रविवार, 9 मार्च 2014

मॉस्ट्रिच, मैं और पाँच दिन

डॉ. विजय प्रताप सिंह  

 रेलवे स्टेशन, मॉस्ट्रिच, नीदरलैंड 

उज्जैन, दिसंबर सन २००१। मेरा पी.एच.डी. शोध प्रबंध लिखने का काम लगभग पूरा हो चुका था। अब मैं उसे टाइप करवाने एवं एडिट करने में ब्यस्त था। जिस कारण से पिछले १०-१५ दिनों से ईमेल चेक करने का समय नहीं मिल पाया। उन दिनों ईमेल देखने के लिए "साइबर कैफे" जाना पड़ता था क्यों कि मेरे पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुबिधा नहीं थी। उसी दौरान एक दिन मेरे पी.एच.डी. गाइड प्रोफेसर एस.के.बिल्लोरे जी ने खबर भिजवाई कि तुम अपना मेल क्यों नहीं चेक कर रहे हो। आज ही जाकर मेल चेक करो। तुमको हॉलैंड कांफ्रेंस में जाने का खर्च आयोजकों ने देना स्वीकार कर लिया है। दरसल में मेरा एक शोध पत्र मॉस्ट्रिच, नीदरलैंड में "ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन" पर आयोजित एक अंतररास्ट्रीय संगोस्ठी में स्वीकार हुआ था और उसमे भाग लेने के लिए मैंने फेलोशिप हेतु आवेदन किया था। 

मेरा सारा खर्च नीदरलैंड के विदेश कार्य मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ फॉरेन अफेयरस) ने देना स्वीकार कर लिया था। जिस आसय का ईमेल कॉन्फ्रेंस के आयोजकों ने मुझे पिछले १० दिनों में कई बार भेजा था। परन्तु मेरी तरफ से कोई जबाब न मिलने पर मेरे डिपार्टमेंट (वानस्पतिकी अध्ययन शाला, विक्रम वि. वि. उज्जैन) में फैक्स द्वारा सूचित किया। मेरे लिए यह एक सुखद सूचना थी। मै तुरंत साइबर कैफे जा कर ईमेल चेक किया और विलम्ब से जबाब देने के लिए खेद प्रकट करते हुए उन्हें अपनी सहभागिता की  पुष्टता जबाबी मेल से कर दिया। और फिर आगे कि प्रक्रिया में लग गया। अपने एक मित्र से पैसे लेकर हवाई टिकट ख़रीदा क्यों कि मुझे पैसे वहाँ पहुचने पर मिलने वाला था। मैंने दो दिन पहले मॉस्ट्रिच पहुँचने का प्लान बना कर आयोजकों से होटल बुक करने का निवेदन किया था जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था। 

मैं १९ जनवरी २००२ को रात तक़रीबन ८ बजे फ्रैंकफ़र्ट (जर्मनी) और ऍम्सट्रेडम (नीदरलैंड की राजधानी) होते हुए मॉस्ट्रिच पहुंचा। मॉस्ट्रिच हवाई अड्डा। यहाँ से बाहर निकलते हुए लगा कि जैसे हवाई अड्डे पर कोई भी कर्मचारी नहीं हो। मेरे साथ विमान में आये तीन लोग अपनी टैक्सी का इंतजार कर रहे थे। बाकी सभी यात्री जा चुके थे। बाहर कोई टैक्सी भी नहीं दिख रही थी। जिस कारण मैंने उनमे से एक व्यक्ति से टैक्सी के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने किसी कर्मचारी से बात करने कि सलाह दी। मैं किसी कर्मचारी को ढूढ़ता तभी एक टैक्सी दिखी और उन महासय ने उससे बात कि और मैं उसी टैक्सी से अपने होटल आ गया। यह मेरी पहली योरप यात्रा थी। मॉस्ट्रिच "मॉस" नदी के दोनों तरफ बसा हुआ नीदरलैंड के सबसे पुराने शहरों में से एक। जहाँ पर ७ फरवरी १९९२ को यूरोपियन यूनियन के मसौदे पर हस्ताक्षर किये गए और यहीं पर "यूरो" को यूरोप कि एकीकृत मुद्रा के रूप में स्वीकार किया गया। 

बस की सवारी, मास्ट्रिच 
दूसरे दिन मैं शहर देखने के लिए निकल गया। उस दिन का तापमान तक़रीबन ३ डिग्री था। शहर में पैदल घूमता रहा। नई जगह होने के कारण शुरू-शुरू में रास्ता न भटकूँ इस लिए जिस रास्ते से जाता उसी से वापस हो लेता। फिर पूरा दिन मॉल, रेलवे स्टेशन, मास नदी का किनारा और बाजार में घूमता रहा। एक सुनसान इलाके में जहाँ एक रेड लाइट लगी हुई थी मैं सड़क पार करने के लिए काफी देर तक बत्ती के लाल होने और ट्रैफिक रुकने का इंतजार करता रहा। तभी एक व्यक्ति आया और सड़क के पास लगे एक खम्भे पर लगा बटन दबाया। और २-३ मिनट में सड़क के दोनों तरफ ट्राफिक रुक गया। और वह सड़क पार कर गया। 

तब मुझे माजरा समझ में आया। फिर मैंने वही प्रक्रिया दुहराई और सड़क पार किया। यानि ट्राफिक का कंट्रोल पैदल चलने वालों के हाथ में। सड़क पार करते हुए मुझे एक बार और सुखद आश्चर्य हुआ। हुआ यह कि मैं एक ज़ेब्रा क्रासिंग पर सड़क पार करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि तभी अंदर गली से एक कार को आते देख मैं इस विचार से ठिठक गया कि पहले कार निकल जाय फिर क्रॉस करूँ। लेकिन कार भी रुक गई और वह आगे नहीं गया। कुछ मिनट बाद उसे चला रहे व्यक्ति ने मुझे जाने  का इशारा किया। पहले तो मैं कुछ समझा नहीं। बाद में उसने दुबारा से मुझे पहले सड़क पार करने का इशारा किया। और मेरे सड़क पार करने के बाद ही वह कार वहाँ से निकली। 

नए साल कि मस्ती में लोग 
बाद में पता चला कि यहाँ ज़ेब्रा क्रासिंग पर पहले गुजरने का अधिकार पैदल चलने वालों को है। तब समझ में आया कि कार चला रहा व्यक्ति क्यों मेरे सड़क पार करने के बाद ही वहाँ से निकला। दरसल में मेरे पैर एक अनैछिक प्रक्रिया के तहत भारतीय सड़कों पर पैदल चलने वालों के मनः स्थिति के अनुरूप ठिठक गए थे।  जहाँ पैदल चलने वालों को ही अपनी जान बचा कर सड़क पार करना होता है। कारण ! एक तो प्रभावी नियम नहीं हैं, और यदि हैं तो ज्यादा तर लोग उसका पालन करने में अपनी तौहीन समझते हैं। वैसे भी हमारे यहाँ नेता, अभिनेता, आम या खास आदमी हर कोई कानून तोड़ने में अपनी शान समझता है। 


मॉस्ट्रिच रेलवे स्टेशन 
खैर छोड़िये ! इस ठिठुरन भरे मौसम में मॉस्ट्रिच के बाज़ार में घूमने का आनन्द लेते हैं (हंला कि यहाँ शर्दी का आभास केवल तभी तक होता है जब हम खुले में या सड़क पर घूम रहे होते हैं)। जनवरी के तीसरे सप्ताह में भी नए साल कि खुमारी बाजार में और लोगों के ऊपर साफ दिखाई दे रही थी। शाम को लोग सड़क के किनारे टेबल लगा कर बियर पीने का आनन्द ले रहे थे। बहुत से लोग रंग-बिरंगे बैंड बाजे कि पोषाक पहने हुए झूमते गाते सड़कों पर नजर आ रहे थे। जिसमे बच्चे, बूढ़े, महिलाऐं सभी मस्ती में सराबोर। पूरा मस्ती भरा माहौल। मैंने पूरा दिन पैदल घूमते हुए मॉस्ट्रिच शहर देखने और समझने में बिताया। 

कान्फ्रेंस से एक दिन पहले शाम को जो प्रतिभागी पहुंच चुके थे उनके लिए रजिस्ट्रेशन डेस्क खुला हुआ था। एक कॉक्टेल पार्टी भी आयोजित थी। मैं भी शाम को वहाँ पहुच गया। जब रजिस्ट्रेशन के लिए पहुंचा तो एक भद्र महिला ने नाम पूछा। फिर बात करते हुए पता चला कि मेरे साथ सारा पत्र व्यव्हार (ईमेल) इन्हों ने ही किया था। और मैंने सभी जबाबी मेल में इन्हे "डियर सर" लिख कर सम्बोधित किया था। मैंने जेंडर कि इस गलती के लिए खेद व्यक्त किया। जिसपर उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा "नो प्रॉब्लम". मगर मैं सोचने लगा कि आखिर ऐसा क्यों ? मेल किसी महिला द्वारा भेजा हुआ भी हो सकता है यह विचार क्यों नहीं आया ? सायद यह हमारी पुरुष प्रधान सोंच का ही नतीजा था। यह वैसे ही है जैसे यदि कोई जानवर अपने ईश्वर कि मूर्ति अपने मन में बनाएगा तो उसका स्वरुप उसके रूप 
जैसा ही सोंचेगा। जैसे हमने अपने अधिकतर देवी-देवता  को मानव रूप में ही उकेरा है। 
सड़क पर मस्ती करते लोग  

क्यों कि मेरा सारा खर्च आयोजकों द्वारा वहन किया जाना था। जिसके लिए उन्हों ने मुझे बगल में काँच के बने एक अर्ध वृत्ताकार केविन में बैठी एक अन्य महिला के पास भेज दिया। जिन्होंने मुझे १० मिनट के अंदर एक जगह दस्तखत करवा कर यात्रा खर्च एवं अन्य दैनिक भत्ते का भुगतान कान्फ्रेंस शुरू होने के एक दिन पहले ही कर दिया। यह भी मेरे लिए एक अलग अनुभव था। विक्रम विश्व विद्यालय में शोध छात्र रहते हुए कई बार प्रेक्टिकल परीक्षा लेने के लिए आये प्रोफेसर का ३-४ हजार रुपये के यात्रा व्यय का भुगतान विश्व विद्यालय से करवाने में लगभग आधा दिन लग जाया करता था। ऊपर से कई तरह के सवाल। लगता जैसे कि व्यक्ति पैदल चल कर आया हो और ट्रेन का किराया ले रहा हो। वहीँ दूसरी तरफ मुझे लगभग ७५ हजार रुपये का भुगतान बिना किसी सवाल जबाब के १० मिनट में कर दिया गया। और मैं सोंचता रहा कि किस तरह से हम लोग अपना बहुमूल्य समय जो किसी उपयोगी काम में लगा सकते हैं उसे लाल फीता शाही कि फाइलों के पीछे घूमने में खर्च कर देते हैं। परन्तु विडम्बना ही है कि हम खान-पान और पहनावे के लिए तो पश्चिमी देशों का अनुकरण कर रहे हैं, लेकिन उनकी काम  के प्रति जबाबदेही, समय वद्धता एवं कार्य शैली को नहीं अपना रहे।

कॉक्टेल पार्टी में मैंने जूस पीते हुए (अभी तक मैने कुछ अच्छी आदतें? सीखी नहीं थी) आये हुए प्रतिभागियों के साथ चर्चा करता रहा। दिल्ली से दो ऐसे लोग भी इस कॉन्फ्रेन्स में आने वाले थे जिन्हें मैं पहले से जनता था। होटल पहुचने पर पता चला कि वो भी आ चुके हैं और इसी होटल में रुके हुए हैँ। उनमें  से एक थे डॉ. डी. सी. पराशर। जो कि राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला (एन.पी.एल.),नई दिल्ली, में वरिस्ठ वैज्ञानिक थे। और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर कार्य करने वाले भारत के चुनिंदा वैज्ञानिकों में से एक। मैंने अपना शोध कार्य विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्रों से होने वाले नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) (इसे हँसाने वाला यानी लाफिंग गैस भी कहते हैं) उत्सर्जन पर किया था। एन.पी.एल. हमारे रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए सहयोगी संस्थान था और नाइट्रस ऑक्साइड गैस कि एनालिसिस मैं डॉ. पराशर जी के विभाग में करता था। हलां कि मेरा कार्य शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही वो रिटायर हो गए। परन्तु वो अवकाश प्राप्त बैज्ञानिक के रूप में अगले ४-५ सालों तक वहीँ पर कार्य करते रहे। जिस 
कारण से मेरी उनसे मुलाकात होती रहती थी और मैं अपने शोध कार्य में उनका मार्गदर्शन लेता रहता था।
कांफ्रेंस में आये भारतीय मूल के प्रतिभागी 

२१ जनवरी २००२। हम संगोस्ठी के उद्घाटन समारोह में पहुँच चुके थे। संगोस्ठी में आये मुख्य अतिथियों में एक अतिथि ऐसे थे जिनसे मिलने का मेरा सपना था। जो आज पूरा होता हुआ दिख रहा था। वह थे नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर पॉल जे. क्रुटजन। जिन्हे १९९५ में  ओजोन परत के छरण में नाइट्रस आक्साइड कि भूमिका को प्रतिपादित करने के लिए नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया था। चूँकि मेरा शोध कार्य भी नाइट्रस ऑक्साइड पर ही था इसलिए मैं उनके शोधपत्र पढ़ता रहता था। एक बार मैंने उन्हें उनके शोधपत्र भेजने के लिए पत्र भी लिखा था। और तब मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था जब मुझे डाक से एक लिफाफा मिला जिसमे शोध पत्रों के साथ एक छोटी पर्ची भी थी जिस पर उन्हों ने सुभकामना सन्देश लिखकर हस्ताक्षर किया हुआ था। आज उन्हें अपने सामने पाकर मैं कुछ ज्यादा ही उत्साहित था 


लेखक, पॉल क्रुटजन एवं डॉ. पराशर के साथ 

मैंने डॉ. पराशर जी से उनसे मिलने कि इच्छा जाहिर की। कयों कि मै जनता था कि डॉ. पराशर ने प्रो. क्रुटजन को नोबल पुरस्कार मिलने से पहले उनके साथ जर्मनी में एक साल तक शोध कार्य किया था। डॉ. पराशर द्वारा प्रो. क्रुटजन के बारे में सुनाया गया एक अनुभव मुझे आज भी याद है। बात उन दिनों कि थी जब डॉ. पराशर प्रो. क्रुटजन के साथ मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट ऑफ़ केमिस्ट्री, जर्मनी में थे। एक दिन डॉ. पराशर ने उनसे देर रात तक लैब में काम करने के लिए बात कि क्यों कि ज्यादातर लैब ६ बजे बंद हो जाती थी। जिस पर प्रो. क्रुटजन  ने अपने जेब से एक चाभी निकाल कर दी। और कहा कि तुम जब तक चाहो काम कर सकते हो। मेरी अनुपस्थिति में मेरी सीट पर भी बैठ कर पढाई कर सकते हो। परन्तु यह चाभी गायब नाहीं होनी चाहिए। नहीं तो मुझे पूरे बिभाग के ताले बदलवने पड़ेंगे। क्यों कि यह मास्टर चाभी है जिससे विभाग के सारे ताले खुल जाते हैं। 

प्रो. क्रुटजन की समय के प्रति प्रतिबद्धता का एक अनुभव मुझे उद्घाटन समारोह के दौरान हुआ। क्यों कि मेरा ध्यान ज्यादा तर उनपर ही केंद्रित था। इस लिए मेरा ध्यान उस तरफ गया। मैंने देखा कि तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार जो समय कर्यक्रम ख़तम होने का था ठीक उसी समय वो मंच से उतर कर बाहर निकल गए। जबकि कर्यक्रम अभी चल ही रहा था। 

उद्घाटन समारोह ख़तम होने के बाद मैं प्रो. क्रुटजन से मिला। डॉ. पराशर जी ने मेरा परिचय एक शोध छात्र के रूप में उनसे करवाया। मैं अपने पी. एच.डी. शोध प्रबंध कि एक प्रति साथ में ले गया था। जो मैंने उन्हें दिखाई। मैंने अपने शोध कार्य के बारे में उनसे बात कि। उन्हों ने भी पूरी एकाग्रता से मेरी बातें सुनी और मेरा शोध प्रबंध देखते हुए अच्छा काम करने कि सलाह भी दी। उनसे इस तरह से मिलाना और बात करना मेरे लिए एक सपना साकार होने जैसा था जो मैंने पी.एच.डी. करते समय देखा था। उस दिन मुझे लगा कि यदि सच्चे दिल से कोई सपना देखा जाय और उसके लिए सच्चा 
लेखक पहली बार वाइन पीते हुए 
प्रयास किया जाय तो ईश्वर उसे पूरा करने में मदद जरूर करता है। 
     
मुझे अपना शोध पत्र दो दिन बाद पढ़ना था। इसलिए मैं ज्यादातर समय मेरे शोध विषय पर हो रहे व्याख्यानों को सुनने और वैज्ञानिकों से मिल कर उस विषय पर चर्चा करने में लगा रहता था। आज शाम को मॉस्ट्रिच के मेयर ने वहाँ के टाउन हॉल में एक ड्रिंक पार्टी रखी थी। मैं डॉ. पराशर और उनके साथ शोध कर रही डॉ. रानू जिन्हें मैं पहले से जनता था वहाँ पहुँच गए। पार्टी शुरू हो चुकी थी। मैं और डॉ. रानू जूस का गिलास हाथ में लेकर बातें कर रहे थे। तभी डॉ. पराशर जी अपने दोनों हाथ में रेड वाइन से भरा ग्लास लिए हुए हमारी तरफ आये। और बोले ये क्या पी रहे हो। मैंने कहा कि मैं ड्रिंक नहीं करता। इस पर उन्हों ने पूछा। द्राक्षासव का नाम सुना है ? मैंने हाँ में जबाब दिया। उन्होंने पूछा…  क्या होता है? मैंने कहा कि आयुर्वेदिक दवा के रुप में प्रयोग होता है। फिर उन्होंने पूछा। उसमे एल्कोहल कितना परसेंट होता है? मैंने कहा तक़रीबन १० परसेंट। उन्हों ने कहा इसमें ९.५ परसेंट है और कहते हुए वाइन का गिलास हम दोनों कि तरफ बढ़ा दिया। जिसे न लेने की हिमाकत हम नहीं कर सकते थे। और अब हमारे हाथ में जूस कि जगह वाइन का ग्लास था। और फिर शुरू हो गई ढलती हुई शाम में वाइन के साथ विज्ञान चर्चा........।  
(....शेष अगले अंक में )