डा. विजय प्रताप सिंह
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मुख्य द्वार, झंडेवाला पार्क, अमीनाबाद, लखनऊ |
२९ सितम्बर २०१३। जगह झंडेवाला पार्क, अमीनाबाद, लखनऊ। मैं सुबह की सैर के लिए कैसरबाग कोतवाली, अपने भाई साहब के घर से निकल कर झंडेवाला पार्क की तरफ चल पड़ा। सुबह-सुबह रास्ते में जाते हुए सड़क के दोनों तरफ फैली गन्दगी से रूबरू होना अच्छा नहीं लगा। घर से सोंच कर निकला था की पार्क में पहुंच कर थोड़ी देर बैठूँगा। जाते हुए रास्ते में एक रिक्से वाले से पूंछा। झंडेवाला पार्क किधर है ? उसने इसारा किया, सामने ही तो है। पार्क के चारो तरफ लगी हुई अस्थाई दुकानों के कारण पता नहीं चला की मैं पार्क के सामने खड़ा था। अब मैं पार्क के मुख्य द्वार पर था। पार्क के अन्दर घुस कर नजर घुमाई तो थोड़ी देर के लिए मैं हतप्रभ खड़ा रह गया। सोचने लगा इस एतिहासिक पार्क की यह दुर्दशा।
यह वही पार्क है जहां पर स्वतंत्रता सेनानियों ने १९२८ में पहली बार तिरंगा फहराया था। जिसके क़ारण इसका नाम झंडेवाला पार्क पड़ा। इस घटना के बाद ब्रितानी हुकूमत ने आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए तिरंगा फहराने या लेकर चलने पर पाबन्दी लगा दी। पाबन्दी के बिरोध में सन १९३५ में महान स्वतंत्रता सेनानी
गुलाब सिंह लोधी हाथ में तिरंगा लेकर इसी पार्क के एक पेड़ पर चढ़ गए। जिस कारण उन्हें एक अंग्रेज पुलिस अफसर ने वहीं पर गोलियों से भून दिया। इस
"आजादी के तीर्थ" (वहां पर लगे एक शिलालेख पर खुदा हुआ) झंडेवाला पार्क की मिट्टी जो कभी गुलाब सिंह लोधी जैसे भारत माँ के सपूत के खून से रंग गई थी, आज, असामाजिक तत्वों एवं नशा करने वालों की तीर्थ स्थली बन गई है। सरकार और समाज ! दोनों की इस एतिहासिक महत्व के पार्क के रख रखाव के प्रति ऐसी उदासीनता ! आखिर क्यों ? सोंचता रहा।
झंडेवाला पार्क, जो आजादी के पहले और आजादी के बाद भी न जाने कितनी ऐसी सभाओं का प्रत्यछ गवाह रहा जिसे महात्मा गाँधी, पंडित जवाहर लाल नेहरु सरीखे नताओं ने संबोधित की थी। आज बेबस, लाचार अपनी बदहाली के लिए किसे कोस रहा होगा…पता नहीं। पार्क के अन्दर चारो ओर गन्दगी पसरी हुई। पार्क में घुसते ही नाक बंद करने को जी चाहता। इसी गन्दगी के बीच जहां-तहां सोए हुए लोग। जिनके पास रात गुजारने के लिए इससे अच्छी जगह (?) सायद दूसरी नहीं।
न चाहते हुए भी मैं पार्क में काफी देर तक टहलता रहा। देखता रहा पार्क में लगी मूर्तियां एवं शिलान्यास के पत्थरों पर उकेरे हुए नामों को। पार्क के एक किनारे पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा । अनावरण १२ जनवरी २००३ को भारतीय जनता पार्टी की तत्कालीन सरकार में आवास, नगर विकास एवं गरीबी उन्मूलन मंत्री श्री लाल जी टंडन के कर कमलों द्वारा। वहीं एक दुसरे किनारे पर हाथ में तिरंगा लिए स्वतंत्रता सेनानी गुलाब सिंह लोधी की प्रतिमा । जिसका अनावारण २३ अगस्त २००४ को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव द्वारा शहरी विकास मंत्रालय सहित पांच बिभागों के मंत्री श्री आजम खान की मौजूदगी में हुआ । संयोग से आज २०१३ में भी शहरी विकास मंत्रालय आजम खान जी के पास ही है।
लेकिन हमारे राजनेता एवं मंत्री गण के पास उनके ही हाथों अनावरित मूर्ति स्थलों की दुर्दशा देखने के लिए दुबारा आने का समय कहाँ है ? उन्हें सांप्रदायिक दंगों पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से फुर्सत मिले तब न। वह चाहे मुरादाबाद हो, गोधरा या भागलपुर । १९८४ हो या २००२। फेहरिस्त बहुत लाम्बी है।
नेता किसी भी पार्टी, जाति या धर्म का हो सत्ता के लिए कुछ भी करने को सदैव तत्पर। इन्हें सत्ता की सीढ़ी चढ़ने के लिए आम जनता की लाशों पर से गुजर जाने में भी कोई गुरेज नहीं। आखिर १२४ करोड़ के देश में सौ-पांच सौ लोग नहीं भी रहे तो क्या फर्क पड़ता है ? आम आदमी वैसे भी तो मरता ही है। कभी भूख से। अभी कर्ज न चुका पाने के कारण । कभी नकली दवाइयों से। कभी बिना दवाई के। कभी जहरीले शराब से। कभी तपती जेठ में रिक्शा खीचते। कभी माघ की शर्दी में नंगे बदन। आखिर आम आदमी जो ठहरा।
एक और दिलचस्प बात। जिसकी कहानी संगमरमर की पट्टिकाओं पर खुदी तारीख और नाम खुद ब खुद बयां कर रहे थे । एक पट्टिका पर- स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण दिनांक "१२ जनवरी २००३"। उसी पट्टिका के बगल में दूसरी पट्टिका- प्रतिमा का जीर्णोधार पार्षद द्वारा दिनांक "१ जनवरी २०१३"। और २९ सितम्बर २०१३ की सुबह मेरे द्वारा लिए गए छाया चित्र में ९ महीने पहले जिस मूर्ति का जीर्णोधार हुआ उसका टुटा हुआ एक हिस्सा अपनी कहानी खुद ही कह रहा है । मैं सोचने लगा ठीक १० वर्षों में ही जीर्णोधार की नौबत क्यों आ गई ? जीर्णोधार के ९ महीने बाद फिर जीर्णोधार की जरुरत। आखिर क्यों ? सोंचता रहा.………। और वापस लौटते हुए मुड़-मुड़ कर देखता रहा उस अमर शहीद की प्रतिमा को जो हाथ में तिरंगा लिए खड़ा था उस "आजादी के तीर्थ " "झंडेवाला" पार्क में।
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जीर्णोधार के ९ महीने बाद २९ सितम्बर २०१३ को लिया गया छाया चित्र |