनिश्चित करने के बाद शौचालय कि बात और उनका उपयोग सुनिश्चित करने के लिए समाजिक रूढ़ियों को मिटाने के लिए दीर्घकालिक योजना पर काम होना चाहिए।