रविवार, 29 जून 2014

" एक मुठ्ठी बर्फ "

डॉ. विजय प्रताप सिंह 




दिनांक ३० अप्रैल २०१३। सुबह के ४ बजे। लेह जाने के लिए मैं अपने एक सहकर्मी के साथ दिल्ली हवाई अड्डे पहुँचा। लेह ! उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच लद्दाखी भू भाग पर समुद्र तल से ३५०० मी. की ऊँचाई पर बसा हुआ एक मनोरम शहर। तकरीबन ६ महीने तक सड़क मार्ग से पूरी तरह से कटा हुआ बर्फ की चादर में लिपटी एक अलग दुनिया।

हवाई अड्डे  पर  बोर्डिंग  टिकट  लेते  समय देखा  कि आस-पास  बहुत से कामगार मजदूर खड़े थे। मैंने जिज्ञासा वस् बोर्डिंग पास देने वाले कर्मी से पूछा तो पता चला की ये सब ठेकेदार द्वारा काम करने के लिए लेह भेजे जा रहे हैं। पर्यटन का सीजन शुरू होने के पहले कि तैयारी। कुछ मजदूरों से बात करने पर पता चला की उनमें से अधिकतर बिहार और मेरे गृहप्रदेश उत्तर प्रदेश से थे। इसी तरह पहले अँग्रेजों के समय हिंदुस्तान से बहुत से मजदूर दक्षिण अफ़्रीका भेजे जाते थे जिन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था। लेह में कुशल कामगार मजदूरों कि काफी कमी है। जिस कारण से होटलों की मरम्मत, पर्यटकों के लिए अस्थाई कैम्पों के निर्माण जैसे कार्यों के लिए मजदूरों कि काफी जरूरत रहती है।

अब हम तैयारे में सवार हो चुके थे। यह मेरी पहली लेह यात्रा थी। इसलिए मैंने खिड़की के किनारे वाली सीट ले रखी थी ताकि बाहर का नजारा देखा जा सके। लेह पहुचने से १५-२० मिनट पहले खिड़की से दिखने वाला नजारा वाकई अद्भुद था। नीले आसमान के तले सीढ़ी दार नंगे पहाड़ देख कर लगता जैसे आसमान तक पहुंचने के लिए प्रकृति ने सीढ़ियाँ बनाई हों। अब हम लेह  के "कुशोक बकुला रिनपौछे " हवाई अड्डे पर उतर चुके थे। हवाई अड्डा चारो तरफ से बर्फीली पहाड़ी से घिरा हुआ। बाहर निकल कर मै देखता रह गया प्रकृति की कारीगरी को, उस मनोरम छठा को।

अचानक मुझे अगस्त २०१० का वह मंजर याद आ गया जब पूरा लेह बादल फटने से हुई मूसलाधार वारिश और उस कारण से होने वाले भूस्खलन और घरों के गिरने से पूरी तरह से तबाह हो गया था। उस दिन मैं हिन्दुस्तान के सबसे दक्षिणी भूभाग "ग्रेट निकोबार द्वीप" पर था और वहीँ गेस्ट हॉउस में टेलीविजन पर भारत के सबसे उत्तरी छोर पर आई इस तबाही का मंजर देखा था।

लेह ! जहां साल भर में औसत बारिश लगभग १०० मि.मी. होती है और अगस्त के महीने में औसतन १५ मि.मी. (२२ अगस्त  १९३३ को २४ घंटे के  दौरान ५१ मि.मी.) वहीँ ६ अगस्त २०१० की आधी रात के समय पूरे साल में होने वाली बारिश के बराबर वर्षा लेह में आधे घंटे के दौरान हो गई। दरसल में यहाँ पर ज्यादातर घर मिट्टी के बने होते हैं। जो आसमान से बर्षी इस तबाही के कारण मलवे में बदल गए और आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार लगभग २५० लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी।

अगर आप हवाई मार्ग से लेह जाते हैं तो कम से कम दो दिन तक होटल में आराम करने कि जरुरत होती है। जो अधिक ऊंचाई पर आक्सीजन की कमी होने के कारण शारीर को यहाँ कि वायुमंडलीय परिस्थितियों में अनुकूलित (Aclemetise) होने के लिए जरूरी है। मैंने यहाँ आने से २४ घंटे पहले एसिटाजोलामाइड कि एक टेबलेट (Diamox) ले ली थी जो कि कम ऑक्सीजन की उपस्थिति में शरीर को अनुकूलित करने में सहायक होता है। पहले दिन हमने खाने और सोने के सिवाय कुछ नहीं किया। ठण्ड इतनी कि दो रजाई भी पूरी तरह से गर्माहट देने में असमर्थ। शाम को हमने थोड़ी देर शहर देखने का मन बनाया। और अपने एक परिचित मि. नोरबो, जो वहाँ फारेस्ट डिपार्टमेंट में काम करते हैं के साथ टैक्सी में लेह देखने निकल गया।

लेह को मोनेस्ट्रियों का शहर कहना गलत नहीं होगा। मोनेस्ट्री ! यानी बौद्ध धर्म स्थल। सबसे पहले हम थिकसे मोनेस्ट्री गए जो लेह से लगभग २० किलो मीटर दूर १२ मंजिला इमारत, लदाखी वास्तुशिल्प का एक बेजोड़ उदहारण है। यहाँ मुख्य प्रार्थना कक्ष में लगभग १५ मी. ऊँची चटकीले रंगों वाली बुद्ध प्रतिमा देखने लायक है। यहाँ एक जापानी दल बुद्ध प्रतिमा के सामने एकाग्रचित पूरी तरह भजन में लीन था। हम भी उनके साथ बैठ गए। मेरा ध्यान वहां पर रखे एक ट्रे पर पड़ी जिसमे धार्मिक पर्यटकों द्वारा दान की हुई विभिन्न देशों की मुद्रा पड़ी थी। जो बुद्ध की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता को दर्शा रही थी। यहाँ बैठा हुआ मैं खो गया था बुद्ध के स्वरूप में। सोंचता रहा ! बौद्ध धर्म के बारे में जिसका जन्म भारत में हुआ लेकिन उस धर्म को माननेवाले  दूसरे देशों में ज्यादा हैं। "गोली से डर नहीं लगता मगर शांति के प्रतीकों से डर लगता है" शायद यही असली कारण रहा होगा जो की तालिवानियों ने बामयान में हजारों साल पुरानी बौद्ध प्रतिमा को तोड़ दिया था।

यहाँ से हम शांति  स्तूप गए जिसे "द जपनीज़ फॉर वर्ड पीस" नाम की जापानी बौद्ध संस्था ने बनवाया है। यह "शांति स्तूप" लेह के उन जगहों में से एक है जहाँ आने वाले पर्यटकों की तादाद सबसे ज्यादा होती है। यहाँ से हम रैंचो के स्कूल आ गये। जी हाँ "रैंचो" यानी "फुन्सुक वांगडू"। "३ इडियट्स" फिल्म में फिल्माया गया स्कूल। अब यहाँ पर आने वाले पर्यटकों की संख्या को देखते हुए स्कूल की तरफ से एक इनफार्मेशन सेंटर बनाया गया है। जहाँ पर पर्यटकों की एंट्री करने के बाद स्कूल दिखाया जाता है। साथ में ही "रैंचो काफ़ी हाउस" भी खुल गया है।

सेकमोल स्टूडेंट्स 
पर सायद कम लोगों को पता होगा की जिस ब्यक्ति के काम से प्रभावित होकर यह फिल्म बनाई गई थी उनका नाम "सोनम वांगचुक" है और ३ इडियट्स के स्कूल का कॉन्सेप्ट उनके द्वारा चलाए जा रहे एक स्कूल से लिया गया है। जो लेह से तक़रीबन २० कि. मी. दूर "इंडस नदी" के किनारे फेह में है। इंडस नदी, जिसके किनारे पर हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ो (अब पाकिस्तान में) जैसी सभ्यताओं का विकाश हुआ था। फेह में बने इस स्कूल कैंपस को "स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ़ लद्दाख" (SECMOL) के नाम से जाना जाता है। दरसल में यहाँ पर हर साल तक़रीबन ४०-४५ ऐसे बच्चों को एक साल के लिए दाखिला दिया जाता है जो की हाई स्कूल में फेल हुए होते हैं। एडमिशन में प्रथम प्राथमिकता उन विद्यार्थियों को मिलती है जो सबसे ज्यादा विषय में फेल होते हैं। ये बच्चे एक साल तक इस कैंपस में वह सब कुछ  सीखते हैं जो जीवन में सफल होने के लिए जरुरी है।

सोनम वांगचुक विद्यार्थितों के साथ
 मैं इन्हीं बच्चों के साथ "जलवायु परिवर्तन एवं जैव विविधता संरक्षण" विषय पर एक तीन दिवसीय कार्यशाला आयोजित करने के लिए आया था। दूसरे दिन हम फेह, सेकमोल कैंपस आ गए। यहाँ की घड़ी एक घण्टा आगे चलती है। उद्द्येश जल्दी उठना और जल्दी सोना। इन बच्चों के साथ कार्यशाला  करते हुए लगा की हमारी शिक्षा पद्धति  में कितनी खामियां हैं। जो किसी विषय में फेल हुए बच्चे को जीवन में ही फेल मान लेती है। हो सकता है की कोई बच्चा किसी विषय में कमजोर हो या पढाई में उसका मन न लगता हो। जिसके बहुत से कारण हो सकते हैं। परन्तु हर बच्चे में  कोई न कोई खूबी जरूर होती है। जरुरत है उसे पहचानने की और उसे उस काम के लिए प्रेरित करने की। जो की "तारे जमीं पर" फिल्म में बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया है।

हिमालयन मर्मट
सोनम वांगचुक ने लद्दाख में शिक्षा के सुधार के लिए बहुत काम किया है। हमारे देश में "कश्मीर से लेकर ग्रेट निकोबार" (ज्यादातर हम सभी  "कश्मीर से कन्याकुमारी" ही बोलते हैं, शायद हम भूल जाते हैं की अंडमान निकोबार भी भारत का हिस्सा है ) तक के बच्चों की किताबें  एक जैसी बनाई जाती हैं। जब की इस विभिन्नताओं वाले विशाल देश के विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाने वाले पौधे व् जीव-जन्तु अलग-अलग हैं। यदि लद्दाख के बच्चों की किताब में किसी नाम के लिए "शीला या मोहन" लिखा हो तो वो बच्चे शायद ही समझें की यह किसी व्यक्ति का नाम है या जगह का। क्यों की वहाँ पर नाम नोरबो, जिग्मत वांगचुक, फुन्सुक वांगडू  जैसे होते हैं।

लद्दाख के बच्चों की किताबों में मे मेंढ़क क्यों होना चाहिए ? जब वहाँ पर मेंढक पाये ही नहीं जाते। एक दिन वहां पर कार्यरत मैनेजर ने मुझे बताया की जब मैं यहाँ किताब में मेंढक का चित्र देखकर पढ़ता था तो सोंचता था की मेंढक कम से कम एक से दो फ़ीट का होता होगा। बाद में जब आगे की पढाई के लिए लद्दाख से दिल्ली आया तो पहली बार मेंढ़क को देखकर सोंचा की यह मेंढक का बच्चा होगा। कुछ दिनों बाद उन्हें  समझ आया की मेंढक अमूमन इतना बड़ा ही होता है। 

सोनम वांगचुक जी ने सालों तक अपने अथक प्रयासों से लद्दाख में बच्चों को पढाई जाने वाली किताबों में बदलाव करवाया और अब उसमे वहां पर पाये जाने वाले जीव-जंतु, फूल-फल, पेड़-पौधों को डाला गया। सोनम जी ने एक और मुहिम चला रखी है की लद्दाख के सभी चुने हुए जनप्रतिनिधियों के बच्चों का सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य किया जाना चाहिए। उनका मानना है की यदि जन प्रतिनिधियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ेंगे तो वो सभी इन स्कूलों की शैक्षड़िक गुणवत्ता को ठीक करने का प्रयास करेंगे। जिसके फल स्वरूप इन स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिल सकेगी। परन्तु उनके इस मुहिम के कारण सारे राजनेता (?) उनसे नाराज रहते हैं।   
एक दिन मैं कार्यशाला समाप्त होने के बाद शाम को कुछ बच्चों के साथ बैठा हुआ था। मैंने एक स्टूडेंट से पूछा की उसका कौन सा विषय कमजोर है। तभी एक दूसरे छात्र ने कहा ! सर ! यह दो बार हाई स्कूल में फेल हुआ है। मैंने कहा तो क्या हुआ। तभी तो यहाँ पर है। मैंने उससे कहा की मैं भी तुम्हारे जैसा ही हूँ। क्यों की मैं भी हाई स्कूल में दो बार फेल हुआ हूँ। जिस पर उसने यकीन नहीं किया। पर दरसल में मेरा गणित विषय से छत्तीस का आंकड़ा था। जिस कारण से गणित के आलावा सभी विषय में अच्छे नंबर आने के बावजूद मैं हाइ स्कूल में दो बार फेल हुआ। फिर उसने बताया की वह हिन्दी में फेल हो जाता है। तब मुझे पता चला की यहाँ हाईस्कूल में हिंदी या उर्दू में से एक विषय पढ़ना और पास होना अनिवार्य है। तब मैं सोचने लगा की आखिर हिंदी, उर्दू के साथ वहां की मात्र भाषा लद्दाखी क्यों नहीं ?
चांगला टॉप 

परन्तु विडंबना यही है की आजादी के ६० सालों बाद भी हम "मैकाले" की सोंच से  बाहर नहीं आ पा रहे हैं। हलांकी सोनम वांगचुक काफी दिनों से लद्दाख में हाई स्कूल में हिंदी, उर्दू के साथ लद्दाखी को भी एक विषय के रूप में मान्यता दिलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। तभी उस बालक ने बड़े ही मासूमियत से कहा। सर! आप मेरे लिए हिंदी में १५ नंबर दिल्ली से भिजवा देना, बाकी  मैं यहाँ  पा लूंगा। मैं बड़ी भावुकता से सोंचता रहा की आखिर जिन बच्चों को सारी जिंदगी लद्दाख में रहना है उन्हें हाई स्कूल पास करने के लिए हिंदी या उर्दू में पास होना क्यों जरूरी है? हालां की यहाँ पर सामान्यतया लोग हिंदी बोल एवं समझ लेते हैं परन्तु उनकी मातृ भाषा लद्दाखी होने के कारण लिखने में मुश्किल होती है।

हम कार्यशाला समाप्त होने के बाद एक दिन पेंगोंग लेक जो समुद्र तल से ४३५० मी. की उंचाई पर है देखने गये। पेंगोंग लेक १३४ की.मी. लंबा  और लगभग ६०४ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जिसका ६०% हिस्सा तिब्बत में है। हम लेह से चांगला दर्रा होते हुए लगभग ५ घंटे में पैंगोंग पहुंचे। चांगला लदाख का सबसे ऊंचाई वाला दर्रा (समुद्र तल से ५३६० मी.) है जो दुनिया का तीसरा सबसे उंचाई पर स्थित वाहन चलने लायक सड़क मार्ग है। मैं पहली बार ऐसी बर्फीली वादी से रूबरू हुआ था। चारो तरफ बर्फ ही बर्फ।  पूरा इलाका एक अलग तरह की ताजगी एवं स्फूर्ति से भर देने वाला था।  

अभी यहाँ पर कांक्रीट के जंगलों का उगना शुरू नहीं हुआ है। जिसका एक कारण जम्मू एवं कश्मीर में लागू अनुछेद ३७० का वह प्रावधान भी है जो जम्मू एवं कश्मीर में दूसरे राज्यों के लोगों को जमीन खरीदने से रोकती है। अन्यथा लेह जैसे पर्यटन स्थल पर पारिस्थितिकीय संतुलन की जरूरतों को धता बता पूंजी पतियों द्वारा बड़े बड़े होटलों की श्रृंखला खड़ी कर दी गई होती। और वहां के छोटे भूखंडों के मालिक अपनी जमीन बेच कर उन्हीं होटलों में नौकर का काम कर रहे होते। खैर ! लेह से पैंगोंग जाते हुए प्रकृति का नज़ारा ऐसा था जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है। उसे शब्दों मे बांधने के लिये मेरी लेखनी मे शब्द नहीं है।

जमी हुई पेंगोंग लेक 
पेंगोंग लेक के किनारे एक लद्दाखी परिवार जो अपने काम में लगा था उनसे रूबरू होने का अवसर मिला। उन्हों ने हमें "बटर टी " पिलाई और फिर "छांग" एक तरह का देसी तरीके से बनाया गया अल्कोहलिक पेय पीने के लिए दिया। उन सबकी आत्मीयता देख कर लगा काश हम सभी एक दूसरे के प्रति ऐसा निःस्वार्थ अतिथि भाव रख पाते।

पेंगोंग लेक पूरी तरह से जम कर बर्फ मे तब्दील हो चुकी  थी। जिसका फायदा उठाते हुए मैंने भी पानी पर चलने का करतब दिखाया और लौटते हुए चांगला पहुँचा तो हल्की सी बर्फवारी होने लगी थी। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान से छोटे-छोटे रुई के फाहे टपक रहे हों। मैंने भी एक मुट्ठी बर्फ को साथ लाने की नाकाम कोशिश की लेकिन वह मुठ्ठी भर बर्फ देखते ही देखते पानी होकर हथेली से फिसल गया और बची तो सिर्फ खूबसूरत वादी में बिताये दिनों की यादें जिसे सँजो कर हम बर्फीली वादियों को पीछे छोड़ कांक्रीट के जंगल में (दिल्ली) वापस आ गये ।