मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

मरती हुई संवेदनाएं

डा . विजय प्रताप सिंह   
फोटो साभार ebv.blogspot.in

बात तक़रीबन पचीस साल पुरानी है। तपती गर्मी का महीना। मैं अपने एक और परिचित के साथ एक रिश्तेदार के यहाँ जाने के लिए घर से निकला था। अपने गाँव से टैम्पो में सवार होकर बस्ती बस अड्डे पंहुचा। जहाँ से बस पकड़ कर दुबौलिया (राम जानकी मार्ग पर एक छोटा सा क़स्बा ! एक मान्यता के अनुसार १४ वर्ष के वनवास होने पर श्री राम, सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या छोड़ इसी तरफ से वन को गए थे ) तक की लगभग ४० किलोमीटर की यात्रा तय करनी थी। हम बस का इंतजार करने लगे। बस आई। पूरी तरह से बस रुकती उससे पहले ही बहुत सारे लोग उस में सवार होने और जल्द से जल्द अपने लिए एक अदद सीट पाने के लिए बस के साथ-साथ दौड़ने लगे।  मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा था। क्योंकि  दूसरी बस ३-४ घंटे बाद ही मिलती। उन दिनों परिवहन व्यवस्था अच्छी नहीं थी। आज भी बहुत अच्छी है, ऐसा नहीं कह सकते। फिर भी बदलाव तो आया ही है। खैर ! लोग सीट पाने के लिए उतरने वाली सवारी से धक्का मुक्की करते बस में घुसने का प्रयास कर रहे थे।  मैंने बस की एक तरफ की खिड़की से अपनी रुमाल सीट पर गिरा कर दो सीट का तत्काल रिजर्वेसन कर लिया था। यह एक नायाब तरीका है।  किसी भी पैसेंजेर ट्रेन या बस में भीड़ के कारण अन्दर घुस कर सीट हथियाने में असमर्थता महसूस कर रहे हैं, तो आप खिड़की से ही सीट पर  अपनी रुमाल, टोपी, हैण्ड बैग या कोई और वस्तु जो ज्यादा कीमती न हो (अन्यथा गायब हो सकती है) डाल कर सीट पक्की कर सकते हैं। जिनको सीट मिल गई थी वो चहरे पर विजयी भाव लिए बैठ गए। और कुछ लोग खड़े-खड़े यात्रा करने को मजबूर  थे।

फोटो साभार facenfacts.com 
बस चलने ही वाली थी कि एक २०-२५ साल की गर्भवती महिला जो एडवांस स्टेज में थी अपने छोटे भाई जिसकी उम्र ८-९ साल रही होगी के साथ बस में सवार हुई। शायद शहर के किसी हस्पताल में चेकअप करवाने के लिए आई रही होगी (यह मेरा अनुमान है). अब बस चल चुकी थी।  हमारी बगल वाली तीन लोगों की सीट पर तीन अधेड़ उम्र की महिलाएं बैठी हुई थीं । तीन की सीट पर तीन महिलाएं। उस गर्भवती महिला ने उन महिलाओं से थोड़ा खिसक कर उसे बैठने की जगह देने के लिए कहा। पहले तो उन महिलाओं ने ऐसा जताया जैसे कुछ सुना ही न हो। मगर फिरसे दुबारा पूछने पर कह दिया की जगह कहाँ है? हलांकि तीन की सीट पर यदि थोड़ा सा एडजस्ट किया जाए तो चार लोग आराम से बैठ सकते हैं। मैं इस पूरी घटना को ध्यान से देख रहा था। मुझसे रहा नहीं गया। मै उठा और अपनी सीट पर उस महिला को बिठा दिया। उस गर्भवती महिला ने थोड़ा सा आगे खिसकते हुए मुझे भी बैठ जाने के लिए कहा। मैंने सीट के बगल में अपना सूटकेस लगा दिया और दो लोगों की सीट पर हम तीन लोग बैठ गये।

फोटो साभार blogs.reuters.com
कभी कभी कुछ घटनाएँ अंतस मन में कहीं गहरे पैठ कर जाती हैं। ऐसा ही इस घटना से मेरे साथ हुआ। मैं पूरे रास्ते सोंचता रहा। कि एक महिला जो सायद खुद भी उस अवस्था से गुजरी होगी, एक गर्भवती  महिला के प्रति इतनी असंवेदनशील कैसे हो सकती है। लेकिन प्रत्यक्ष को किसी प्रमाण की क्या जरूरत।  अभी कुछ दिन पहले एक वाकया सुन कर २५ साल पुरानी यह घटना एक बार फिर किसी चलचित्र की तरह मेरे आँखों के सामने उभर आई। हुआ यह कि मेरी एक महिला सहकर्मी दिल्ली मेट्रो में महिलाओं के लिए आरछित कोच में सफ़र कर रही थीं। पूरी बोगी खचाखच भरी हुई। उसी बोगी में एक गर्भवती महिला लटकते हुए हुक के सहारे खड़ी थी। शायद वह अपने मन में यह सोंच रही होगी की काश कोई अपनी सीट से उठ कर उसे बैठने के लिए कह दे। मगर ऐसा हुआ नहीं। और उसके पास अपने गर्भ में पल रहे बच्चे के साथ खड़े-खड़े यात्रा करने के सिवाय कोई चारा नहीं था।  हो सकता है की वह अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को कह रही हो कि तुम धरती पर आने के बाद इतने असंवेदनशील मत बनना।  जिससे तुम्हारे कारण तुम्हारी मां की तरह किसी और मां को ऐसे अनुभव से गुजरना पड़े।

फोटो साभार navbharattimes.indiatimes.com
दिल्ली मेट्रो का एक और वाकया मुझे याद आ रहा है। एक १६-१७ साल की लड़की महिलाओं के लिए आरछित सीट पर बैठी अपने कानों में इअरफोन लागाए मोबाइल से गाने सुन रही थी। और ठीक उसके सामने एक ५०-५५ साल की महिला खड़ी थी। आखिर उस सीट की जरुरत किसे ज्यादा थी ? मैं सोचता रहा.…। हम इतने असंवेदनशील क्यों हो गये ? दोष किसका है ? सवाल बहुत सारे। पर जबाब कोई नहीं।  हो सकता है की अगर महिला कोच में कुछ सीटें गर्भवती महिलाओं के लिए आरछित होतीं तो उस महिला को सीट मिल जाती। लेकिन यदि ऐसी महिलाओं की संख्या कोच में आरछित  सीटों से ज्यादा हुई तो क्या होगा ? वैसे तो कुछ जगह लिखा होता है की यह सीट उसे दें जिसे इसकी ज्यादा जरूरत हो। मगर उसके लिए हमें संवेदनशील होने की जरूरत है।  परन्तु हमारे अन्दर की मानवीयता और संवेदना दुबारा न पैदा किये जा सकने वाले संसाधनों (Nonrenewable Resources) की तरह बड़ी तेजी से समाप्त होती जा रही है। और हम चाह कर भी हर जरूरतमंद के लिए चीजें आरछित तो नहीं ही कर सकते।

जहाँ इस पुरुष प्रधान समाज में आधी आबादी आये दिन उनके साथ घर के अन्दर और बाहर होने वाले दुर्वव्हार एवं बलात्कार जैसी घटनाओं से दो चार हो रही हों वहां नारी का नारी के प्रति यह असंवेदना समस्या को और गंभीर बना देती है। क्या हम सभी इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं ? हमें सोंचना होगा। क्या हमने अपने बच्चों को वह संस्कार देने का प्रयास किया है? जो उन्हें किसी बुजुर्ग, असहाय या जरूरतमंद की सहायता करने के लिए अपना  हाथ बढ़ाने का अंतरबोध पैदा करा सके। जरुरत एक संवेदनशील समाज निर्माण की है। जिसकी शुरुआत हमें खुद से और अपने परिवार से ही करनी होगी। और अगर हम यह कर सके तो फिर किसी बुजुर्ग, विकलाँग  या गर्भवती महिला के लिए सीटों के आरक्षण की जरुरत नहीं होगी।

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

दूल्हा मैट्रिक फेल

डा. विजय प्रताप सिंह 

(वैसे तो कविता गागर में सागर होती है। परन्तु कभी-कभी मंच से पढ़ी जाने वाली ब्यंग रचनाओं को श्रोताओं के मनोरंजन हेतु खीच कर थोडा लम्बा कर दिया जाता है। १९९२ में लिखी मेरी यह हास्य व्यंग रचना कुछ ऐसी ही है)  


फेल होने के हैं बड़े फायदे। 
यह कहते हैं समाज के कानून और कायदे
यही सोंच ! 
मैं मंदिर जा रहा था..और फेल होने के लिए ईश्वर को मना रहा था  
लौट कर घर आया, तो पिता जी को नाराज पाया 
पहुंचते ही मेरे गाल पर एक चाटा जमाया
और बोले नालायक !
नालायक ! मैट्रिक में तीसरी बार फेल आया है
मैंने कहा लड्डू खाइए…यही तो मैंने ईस्वर से मनाया है  
क्यों की इससे समाज को कई फायदे हैं
सबसे पहले नौकरी के आवेदनों में कमी आएगी 
पढ़े लिखे बेरोजगारों की लाइन थोड़ी छोटी हो जाएगी 
समाज में दूसरी समस्या दहेज़ की आती है 
जो मेरे फेल होने से शाल्ब हो जाती है 
मैं मैट्रिक फेल हूँ …. यह सोंच कर आप शर्मायेंगे 
और मेरी शादी में दहेज़ नहीं मांग पाएंगे 
उलटे घूस (दहेज़) देकर मेरी शादी करवाएंगे 
खैर !
मेरे मित्रों ने भी रंग दिखाया है 
और मुझे अनपढ़ यूनियन का लीडर बनाया है
हम 
पढ़े लिखे दहेज़ खोरों के खिलाफ आवाज उठाएंगे 
लड़कियों से इनका बहिष्कार करवाएँगे 
और सभी एम्प्ल्वाएड लड़कियों की शादी  
बिना दहेज़ मैट्रिक फेल से करवाएंगे 
जिसे देख कर… सब के सब फेल होना चाहेंगे 
और अगर …दुर्भाग्य से पास हो गए 
तो घूस देकर 
फर्जी फेल का सर्टिफिकेट बनवायेंगे !
इस तरह से नारी प्रधान समाज आएगा 
पत्नी कमाएगी और पति खायेगा 
तब नारी को पति की चिता पर बिठाया नहीं जायेगा 
दहेज़ के लिए जिन्दा जलाया नहीं जायेगा  
क्योंकि यह समाज उसी की कमाई खाएगा 
अरे सोंचते क्या हो 
यह अनपढ़ यूनियन का खेल है 
ग्यारवीं सदी से इक्कीसवी सदी का मेल है 
क्यों की 
दूल्हा मैट्रिक फेल है।

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

एक सुबह झंडेवाला पार्क में

डा. विजय प्रताप सिंह 

मुख्य द्वार, झंडेवाला पार्क, अमीनाबाद, लखनऊ  

२९ सितम्बर २०१३। जगह झंडेवाला पार्क, अमीनाबाद, लखनऊ। मैं सुबह की सैर के लिए कैसरबाग कोतवाली, अपने भाई साहब के घर से निकल कर झंडेवाला पार्क की तरफ चल पड़ा। सुबह-सुबह  रास्ते में जाते हुए सड़क के दोनों तरफ फैली गन्दगी से रूबरू होना अच्छा नहीं लगा। घर से सोंच कर निकला था की पार्क में पहुंच कर थोड़ी देर बैठूँगा। जाते हुए रास्ते में  एक रिक्से वाले से पूंछा। झंडेवाला पार्क किधर है ? उसने इसारा किया, सामने ही तो है।  पार्क के चारो तरफ लगी हुई अस्थाई दुकानों के कारण पता नहीं चला की मैं पार्क के सामने खड़ा था।  अब मैं पार्क के मुख्य द्वार पर था। पार्क के अन्दर घुस कर नजर घुमाई तो थोड़ी देर के लिए मैं हतप्रभ खड़ा रह गया। सोचने लगा इस एतिहासिक पार्क की यह दुर्दशा। 

यह वही पार्क है जहां पर स्वतंत्रता सेनानियों ने १९२८ में पहली बार तिरंगा फहराया था। जिसके क़ारण इसका नाम झंडेवाला पार्क पड़ा।  इस घटना के बाद ब्रितानी हुकूमत ने आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए तिरंगा फहराने या लेकर चलने पर पाबन्दी लगा दी। पाबन्दी के बिरोध में सन १९३५ में महान स्वतंत्रता सेनानी गुलाब सिंह लोधी हाथ में तिरंगा लेकर इसी पार्क के एक पेड़ पर चढ़ गए। जिस कारण उन्हें एक अंग्रेज पुलिस अफसर ने वहीं पर गोलियों से भून दिया। इस "आजादी के तीर्थ" (वहां पर लगे एक शिलालेख  पर खुदा हुआ) झंडेवाला पार्क की मिट्टी जो कभी गुलाब सिंह लोधी जैसे भारत माँ के सपूत के खून से रंग गई थी, आज, असामाजिक तत्वों एवं नशा  करने वालों  की तीर्थ स्थली बन गई है।  सरकार और समाज !  दोनों की इस एतिहासिक महत्व के पार्क  के रख रखाव के प्रति ऐसी उदासीनता ! आखिर क्यों ? सोंचता रहा।

झंडेवाला पार्क, जो आजादी के पहले और आजादी के बाद भी न जाने कितनी ऐसी सभाओं का  प्रत्यछ गवाह रहा जिसे महात्मा गाँधी, पंडित जवाहर लाल नेहरु सरीखे नताओं ने संबोधित की थी।  आज बेबस, लाचार अपनी बदहाली के लिए किसे कोस रहा होगा…पता नहीं।  पार्क के अन्दर चारो ओर गन्दगी पसरी हुई। पार्क में घुसते ही नाक बंद करने को जी चाहता। इसी गन्दगी के बीच जहां-तहां सोए हुए लोग।  जिनके पास रात गुजारने के लिए इससे अच्छी जगह (?) सायद दूसरी नहीं।

न चाहते हुए भी मैं पार्क में काफी देर तक टहलता रहा। देखता रहा पार्क में लगी मूर्तियां एवं शिलान्यास के पत्थरों पर उकेरे हुए नामों को।  पार्क के एक किनारे पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा । अनावरण १२ जनवरी २००३ को भारतीय जनता पार्टी की तत्कालीन सरकार में आवास, नगर विकास  एवं गरीबी उन्मूलन मंत्री श्री लाल जी टंडन के कर कमलों द्वारा। वहीं एक दुसरे किनारे पर हाथ में तिरंगा लिए स्वतंत्रता सेनानी गुलाब सिंह लोधी की प्रतिमा । जिसका अनावारण २३ अगस्त २००४ को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव द्वारा शहरी विकास मंत्रालय सहित पांच बिभागों के मंत्री श्री आजम खान की मौजूदगी में हुआ । संयोग से आज २०१३ में भी शहरी विकास मंत्रालय आजम खान जी के पास ही है।

लेकिन हमारे राजनेता एवं मंत्री गण  के पास उनके ही हाथों अनावरित मूर्ति स्थलों की दुर्दशा देखने के लिए दुबारा आने का समय कहाँ है ? उन्हें सांप्रदायिक दंगों पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से फुर्सत मिले तब न। वह चाहे मुरादाबाद हो, गोधरा या भागलपुर । १९८४ हो या २००२।  फेहरिस्त बहुत लाम्बी है।

नेता किसी भी पार्टी, जाति या धर्म का हो सत्ता के लिए कुछ भी करने को सदैव तत्पर। इन्हें सत्ता की सीढ़ी चढ़ने के लिए आम जनता की लाशों पर से गुजर जाने में भी कोई गुरेज नहीं। आखिर १२४ करोड़ के देश में सौ-पांच सौ लोग नहीं भी रहे तो क्या फर्क पड़ता है ?  आम आदमी वैसे भी तो मरता ही है।  कभी भूख से।  अभी कर्ज न चुका पाने के कारण । कभी नकली दवाइयों से। कभी बिना दवाई के। कभी जहरीले शराब से। कभी तपती जेठ में रिक्शा खीचते। कभी माघ की शर्दी में नंगे बदन। आखिर आम आदमी जो ठहरा।

एक और दिलचस्प बात। जिसकी कहानी  संगमरमर की पट्टिकाओं पर खुदी तारीख और नाम खुद ब खुद बयां कर रहे थे । एक पट्टिका पर- स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण दिनांक "१२ जनवरी २००३"। उसी पट्टिका के बगल में दूसरी पट्टिका- प्रतिमा का जीर्णोधार पार्षद द्वारा दिनांक "१ जनवरी  २०१३"। और २९ सितम्बर २०१३ की सुबह मेरे द्वारा लिए गए छाया चित्र  में ९ महीने पहले जिस मूर्ति का जीर्णोधार हुआ उसका टुटा हुआ एक हिस्सा अपनी कहानी खुद ही कह रहा है । मैं सोचने लगा ठीक १० वर्षों में ही जीर्णोधार की नौबत क्यों आ गई ? जीर्णोधार के ९ महीने बाद फिर जीर्णोधार की जरुरत। आखिर क्यों ? सोंचता रहा.………। और वापस लौटते हुए मुड़-मुड़ कर देखता रहा उस अमर शहीद की प्रतिमा को जो हाथ में तिरंगा लिए खड़ा था उस "आजादी के तीर्थ " "झंडेवाला" पार्क में।



जीर्णोधार के ९ महीने बाद २९ सितम्बर २०१३ को लिया गया छाया चित्र  
झंडेवाला पार्क में सोते हुए लोग 

झंडेवाला पार्क- आसमान के नीचे आशियाना