रविवार, 12 जनवरी 2014

दिसंबर का महीना, बर्फ़ीली वादी और हम पाँच


डॉ. विजय प्रताप सिंह  


ब्रेकिंग न्यूज़ ! दिल्ली में गिरी बर्फ। दिल्ली में बर्फ। चौंकिए नहीं ! हमारी मीडिआ कहीं पर भी बर्फ बारी करवा सकती हैं। हुआ यूँ कि "एक आदमी साइकल पर बर्फ ले जा रहा था और कैरिअर ढीला होने के कारण बर्फ सड़क पर गिर गई"   । मई २०१२ में सोशल मीडिया ने इंडिया टी.वी. के हवाले से दिल्ली में कुछ इसी तरह बर्फ गिरवा दी थी। खैर, जिस तरह से दिनों दिन 24 x7 खबरिया चैनलों की बाढ़ आ रही है तो कुछ अलग दिखने के लिए ऐसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनना लाजमी है।

 इसी कड़ी में साल २०१३ के आगाज़ से पहले के आखिरी हफ्ते में  कुछ खबरिया टी. वी. चैनलों  ने एक बार फिर बे सर पैर कि बहस छेड़ रखी थी। विषय था नास्त्रेदमस कि २१ दिसंबर २०१२ को दुनिया ख़तम होने वाली भविष्यवाणी। मगर हम इससे बे परवाह दिल्ली कि सर्दी से बचने के लिए किसी ऐसी जगह की तलाश में थे जहाँ बर्फ बारी का आनंद लिया जा सके। और हमारी तलाश रोहड़ू, "पब्बर घाटी" कि बर्फीली वादी पर आकर ख़तम हुई ।

रोहड़ू ! "पब्बर नदी" के किनारे बसा एक छोटा सा क़स्बा। समुद्र तल से  ऊँचाई ५००० फीट। चीड़ एवं देवदार के घने जंगलों से घिरी पब्बर घाटी सेब की खेती के लिए मशहूर "एप्पल वैली" के नाम से भी जानी  जाती  है।

जिस दिन दुनिया ख़तम होनेवाली थी (नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी को पढ़ने का दावा करने वालों के अनुसार) उसी दिन हम पाँच  मित्रों ने सेंटा कि दाढ़ी सी सफ़ेद और कपास की रुई जैसी मुलायम असली बर्फ कि तलाश में पब्बर घाटी कि तरफ निकल पड़े थे। मगर घने कुहरे कि चादर से ढ़की सड़क पर हमारी गाड़ी कछुए कि चाल से सरक रही थी ।  प्रकृति के सामने मनुष्य का सारा विकास कितना बौना हो जाता है। इसका आभास इसी से लगाया जा सकता है, कि  हमने दिल्ली से चंडीगढ़ तक की लगभग २५० कि. मी. कि यात्रा ८ घंटे में पूरी की। साथ ही एक और बात इस कुहरे में समझ में आई। कि किस तरह से प्रकृति हमें भाई चारा सिखा देती है। जहाँ अमूमन लोग सड़क पर चलते हुए एक दूसरे को ओवर टेक करने में लगे होते हैं। वहीँ कुहरे के कारण सभी पहले आप-पहले आप करते नजर आये। सभी कुहरे कि दीवार को तोड़ती हुई किसी और गाड़ी के पीछे उसकी बैक लाइट के सहारे सड़क ढूढ़ने कि कोशिश करते रहे। कुहरा ज्यादा होने के कारण हमने चण्डीगढ़ में रात गुजारने का  फैसला किया।  और एक होटल में दो कमरे लिए। पांच लोग और दो कमरे।

मै अपने दो बंगला भाषी मित्रों के साथ एक कमरे में सोने का प्रयास किया ही था। कि एक भाई ने बेसुरी बंशी बजाना (खर्राटे लेना) शुरू किया। मैंने दूसरे मित्र से कहा कि यह तो अभी से ही शुरू हो गया। तो दूसरे ने जबाब दिया। थोड़ी देर में मैं भी शुरू हो जाउंगा। मैंने वह कमरा छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी। और धीरे से रजाई लेकर दूसरे कमरे में सो रहे दूसरे मित्रों के कमरे में आ गया। आगे कि यात्रा में रात्रि शयन के दौरान दोनो बंग्ला मित्रों ने एक दूसरे को कौन-कौन सी धुन सुनाई इसका गवाह तीसरा कोई नहीं रहा। खैर, खर्राटा मारने वाले का दोष भी क्या है। चिकित्सा विज्ञानं भी तो अब तक इसके सटीक कारणों का पता लगाने एवं इलाज खोज पाने में असफल ही रहा है। एक सर्वे के मुताबिक लगभग २३ प्रतिशत पति-पत्नी खर्राटों के कारण  अलग  कमरों में सोते हैं। वहीँ दुनिया मेंखर्राटा तलाक का तीसरा सबसे प्रमुख कारण है।
लेखक, दो बंग्ला - भाषी मित्र और कारथी 

मुझे लगता है कि वर-वधू कि तलाश के लिए तैयार किये जाने वाले "घोषणा पत्र" (बायोडाटा) में तमाम खूबियों के साथ सोते समय बाँसुरी बजाने कि कला का भी जिक्र कर दिया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि इससे खर्राटों के कारण होने वाले तलाक में कमी जरूर आयेगी। क्यों कि ! जब..... मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा....... । शादी के घोषणा पत्र से जुड़ी एक और बात। जो तक़रीबन ८ साल पुरानी है। एक अंग्रेजी अख़बार में शादी के लिए सुयोग्य कन्या कि तलाश में छपे एक विज्ञापन पर मेरी नजरें आकर रुक गईं।  और तमाम विचार मेरे मन में कौंधने लगे। मैंने छाया चित्र के रूप में उस विज्ञापन को अपने पास सुरक्षित रख लिया। विज्ञापन था शादी के लिए एक एच.आई.वी. पॉजिटिव युवक की तरफ से एक एच.आई.वी. पॉज़िटिव कन्या कि तलाश का। पढ़ कर मैंने मन ही मन उस युवक की जीवन के प्रति सकारात्मकता एवं अपने साथ  एक
और व्यक्ति के जीवन में खुशियाँ भरने की  चाहत  को सलाम किया। आखिर न जाने  कितने ऐसे लोग हैं जो जीवन में छोटी-छोटी मुश्किलों में निराश हो जाते हैं।

वादी की खूबसूरती को यादों में समेटता मैं 
अगले दिन सुबह हम आगे कि यात्रा पर निकल चुके थे । शाम तक हम पहाड़ और खाई के बीच सर्पीली सड़क पर बर्फीली वादियों में मस्ती खोरी का सपना संजोए आगे बढ़ते रहे। अँधेरा होने लगा था। और हम अभी गंतव्य से बहुत दूर थे। आगे बढ़ते हुए रास्ते की तलाश में हमने आधुनिक तकनीक (गूगल पथ प्रदर्शक) का सहारा लिया। और शार्टकट के चक्कर में गलत मार्ग पर चल पड़े । अब हम अँधेरे में गड्ढों और पत्थरों के बीच में सड़क ढूढते हुए चल रहे थे । वैसे इन रास्तों से गुजरने का रोमांच भी कुछ कम नहीं था। जिसका एहसास हम सबने किया भी था।और ड्राइविंग सीट पर बैठे मेरे मित्र को रोमांच के साथ कलात्मक ड्राइविंग का "आनंद" अनायास ही मिल रहा था।

इन रास्तों से गुजरते हुए मुझे रामायण में वर्णित एक प्रसंग याद आ रहा था। जिसके अनुसार विश्वामित्र ने राक्षसों से अपनी यज्ञ की  रक्षा के लिए श्री राम और लक्ष्मण को अयोध्या से अपने साथ लेकर जाते हुए एक जगह पर पहुँच कर उन्हें दो रास्ते दिखाए। और बताया कि एक रास्ता छोटा है। परन्तु दुर्गम पहाड़ियों से होकर गुजरना होगा। रास्ते में तमाम राक्षसों का भी सामना कारना पड़ेगा। दूसरा रास्ता लम्बा परन्तु कम मुश्किलों  भरा है । राम ने आगे बढ़ने के लिए छोटा रास्ता चुना। और रास्ते में तमाम राक्षसों का संहार करते हुए आगे बढ़े थे।

शायद हमने भी कुछ वैसा ही किया था। मगर गलती से । हम रात के अँधेरे में जंगल के बीच से गुजरती टूटी-फूटी सड़क पर पत्थर रूपी राक्षसों से लड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। मगर हम अपने कुशल "कारथी" (अगर महाभारत काल में मोटर कार होती तो श्री कृष्ण "सारथी" नहीं बल्कि "कारथी" कहलाए होते) कि हिम्मत और कलात्मक ड्राइविंग  के भरोसे सड़क पर आने वाली सभी बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। दूर-दूर तक घुप्प अँधेरा । अगर गाड़ी की  हेड लाइट का बल्ब फ्यूज हो जाय तो सड़क पर रात गुजारने के आलावा दूसरा कोई उपाय नहीं होता ।                

पूरे एक घंटे तक इस रास्ते से गुजरते हुए हमें किसी दूसरी गाड़ी ने क्रॉस नहीं किया। खैर, थोड़ी देर बाद हमें दूर से टिम टिमाती रोशनी दिखाई दी। वहाँ पहुँच कर पता चला कि हम "खड़ा पत्थर" पहुंच चुके थे। इस जगह को यह नाम यहाँ पर पाये जाने वाले विशाल अंडाकार पत्थरों के कारण मिला है। जो समुद्र तल से ८७७० फीट कि ऊंचाई पर बहुतायत में खड़ी अवस्था में मौजूद हैं। लेकिन रात के अँधेरे के कारण हम इन पत्थरों को देखने नहीं जा सके। जिसका मलाल है। खड़ा पत्थर में हमने हाड़ को कंपा देने वाली ठंड़ क्या होती है इसका भी एहसास किया । लोगों का मानना है कि पब्बर वैली में यह सबसे ठंडी  जगह है। सर्दियों में यहाँ का तापमान हिमांक के नीचे ही रहता है। यहाँ आने का सबसे अच्छा समय मार्च से जून या अगस्त-सितंबर का महीना है। मगर हम तो गए ही थे अलग अनुभव की तलाश में।

यहाँ हमने एक छोटी सी दुकान पर चाय और पकौड़ों के साथ बालूशाही (एक तरह कि मिठाई) का भी आनन्द लिया। और दुकान की रसोई में जल रही आग के सामने अपने आप को गरम करने का भी प्रयास किया। अब रात के आठ बज चुके थे। और रोहड़ू अभी हमारी पहुंच से ३५ कि. मी. दूर था। हम खड़ा पत्थर से रोहड़ू की  यात्रा २ घंटों में पूरी कर पर्यटन विभाग के अतिथि गृह पहुंचे। कमरे में ठंड से बचने के सभी सामान मौजूद थे (कृपया पाठक इसका मतलब अपने हिसाब से न निकालें)। खैर ! जा की रही भावना जैसी……।

एक और बात। जिसका ज़िक्र मैं यहाँ नहीं करना चाह रहा था। परन्तु कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर प्रकाश डालने के लिए लिख रहा हूँ। पूरे रास्ते कुछ मित्रों में  एक अलग तरह की प्रतिस्पर्धा  चल पडी थी कि कौन कितना ग्लोबल वार्मिंग करवा सकता है। यात्रा के दौरान कार में पड़े ब्रूट (एक डिओडरेंट का ब्रांड) का बस एक ही उपयोग रह गया था। अगर कम्पनी को पता चले तो शायद इस नाम से डी. ओ. बनाना ही बंद कर दे। वैसे ही जैसे बोफोर्स तोप खरीदी में हुए भ्रष्ट्राचार के कारण  साख खो चुकी बोफर्स कम्पनी ने अपना नाम बदल लिया। शायद कम ही लोगों को पता हो कि दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित "नोबल पुरस्कार" शुरू करने वाले अल्फ्रेड नोबल बोफोर्स कम्पनी के मालिक रह चुके हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों में एक सबसे महत्वपूर्ण  मीथेन (CH4) है। जिसका ग्लोबल  वार्मिंग  में योगदान  लगभग  २८  प्रतिशत है।
सेब के पेड़ कि देख भाल करता किसान 
मीथेन गैस का उत्सर्जन ज्यादातर नम भूमि एवं धान के खेत (Paddy Field) से होता है। परन्तु इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण स्रोत जानवरों की पाचन क्रिया के दौरान  निकलने वाली गैस है। जानवरों द्वारा  निकाला जाने वाला मीथेन विश्व भर में मानव जनित कारणों से उत्सर्जित होने वाले मीथेन का लगभग २९ प्रतिशत होता है। वहीँ एक अध्ययन के अनुसार मनुष्य भी इस क्रिया में थोड़ा मीथेन और कार्बन डाई आक्साइड  गैस निकालते हैं। और हमारे कुछ मित्र भी इस कार्य में अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहना चाहते थे। खैर इस वैज्ञानिक चर्चा को यहीं विराम देते हैं। और ग्लोबल वार्मिंग से पूरी घाटी की बर्फ पिघल जाये इससे  पहले घूमने का आनंद ले लेते हैं।

सुबह बर्फ में घूमने की पूरी तैयारी के साथ हम चिरगावं होते हुए चांसल तक कि यात्रा पर निकल लिए। चांसल से तक़रीबन १६ कि.मी. पहले सड़क (पहाड़ में बनी कच्ची सड़क) पर बर्फ होने के कारण गाड़ी से आगे जाना सम्भव नहीं था। अब हम शार्टकट से पहाड़ी पर चढ़ते हुए ऊपर जा रहे थे। इस दौरान पब्बर घाटी में घूमते हुए हमें सेब के बागान में अपने पेड़ों की देखभाल करते किसानों से मिलने का मौका मिला। बड़ी तन्मयता से वो अच्छी फसल पाने के लिए पेड़ों की अनुपयोगी डालों कि कटाई-छँटाई कर उसपर एक खास प्रकार का लेप लगा रहे थे। जिसे देखकर सोचता रहा कि जरूर इनकी यह मेहनत एक दिन सुन्दर सेब के फलों के रूप में इन डालियों पर लटक रहे होंगे। याद उस सेब का भी आया जिसने न्यूटन को अमर कर दिया।

आगे बढ़ते हुए चीड़ के पेड़ (वनस्पति विज्ञानं में इन्हें जिम्नोस्पर्म यानी बिना फूल वाले पौधों कि श्रेणी में रखा गया है) की डालियों पर गहरे हरे रंग की सुई की  आकार वाली पत्तियों के बीच लटकते चमकीले भूरे रंग के फल (इसे कोन कहा जाता है जिसके अंदर बीज होते  हैं। सही मायने में ये फल नहीं होते) इन  पेड़ों  कि सुंदरता को  अलग ही चार चाँद लगा रहे थे। वहीँ चीड़ के पेड़ से निकलने वाले गोंद (रेज़िन, जिसका उपयोग तारपीन का तेल बनाने एवं पेंट में किया जाता है) पर बैठा कीट कब कांच कि तरह पारदर्शी रेज़िन कि बूंद के बीच कैद हो गया शायद ही समझ पाया हो (देखें फोटो ) .

 इस फ़ोटो को खींचते हुए मुझे जुरासिक पार्क फ़िल्म का एक  दृश्य याद आ रहा था। जिसमे दिखाया गया था कि कैसे एक मछर जिसने किसी डायनासोर को काटने के बाद एक पेड़ पर बैठता है और तभी पेड़ से निकलने वाले गोंद के नीचे दब कर संरक्षित (Preserve) हो जाता है । बाद में उसी मच्छर  के शरीर में संरक्षित डायनासोर के खून के डी.एन.ए. से जुरासिक पार्क में डायनासोर की उत्पत्ति की  गई। कहानी फ़िल्मी होते हुए भी वैज्ञानिक सत्य के अत्यंत करीब थी । मुझे इस चीड़ के गोंद की  बूंद के बीच संरक्षित इस कीट को देख कर लगा जैसे यह कीट भी शायद हजारों सदियों बाद "जुरासिक पार्क"  कि तरह किसी "पब्बर पार्क" की  कहानी का अहम् पात्र होने वाला/वाली है।

अब हम  प्रकृति की  तमाम कलाकृतियों एवं ताने बाने से रुबरु  होते हुए काफी दूर निकल आए थे। जहाँ हमें बर्फ के प्यार में सराबोर होने का  मौका मिला । हम भी पीछे नहीं रहे।  मुट्ठी में हाथ कि गर्मी से बूंद बनकर टपकती बर्फ के साथ अटखेलियाँ करता सोचता रहा कि स्थाई कुछ भी नहीं। पानी की  बूंद जो सूरज कि तपिष  से भाप बन कर आसमान कि उंचाई में खो गयी थी । आज बर्फ बन कर इस जमीं पर सफ़ेद चादर सी  बिछी  है। और तैयार है एक बार फिर सूरज कि गर्मी को सोख बूंद बन कर धरती में समां जाने को। या बर्फ बनने के लिए एक बार फिर भाप बन जाने को बेताब।

शाम ढलने लगी थी। और हम प्रकृति के इस मनोरम नज़ारे को कैमरों में कैद करते हुए, अनमने मन से धरती पर बिछी सफ़ेद चादर को पीछे छोड़ते अपनी यादों में मुट्ठी भर बर्फ लिए वापस चल दिए । देखते ही देखते डूबते सूरज की लालिमा पहाड़ी के पीछे ऐसे छुप गयी जैसे खिड़की  के झुरमुट से झांकती नव विवाहित  सुंदरी ने मेहँदी रची हथेलियों में अपना चेहरा छुपा लिया हो।