बुधवार, 25 दिसंबर 2013

"सतपुड़ा की रानी" और "मनीराम"


     डॉ. विजय प्रताप सिंह





मार्च २००९ ! मैं अपने एक मित्र की शादी में पिपरिया, मध्य प्रदेश, गया। शादी में शरीक होने के साथ दो और उद्देश्य था। एक तो पचमढ़ी  घूमना और दूसरा मनीराम से मुलाकात। पिपरिया, पचमढ़ी पहुँचने  के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है।

पचमढ़ी का नाम यहाँ मौजूद पाँच गुफाओं के कारण पड़ा। ऐसा माना जाता है कि महाभारत में वर्णित पांच पांडवों ने अपने अज्ञातवाश के समय रहने के लिए ऊँची पहाड़ी पर इन गुफाओं को बनाया था।      

१८५७ में अंग्रेजी सेना में कैप्टेन जेम्स फोर्सिथ कि अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ झाँसी कि तरफ जाते समय इस पहाड़ी पर नजर पड़ी । बाद में यहाँ के खुशनुमा मौसम के कारण इसे एक हिल स्टेशन और अंग्रेजी सैनिकों के हेल्थ रिसोर्ट के रूप में बिकसित किया गया। पंचमढ़ी को अंग्रेजों ने "सेंट्रल प्रोविंस" (आज का मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़  और महाराष्ट्र) जिसकी राजधानी नागपुर थी की गर्मियों कि राजधानी (Summer Capital) बनायी।

मैं अपने मित्र कि शादी में शरीक होने  के बाद दूसरे दिन पचमढ़ी घूमने के लिए निकल गया। पचमढ़ी ! जिसे "सतपुड़ा कि रानी" भी कहा जाता है। एक शांत, बेहद मनोरम एवं जैव विविधता वाला क्षेत्र है । सतपुड़ा क्षेत्र गुजरात के पूर्वी भाग में अरब सागर  के किनारे से होता हुआ महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के बॉर्डर से पूर्व में छत्तीसगढ़ तक लगभग ९०० कि.मी. तक फैला हुआ है । पचमढ़ी को इसकी प्रचुर जैविक विविधाताओं के कारण यूनेस्को द्वारा मई २००९ में "बायोस्फियर रिज़र्व" घोषित किया गया।


मुझे जंगल और ऐतिहासिक महत्व वाली जगह हमेसा से आकर्षित करती रही हैं । बाद में बनस्पति शास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण हरी भरी वादियों में पेड़ पौधों के बीच रहना और उनके बारे में जानने कि जिज्ञासा और बलवती हुई। मैं पूरा दिन पचमढ़ी कि वादियों में घूमता रहा। पेड़ पौधों के अलावा प्रकृति द्वारा स्व निर्मित  शिल्प जिसमें कहीं भारत का नक्सा दिखाई देता, कहीं जंगल का राजा शेर पहाड़ी से छलांग लगाने को तैयार तो कहीं सुन्दर नर्तकी का चेहरा। बस देखने के लिए नजर चाहिए। रामचरित मानस में तुलसी दास ने सही ही लिखा है "जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी" .

अब मैं यहाँ के मशहूर जल प्रपात जिसे B Fall के नाम से जाना जाता है के पास एक पत्थर पर बैठ गया। चारो तरफ से विविध प्रजाति वाले पेड़ पौधों कि शीतल छावं में गिरते हुए प्रपात के बूंदो की  नमी समेटे हुए हवा का स्पर्श देर तक पैदल चलने की  थकान को काफूर करने के लिए काफी था। यहाँ कि प्रकृति के स्पर्स का अनुभव मैं शब्दों में बयां करने में अपने आप को असमर्थ पा रहा हूँ।

जैसा कि हम जानते हैं कि सभी पौधों में कुछ न कुछ औषधीय गुण होता है। और यहाँ की  अपार जैव बिविधता का एक बड़ा हिस्सा यहाँ पर पाई जाने वाली बहुत सी जड़ी बूटियों एवं  औषधीय पौधों का है ।  जिस हवा में इन औषधीय एवं दूसरे पौधों का स्पर्श एवं फूलों कि सुगंध घुली हो उस हवा के बीच में रहना और उसे सांसों में भरना अपने आप में एक चिकित्सा है। सायद यहाँ कि इसी विषेशता के चलते अंग्रेजों ने अपने बीमार सैनिकों के लिए हेल्थ रिसोर्ट यहाँ पर बनाया था।

परन्तु मुझे यह देख कर दुःख हुआ कि यहाँ पर आने वाले पर्यटक अपने पीछे जो "प्लास्टिक फुट प्रिंट" छोड़ जाते हैं वह किस तरह से इसकी सुंदरता कि चादर में पैबंद लगा रहे हैं। मुझे अंडमान द्वीप समूह  के "जॉली बॉय" द्वीप पर प्लास्टिक फुट प्रिंट कम करने के लिए पर्यटन विभाग का एक प्रयोग काफी अच्छा लगा। इस द्वीप पर जाने वाले सभी पर्यटकों को साथ में ले जा रहे पानी या कोल्ड ड्रिंक्स कि बोतलों के लिए प्रति बोतल १०० रु. जमा करा कर रशीद लेनी होती है। जो लौटकर खाली बॉटल दिखाने पर  वापस कर दिया जाता है।

पचमढ़ी घूमने के बाद मैं मनीराम से मिलने के लिए निकल गया। मनीराम पंचमढ़ी के फारेस्ट चौकी में सुरक्षा गार्ड के तौर पर पिछले कई दशकों से कार्यरत हैं। परन्तु शायद ही ऐसा कोई बनस्पति शास्त्र पढ़ने या पढ़ाने वाला हो, जो कभी पचमढ़ी बायोस्फियर रिज़र्व में शैक्षणिक टूर या रिसर्च के लिए गया हो और मनीराम से प्रभावित न हुआ हो। कारण ! मनीराम कि एक विलक्षण छमता है । मनीराम, जिसने शायद मैट्रिक की भी पढाई पूरी नहीं कि है । इस पूरे बायोस्फियर रिज़र्व में पाये जाने वाले सभी पेड़ पौधों के बैज्ञानिक नाम (Botanical Name) और उनकी फैमिली बिना दिमाग पर जोर डाले बता सकते हैं। इनके इसी विलक्षण छमता के लिए भारतीय प्रबंध संस्थान (Indian Institute of Forest Management), भोपाल द्वारा १२ जुलाई १९९९ को इन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान में दिए गए प्रशस्ति पत्र के अनुसार -

मनीराम को मिला प्रशस्ति पत्र 
" मनीराम, पचमढ़ी, जिला होशंगाबाद, म. प्र. के निवासी हैं तथा ये पौधों के ज्ञान के सम्बन्ध में एक जीते जाते शब्द कोष माने जाते हैं। वर्गीकरण विज्ञान कि औपचारिक शिक्षा न होते हुए भी , इन्हे पादप वर्गीकरण विज्ञान का गहन ज्ञान है। वनस्पति विज्ञान एवं वानिकी के छात्र एवं शोध कर्ता प्रति वर्ष पूरे भारत से आकर आप के अद्वितीय पादप ज्ञान से लाभ प्राप्त करते रहे हैं। वास्तव में पचमढ़ी में श्री मनीराम से मिले बिना उनका शैक्षणिक भ्रमण अधूरा रहता है। आप का पादप वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में योगदान सम्माननीय है। इनके द्वारा पादप वर्गीकरण विज्ञान में अद्वितीय योगदान हेतु यह प्रशस्ति पत्र अंतर्राष्ट्रीय सामुदायिक वानिकी केन्द्र के उद्घाटन अवसर पर प्रदान किया गया "

मनीराम के साथ लेखक 
यह जान कर कि मैं उनसे ही मिलने के लिए यहाँ पर आया हूँ। वो थोड़े भावुक हो उठे। फिर हम काफी देर तक बातें करते रहे। उन्होंने यह प्रशस्ति पत्र जो वहीँ पर एक कमरे में टंगा था दिखाया। जहाँ बनस्पति शास्त्र का विद्यार्थी होते हुए भी मुझे पेड़-पौधों का वैज्ञानिक नाम (अधिकतर नाम लैटिन भाषा से लिए गए हैं ) याद् रखना सबसे कठिन लगता था। वहीँ मनीराम जी को सब जबानी याद है। मैंने मनीराम से पूछा कि आपने यह सब सीखा कैसे। तो बड़ी ही मासूमिया से बोले कि "आप सभी लोगों से ही सीखा है".  मनीराम ने बताया कि, मैं अपनी रूचि के चलते घने जंगल में दूर नई जगह और नए पौधों के बारे में जानने के लिए जाया करता था। बहुत से विद्यार्थी शैक्षणिक भ्रमण पर यहाँ आते थे। जिन्हें जंगल में घुमाते हुए मुझे पता चला कि सभी पौधों का एक अलग नाम होता है जिसे Botanical Name कहा जाता है। बस, मैं भ्रमण पर आने वाले शिक्षकों और छात्रों से सीखने लगा। और जब भी जंगल में जाता तो पौधों को उन्हीं नामों से सम्बोधित करता। बस इसी तरह यह सब सीख गया। अब मनीराम को पचमढ़ी बायोस्फियर रिज़र्व के लगभग सभी पेड़ पौधों के साइंटिफिक नाम याद हैं। मनीराम से विदा लेते समय मैं सोचता रहा कि अगर मन में लगन और दॄढ़ इछा शक्ति हो तो असम्भव कुछ भी नहीं।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

काला पानी

डॉ. विजय प्रताप सिंह

सेलुलर जेल, पोर्टब्लेयर, अंडमान 

सन १७७८। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मरीन सर्वयेर लेफ्टिनेंट आर्चिबाल्ड ब्लेयर को एक ऐसी उपयुक्त जगह ढ़ूढ़ने का काम सौंपा जहाँ कैदियों को भेज कर उनसे मजदूरी कराइ जा सके। जिसकी खोज में लेफ्टिनेंट ब्लेयर अपने जहाज "द वाइपर" से अंदमान द्वीप पंहुचा। 

अंडमान ! मनोरम द्वीपों का समूह। एक किंबदंती के अनुसार अंडमान द्वीप समूह का नाम रामायण में वर्णित प्रतापी बानर हनुमान के नाम पर "हंडुमान" पड़ा। जो बाद में "अंडमान" हुआ। मगर अंग्रेजों ने इसे एक नयी पहचान दी। और यह पहचान थी "काले  पानी कि सजा" दी जाने वाली जगह। "काला पानी"। जहाँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के वीर सपूतों पर जुल्म और अत्याचार कि सबसे काली इबारत लिखी गई। 
मुख्य गेट, सेलुलर जेल 

अंग्रेजों ने १७८९ में पहली बार अंडमान के दक्षिण पूर्व में चट्टम द्वीप पर कैदियों को रखने के लिए कालोनी   (Penal Colony) बसाई। और आर्चिबाल्ड ब्लेयर के सम्मान में जगह का नाम रखा पोर्टब्लेयर। दो साल बाद इस कॉलोनी को ग्रेट अंडमान के उत्तर-पूरब  में स्थान्तरित कर दिया। और एडमिरल विलियम कार्नवैलिस के नाम पर नाम दिया पोर्ट कॉर्नवैलीस। परन्तु विपरीत  मौसम एवं बीमारियों से होने वाली मौतों  के चलते मई १७९६ में सरकार ने इसे बंद कर दिया। बाद में इस जगह का इस्तेमाल   १८२४ में प्रथम एंग्लो-बर्मीस युद्ध के लिए जाने वाले सैनिकों के जहाजी बेड़ों के अड्डे  के रूप में किया गया।


जिस लकड़ी की बल्ली से शेर अली को
फांसी पर लटकाया गया 
फिर दशकों तक अंडमान शांत रहा। लेकिन अंग्रेज यहाँ कैदियों के लिए कालोनी बसाने का प्रयास बराबर करते रहे। इसी दौरान भारत का "प्रथम स्वतंत्रता संग्राम" ! यानि १८५७ कि क्रांति हुई। इस क्रांति के कारण बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजी हुकूमत द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। देश में कैदियों कि संख्या काफी बढ़ गई थी। इसी को ध्यान में रख कर अंग्रेजी हुकूमत ने नवम्बर १८५७ में अंडमान के "वाईपर द्वीप" (लेफ्टिनेंट ब्लेयर के जहाज द वाईपर के नाम पर)  पर कैदियों को रखने कि योजना बनाई। और १० मार्च १८५८ को डॉ. जे. पी. वाल्केर जिन्हे यहाँ का पहला सुप्रिंटेंडेंट बनाया गया था, २०० कैदियों (ये सभी १८५७ कि क्रांति के हीरो थे) और अपने कर्मचारियों के  जत्थे के साथ  अंडमान पहुँचा। बाद में  सन  १८६४-६७ के बीच लेफ्टिनेंट कर्नल फोर्ड की   देख़ रेख में यहाँ वाईपर जेल का निर्माण  हुआ। जहाँ बहुत से राजनीतिक कैदियों एवं  महिला कैदियों को भी रखा गया। इस जेल में दी जाने वाली अमानवीय सजा के कारण  इसे "वाईपर चेन गैंग जेल" भी कहा जाने लगा। जो कैदी बर्तानिया हुकूमत कि खिलाफत करते उन्हें रात को एक साथ लोहे की चेन जो एक लोहे कि घिर्री के सहारे उनके पैरों के चारो तरफ चलती रहती, से जकड़ दिया जाता।
फाँसी घर, वाइपर आईलैंड 

इसी जेल में राजनैतिक कैदी श्री ब्रिज किशोर सिंह देव (जिन्हे पुरी के महाराजा जगन्नाथ के नाम से जाना जाता था) को एक  आम कैदी जैसा रखा गया। जहाँ १८७९ में उनकी मृत्यु हो गई। शेर अली खान को वाइसराय लार्ड मायो का बध करने के कारण इसी जेल में फांसी दी गई। जिस लकड़ी की बल्ली से कभी शेर अली खान को फांसी पर लटकाया गया था वह आज भी वाइपर द्वीप पर जीर्ण-क्षीर्ण अवस्था में पड़े फांसी घर में उसी तरह मौन है। और हमारी सरकारें भी  मौन। लाखों पर्यटक हर साल यहाँ पर आते हैं। और भारत माँ के वीर सपूतों की दिलेरी को याद कर उन्हें मन ही मन प्रणाम करते हैं। परन्तु लगता है कि यह फांसी घर खुद भी थोड़े दिनों में पूरी तरह से फांसी पर चढ़ जायेगा। अपने राष्ट्रीय धरोहरों के प्रति ऐसी उपेक्षा शायद ही अन्यत्र किसी और देश में देखने को मिले।

सेलुलर जेल का मॉडल 
खैर ! इस द्वीप पर काले पानी का सबसे काला अध्याय लिखा जाना अभी बाकी था। जिसकी शुरुआत हुई सन १८९० में।  जब सी. जे. ल्यॉल और डॉ. ए. एस. लेथब्रिडज की दो सदस्यीय कमेटी ने यहाँ का दौरा करने के बाद कैदियों को कम से कम ६ महीने के लिए एकाकी कोठरियों में रखने का प्रस्ताव दिया। जिसके फल स्वरूप १८९६ में ६९० काल कोठरियों वाली "सेलुलर ज़ेल " कि नीव रखी गई। जो १९०६ में ५,१७,३५२ रू की लागत और कैदियों के हाड़ तोड़ मेहनत से बनकर तैयार हुई। इसे बनाने के लिए ईंटें और दूसरे जरूरी सामान बर्मा (अब म्यांमार) से लाया गया ।  इस स्टार फ़िश की आकर वाली तीन मंजिले जेल के सात विंग और उनके बीचो-बीच सेंट्रल टावर इस तरह से डिज़ाइन किया गया था कि केवल एक संतरी उस टावर से पुरे ज़ेल की निगरानी बड़ी आसानी से कर लेता। सभी विंग के पीछे का हिस्सा दूसरी विंग के सामने होता जिससे एक कैदी कभी भी दूसरे कैदी को देख नहीं पाता। 


वहीँ सेलुलर जेल से थोड़ी ही दूरी पर रॉस आइलैंड। जहाँ अंग्रेजी अफसरों के लिए सभी सुबिधाओं से लैश बस्ती बसाई गई। स्विमिंग पुल, गिरजाघर, बाज़ार, और पानी साफ करने का संयंत्र इंग्लैंड से लाकर लगाया गया। लेकिन अब चर्च के खँडहर और कमिश्नर हॉउस की कुछ दीवारें  जिन्हें पेड़ की जड़ों ने अगर जकड़ न  रखा होता तो शायद पर्यटकों को ये अवशेष भी नहीं दिखते। मगर खंडहर कहते हैं ईमारत बुलंद थी। पर एक जीव जिससे अंग्रेज यहाँ पर हारते रहे वह था "मछर". आखिर एक मछर भी आदमी को……। जिसका सुबूत यहाँ पर कब्र में दफ़न अंग्रेज अफसर और उनके परिवार के लोग हैं।  इनमे से ज्यादातर कि मौत मलेरिया से हुई थी।  
   
जून २००९ कि एक सुबह जब मैंने पहली बार पोर्टब्लेयर कि धरती को छुआ तो उगते सूरज कि पहली किरण के स्पर्श ने रोमांचित कर दिया। हवा में भी एक अलग ताजगी का एहसाश हुआ। सेलुलर जेल के एक कोने में बना फाँसी घर। आज भी ख़ामोशी से सारा मंजर बयां कर देता है। जहाँ एक साथ तीन लोगों को फाँसी दी जाती थी। और कैदियों कि निगरानी के लिए जेल के बीचोबीच बने वाच टावर में लगे घंटे कि आवाज जैसे ही सन्नाटे को चीरता तो दूर लंगर डाले जहाजी समझ जाते कि आज फिर भारत माँ के तीन जांबाजों ने अपनी सहादत दी है। मैं फांसी घर के निचले भाग में थोड़ी देर बैठा सोंचता रहा। कि न जाने कितने वीर सपूतों की अंतिम साँस यहीं पर छूटी होगी। और उनकी इस क़ुरबानी का ज़िक्र शायद ही  इतिहास कि किसी किताब में दर्ज हो।  

जहाँ देश की स्वतंत्रता के लिए न जाने कितने रण बांकुरों ने हँसते-हँसते अपनी जान कि कुर्बानी दे दी थी । वहीं बहुत से स्वतंत्रता सेनानी अंडमान द्वीप पर काले पानी की सज़ा काट रहे थे। इन्ही में से एक थे वीर विनायक दामोदर सावरकर। सावरकर को दो आजीवन कारावास (५० साल) कि सज़ा देकर ४ जुलाई १९११ को सेलुलर जेल भेज दिया गया। जहाँ इनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर एक साल पहले से सज़ा काट रहे थे। लेकिन एक वर्ष तक इस बात का पता गणेश को नहीं चला कि विनायक को भी इसी जेल में लाया गया है। जेलर डेविड बेरी ने जान बूझ कर सावरकर को दूसरी मंजिल पर ठीक फांसी घर के सामने वाले कोठरी में रखा था। २ मई सन १९२१ को महत्मा गाँधी, बिट्ठल भाई पटेल और बाल गंगा धर तिलक द्वारा अंग्रेजी हुकूमत पर दबाव के चलते सावरकर बंधुओं को अंडमान के सेलुलर जेल से वापस रत्नागिरी जेल भेज दिया गया। और अंततः ६ जनवरी १९२४ को इन्हे रिहा कर दिया गया।


बिडंबना है कि इनके प्रति सम्मान प्रकट करने कि जगह पोर्टब्लेयर कि सेलुलर जेल के बाहर वीर सावरकर कि प्रतिमा पर लगी नाम पट्टिका पर उनके नाम से "वीर" शब्द अगस्त २००४ में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री (मणिशंकर अइयर, कांग्रेस) के आदेश से हटा कर नई पट्टिका लगा दी गई। कारण ! उनका सम्बंध आर.एस.एस. से होना था।   

सेलुलर जेल में सजा काट रहे राजनीतिक बंदियों एवं क्रांतिकारियों पर तरह-तरह के अमानवीय अत्याचार किये जाते रहे। कई तरह से जंजीरों में जकड़ कर रखा जाता, धूप में सर के बल  लटकाया जाता, कोल्हू में बैल कि तरह जुत कर नारियल का तेल निकालने पर मजबूर किया जाता। और तेल निकालने का कोटा होता था प्रतिदिन ४० किलो। काम पूरा न होने पर शाम को सजा अलग से। सजा के तौर पर खाना बंद कर दिया जाता। हंटर से पिटाई कि जाती। या काम का कोटा बढ़ा दिया जाता। इसी तरह के जुल्मो सितम यहाँ पर आने वाले सभी कैदियों पर चलता रहा। अमानवीय अत्याचारों से ऊब कर इंदु भूषण रॉय ने १९१२ में जेल में ही आत्म हत्या कर लिया। १९१९ में पंडित राम रक्खा ने अपने जनेऊ कि पवित्रता के लिए भूख हड़ताल करते हुए मृत्यु को गले लगा लिया।  
फाँसी घर का निचला हिस्सा 

सन १९३२ से १९३८ के बीच सबसे ज्यादा राजनीतिक बंदियों एवं क्रांतिकारियों को यहाँ भेजा गया। १९३३ में क्रांतिकारियों ने जेल में भूख हड़ताल कर दिया। जिसे दबाने के लिए जेल प्रशासन द्वारा जबरन नली से खिलाने के दौरान उल्लासकर दत्त, ब्रिंद्रा घोष, महाबीर सिंह, मोहित मैत्रा, मोहन किशोर नामदास कि मृत्यु हो गई। जेल में दूसरा भूख हड़ताल १९३७ में हुआ जिसने पूरे देश को उद्देलित कर दिया। और अंततः जनवरी १९३८ में अंग्रेजी हुकूमत पर ज्यादा दबाव पड़ने के कारण सभी स्वतंत्रता सेनानियों को वापस लाकर देश कि दूसरी जेलों में रखा गया। 

द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर अंग्रेज अंडमान से वापस आ गये। और १९४२ में अंदमान पर जापानियों ने कब्ज़ा कर लिया। फिर शुरू हुआ दिल दहला देने वाले जुल्मो सितम का एक और दौर। लगता जैसे इस द्वीप समूह कि यही नियति बन गई हो। सैकड़ों द्वीप निवासियों को अंग्रेजों का गुप्तचर समझ कर जापानियों द्वारा घोर यातनाएं दी गई। कुछ को गोलियों से भून दिया गया। जापानियों के कब्जे के दौरान एक बार नेताजी सुभाष चन्द्र बोष भी यहाँ पर आये और सेलुलर जेल का मुआयना किया। लेकिंन जापानियों ने उन्हें जेल के उन हिस्सों में नहीं ले गए जहाँ बहुत से नागरिकों को बर्बरता पूर्वक कैद कर रखा था।

इसी दौरान १९४३-४४ में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने जापानियों कि मौजूदगी में पोर्टब्लेयर को आजाद हिन्द सरकार का मुख्यालय बनाया। लेकिन बाद में जापान ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद समर्पण कर दिया। और ७ अक्टूबर १९४५ को अंग्रेजों ने एक बार फिर से अंडमान द्वीप समूह पर अपना अधिकार कर लिया। जापानियों ने इस द्वीप पर बहुत सारे बंकर बनाए। जो आज भी रॉस आइलैंड पर देखे जा सकते हैं। लोगों का मानना है कि आज भी बहुत सारा धन इन बंकरों में छुपा हुआ है। जिसे समर्पण करने के पहले जापानियों ने बंकरों में छुपा दिया था।

जापानी बंकर, रॉस आईलैंड 
फिर १५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हो गया। लेकिन सेलुलर जेल वर्षों तक उपेछित अपनी बदहाली पर आंशू बहाता रहा। इसके दो विंग जापानियों ने तोड़ दिया था और दो विंग आजादी के बाद ढहा दिए गए।  बाद में अंडमान के पूर्व स्वतंत्रता सेनानिओं ने बचे हुए ३ विंग को संग्रक्षित करने के लिए मुहिम चलाई। और आखिर ३२ साल बाद ११ फरवरी १९७९ को  तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरार जी देसाई ने सेलुलर जेल को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में देश समर्पित किया।

पर्यटकों के लिए शाम को जेल  में होने वाला  "लाइट एंड साउंड शो", अतीत की कहानी जेल के अंदर खड़े उस पीपल के पेड़ के माध्यम से बयां करता है जो रोंगटे खड़े कर देने वाले जुल्मो सितम कि हर एक छोटी बड़ी घटनाओं का लेखा जोखा अपने शारीर कि दरारों में संजोए आज भी खड़ा है। परन्तु हमारे स्कूलों कि पाठ्य पुस्तकों में शायद ही ऐसा कोई पाठ है जो आने वाली पीढ़ी को इस निर्जन टापू पर अंग्रेज अफसरों के जुल्मो सितम को सहते हुए भी ब्रितानी हुकूमत की चूलें हिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की वीर गाथा से अवगत करता हो।

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

शौचालय, सरकार और राजनीति

 डॉ. विजय प्रताप सिंह   


संयुक्त राष्ट्र (United Nations) ने इस साल  १९ नवम्बर को विश्व शौचालय दिवस के रूप में घोषित किया है। उर्दू के शायर शेख़ बाक़िर अली चिरकीन (जन्म बाराबंकी, उत्तर प्रदेश) किसी और के द्वारा  उनकी शायरी चुरा कर हैदराबाद में अपने नाम से छाप लेने से अनभिज्ञ जब एक मुशायरे में अपना वही कलाम पढ़ा तो लोगों ने उनपर चुराकर कलाम पढ़ने का आरोप लगा दिया। जिससे खिन्न हो कर उन्हों ने शौचालय को अपनी शायरी की विषय वस्तु बना लिया ताकि कोई उसे चुराने कि हिमाकत न कर सके। 

शौचालय सभी के लिए नितांत आवश्यक जरूरतों में से एक है। मगर अफसोस कि आजादी के सड़सठ साल बाद भी हमारे देश में लगभग ५० फीसद से ज्यादा परिवार शौचालय से महरूम खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। बेचारे चिरकीन ने मजबूर होकर शायरी के लिए शौचालय का सहारा लिया था और अब नेता वोट की खातिर शौचालय की शरण में।और यही कारण  है "मंदिर से भी ज्यादा पवित्र हैं शौचालय" और "देवालय से पहले शौचालय" की राजनीतिक बयानबाजी का जिससे हम सभी भलीं भाति वाकिफ हैं। 

जयराम रमेश (ग्रामीण विकास मंत्री ) ने शौचालय को मंदिर से ज्यादा पवित्र बताया। जिसपर कुछ हिंदू वादी संगठनो ने आपत्ती जताई। और शुरू हो गई बुद्धू बक्से के प्राइम टाइम पर बे सर पैर की बहस। लेकिन अगर जयराम रमेश ने यह कहा होता कि "मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघर से भी पवित्र है शौचालय" तो क्या कोई भी  हिंदू वादी संगठन उनके इस बयान का बिरोध करता ? शायद नहीं। या फिर शायद सारे धार्मिक संगठन वैसा ही करते जैसा कुंछ हिंदू वादी संगठनो ने किया। परंतु  वोट बैंक कि राजनीति हमारे तथाकथित सेक्युलर (धर्म निरपेक्ष ! हलां की हमारे  संविधान में सेक्युलर शब्द का हिंदी अनुबाद "पंथ निरपेक्ष" है)  नेताओं  को ऐसा बयान देने की आजादी नहीं देता। 

फिर शौचालय कि "पवित्रता" वाले काँग्रेसी बयान के बाद मोदी के "प्राथमिकता" वाले बयान " देवालय से पहले शौचालय" पर कांग्रेसी हल्ला बोल। परन्तु यदि मोदी के बयान का निष्पक्ष विश्लेषण करें तो मुझे नहीं लगता की यह किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुचाने वाला बयान है। कभी महात्मा गाँधी ने "आजादी से पहले शौचालय" की वकालत की थी। तो क्या वो देश कि आजादी नहीं चाहते थे ?  लेकिन आजकल हमारे राजनीतिज्ञ जनता को असल मुद्दे से भटका कर राजनीतिक नफा नुकसान वाले मुद्दों में उलझाये रखने के जुगत में हैं। आखिर इन बयानों की जरूरत क्या है ? जो सपना गाँधी ने आजादी के पहले देखा।  उसके लिए आजादी के सड़सठ साल बाद भी केवल बयान बाजी हो रही है। वह भी चुनावी नफा नुकसान को ध्यान में रख कर।चुनाव आते ही नेता गण कुम्भकर्णीय (पञ्च वर्षीय) निद्रा से उठ कर  बरसाती मेढक की तरह चारो तरफ टर्र-टर्र करने लग जाते हैं। जो चुनावी बारिश के बाद जनता कि आँखों से ओझल हो जायेंगे।  और फिर बढ़ती हुई महंगाई पर टर्र टर्र करने कि बारी जनता कि होगी। मगर सुनने वाला कोई नहीं होगा। 

किसी को भी खुले में शौच न  जाना पड़े और इसकी ब्यवस्था हो यह अत्यंत जरुरी है। परन्तु क्या शौचालय होने मात्र से समस्या का समाधान संभव है ? क्या जरूरतों की प्राथमिकता के आधार पर परियोजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है ? जब तक हम कागजी आंकड़ो में उलझते रहेंगे कुछ भी होने वाला नहीं है। महात्मा गाँधी ने आजादी से ज्यादा जरुरी माना था शौचालय को। मगर शायद उनका यह सपना आजादी के १०० साल बाद भी पूरा नहीं होने वाला। और करना भी कौन चाहता है। नहीं तो गरीबी हटाओ का नारा हर चुनाव में "नई बोतल में पुरानी शराब" कि तरह  पेश करने कि जरूरत नहीं पड़ती। खैर छोड़िए वर्ना यहाँ भी हम मुख्य मद्दे से भटक जायेंगे। और मैं कोई चतुर राजनेता नहीं जो ऐसा करूँ।


मगर एक बात तो सच है कि शौचालय कि समस्या से ज्यादा सार्वजनिक समस्या शायद ही कोई दूसरी हो । ट्रेन से यात्रा करते समय खास तौर पर शहरी इलाकों के स्टेशनो के आसपास सुबह-सुबह  रेल लाइन पर या सड़क के किनारे खुले में शौच करते हुए पुरुष एवं महिलाओं का चेहरा छुपाते हुए दिखना बहुत आम बात है। उस समय उनकी मनः स्थिति कैसी होती होगी ? समझना मुश्किल नहीं। मगर हमारे नेता हैं कि यहाँ भी राजनीती। मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या आने वाले २०१४ के आम चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में यह उल्लेख होगा की अगले पांच साल (या किसी अन्य निश्चित अवधि ) के बाद किसी भी रेल पटरी या सड़क के किनारे खुले में शौच करता हुआ कोई नहीं दिखेगा। पर शायद नहीं। क्यों कि इसके लिए समस्या की जड़ में जाना होगा। परन्तु हमारी आदत समस्या को सतही तौर पर सुलझाने की होती है। मसलन, किसी आदिवासी गावं के सभी घरों में शौचालय बनाकर उसे आदर्श गाँव घोषित कर देना। लेकिन क्या कभी उन शौचालयों का उपयोग भी होता है ? जिस गावं में पीने का पानी दूर से लाना पड़ता हो वहां शौचालय में प्रयोग के लिए पानी कहाँ से आएगा ?  इन मूलभूत जरूरतों को कौन और कैसे पूरा करेगा ? ये कुछ बुनियादी सवाल हैं। जिनके जबाब खोजने होंगे।इसलिए केवल शौचालयों का होना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि उनका उपयोग हो यह सुनिश्चित करना ज्यादा जरूरी है। 

आइये अब मैं आप सब को शौचालय दर्शन पर ले चलता हूँ। जी हाँ ! "देवालय से पहले शौचालय दर्शन"। मगर मेरे इस बयान पर हो-हल्ला  या प्राइम टाइम में कोई बहस नहीं होगी। और हो भी क्यों ? आखिर मैं कोई वोट बटोरू खास आदमी तो हूँ नहीं। और आम आदमी कुछ भी कहता रहे क्या फर्क पड़ता है। आखिर आजादी के बाद से अब तक आम आदमी कि कौन सी बात सुनी गई है जो सुनी जायेगी । और फिर इस बयान में नया क्या है? हम करते भी तो यही हैं। पहले शौचालय दर्शन फिर मंदिर, मस्जिद या कोई और धार्मिक स्थल। खैर छोड़िये मै भी कहाँ शब्दों के जाल में उलझ गया। इन्हें नेताओं के लिए ही छोड़ देते हैं।

मुझे पिछले दो वर्षो में दछिणी उड़ीसा के गजपति एवं रायगढ़ा जिले में आदिवासियों के लिए एक परियोजना पर काम करते हुए उनके रीति-रिवाज  एवं आदिवासी क्षेत्र में बिभिन्न सरकारी योजनाओ के तहत होने वाले कामों को नजदीक से देखने और समझने का अवसर मिला। इस दौरान आदिवासी गावों में बने शौचालयों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। इन गावों में सरकारी मदद से बने शौचालयों के दर्शन लाभ से जमीनी हकीकत का पता चला। शौचालय ! तीन तरफ से खड़ी पाँच फिट ऊँची दीवार जिसके ऊपर छत नहीं और सामने दरवाजा नहीं। कहीं पर खुले आसमान के नीचे घास फूस में छिपा हुआ कमोट। कुछ सही तरीकों से बने शौचलय के भी दर्शन हुए जो बनने के बाद शायद ही उपयोग में आयें हों। मगर अब सामान रखने के काम आ रहे हैं। परन्तु ये सारे सरकारी आकड़ों में शौचलय के नाम से दर्ज हैं। इस इलाके में विभिन्न परियोजनाओं के तहत बने ९९ प्रतिशत शौचालय (यह मेरा खुद का आंकलन है ) या तो उपयोग के लायक नहीं हैं। या शौचालयों में उपयोग के लिए पानी नहीं है। या आदिवासी इन शौचालयों का उपयोग सामाजिक रूढ़ियों के कारण नहीं करते और जंगल में जाना ज्यादा ठीक समझते हैं। कारण जो भी हो।  पर अंतिम सत्य एक ही है। अनुपयोगी शौचालय ! जिसकी कहानी ये छाया चित्र खुद ब खुद बयां कर रहे हैं (सभी छाया चित्र लेखक द्वारा खींचे गए हैं ).

सन २०११ कि जनगणना के अनुसार हिंदुस्तान कि आधी आबादी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर हैं जिनमें से २६ % शहरी इलाके और ७८% ग्रामीण इलाकों के लोग हैं । जबकि भारत में पहला स्वछता कानून १८७८ में कलकत्ता के झोपड़ियों में भी शौचालय को अनिवार्य बनाने के मकसद से पेस किया गया था (तब कलकत्ता भारत कि राजधानी थी )। मगर आज भी सभी कोलकाता  वासियों के घर में शौचालय होगा कह नहीं सकते। इसी तरह से भारत सरकार ने जन आंदोलनों के दबाव में १९९३ में एक कानून बना कर सर पर मैला ढ़ोने कि प्रथा को अपराध कि श्रेणी में रख कर ख़तम करने कि कोशिश कि लेकिन जमीनी स्तर पर यह भी नाकाफी सिद्ध हुआ। एकबार फिर २०१२ में मैला प्रथा निषेध पुनर्वास विधेयक संसद में पारित किया।  मगर यह भी उद्देश्य पूर्ति में कितना सफल होगा यह तो समय ही बतायेगा। १९९० में इस प्रथा को जड़ से मिटाने के लिए सरकार द्वारा १९९५ कि समय सीमा तय कि गई थी, बाद में इसे बढ़ा कर १९९८ कर दिया। फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वादा किया कि वे सन २००० तक इस प्रथा को जड़ से ख़तम कर देंगे। मगर आज एक दशक बाद भी कमोवेश वही स्थिति। आखिर आम जनता को वादों के सिवा मिला क्या है।  आजादी से लेकर आज तक। गरीबी हटाने से लेकर मैला प्रथा मिटाने तक। शिर्फ़ कोरे वादे।

एक और बात। जहाँ आम जनता के लिए कोरे वादे वहीँ सत्ता पर आसीन लोग जनता कि गाढ़ी कमाई मनमाने ढंग से उड़ा रहे है। हमारे देश का योजना आयोग जहाँ  एकतरफ कहता है कि प्रति दिन २८ रु. कमाने वाला गरीब नहीं है। वही अपने योजना भवन के दो शौचालयों कि मरम्मत में ३५ लाख रुपये खर्च करता है। एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश के केवल ४४ प्रतिशत स्कूलों में ही शौचालय कि ब्यवस्था है। और केवल १८ प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय हैं। सभी स्कूल में शौचालय।क्या यह इतना बड़ा कार्य है जिसे केंद्र एवं राज्य सरकारें मिल कर पूरा नहीं कर सकती। मगर जब उनका ध्यान वोट पाने के लिए फ्री लैपटॉप  बाँटने पर हो तो शौचालय कि चिंता कौन करे।

एक और बात। जो थोड़ी अटपटी लग सकती है। हो सकता है कि ज्यादातर लोग इससे सहमत न हों। परन्तु मेरा मानना कुछ ऐसा ही है। हमें अपने उन ग्रामीण लोगों के प्रति  कृतज्ञ होना चाहिए जो सुबह शाम जंगल या खुले मैदान में जाकर हल्का हो लेते है (इसका मतलब यह न निकला जाय कि मैं इनके लिए शौचालय के पक्ष में नहीं हूँ ). क्योंकि ऐसे में वो इस कृत्य के लिए एक लीटर पानी से काम चला लेते हैं। मगर शौचालय का उपयोग करने पर कम से कम १० से १५ लीटर पानी कि बर्बादी होती हैं। जरा सोचिये।  मजबूरी में ही सही क्या यह जल संरक्षण का एक माध्यम नहीं।

जिन गावों में पीने के लिए पर्याप्त स्वछ पानी नहीं मिल रहा हो क्या वहाँ कि प्राथमिकता शौचालय बनाना होना चाहिए ? या पानी कि आपूर्ति सुनिश्चित करने के बाद शौचालय कि बात और उनका उपयोग सुनिश्चित करने के लिए समाजिक रूढ़ियों को मिटाने के लिए दीर्घकालिक योजना पर काम होना चाहिए।

रविवार, 10 नवंबर 2013

अब और नहीं…


डा. विजय प्रताप सिंह

कुछ राज्यों में चुनावी बिगुल बज चुका है। चुनावी वादों और मुद्दों का पिटारा खोलकर जमूरे मैदान में उतर चुके हैं । और जनता को बड़ी चतुराई से नए वादे और मुद्दों में उलझाने का प्रयास जारी है। चुनावी रैलियों से लेकर  बुद्धू बक्से के प्राइम टाइम तक लाइव आरोप-प्रत्यारोप। टी. वी. विज्ञापन कि तरह मेरी कमीज…तेरी कमीज।  मेरा साबुन…तेरा साबुन । मेरा नमक...तेरा नमक कि तर्ज पर...  तेरी चोरी मेरी चोरी से बड़ी।  तेरे घोटाले मेरे घोटाले से बड़े।  तेरा नेता मेरे नेता से बड़ा साम्प्रदायिक।लब्बोलबाब एक ही कि हमाम में सभी नंगे। और देश कि आधी आबादी (२०११ कि जनगणना के अनुसार ) हमाम तो छोड़िये शौचालय से भी महरूम। । तभी तो  "मंदिर से भी ज्यादा पवित्र है शौचालय" और  " देवालय से पहले शौचालय" की राजनीती होती है । 

खैर ! जनता भी तो ठहरी बहरी और गूंगी (कम से कम नेताओं कि नजर में )। चुनाव में कुछ भी वादा  करो सुनाई तो देगा नहीं । फिर पूरा करने कि क्या जरूरत। और अगर थोडा बहुत सुनाई दे भी गया तो बोलेगी क्या ? गूंगी जो ठहरी। माफ़ करियेगा ! मगर  पिछले ६० वर्षों का सच तो यही है। गरीबी हटाने का वादा। महंगाई कम करने का वादा। कुपोषण मिटाने का वादा। किस चुनाव में नहीं होता ?  मगर नतीजा ! वही ढाक के तीन पात। और अगले चुनाव में फिरसे वही मुद्दे। नई बोतल में पुरानी शराब कि तरह। राजनीतिक जमूरे बड़ी सफाई से उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराधों और घोटालों को अपने सफ़ेद लिबास में छुपा लेते हैं।  और आम जनता  बुरा मत देखो कि तर्ज पर…सफेदी कि चमकार  में उलझ जाती है।  नहीं तो खोखले वादे करने वाले और हर चुनाव के बाद अपनी तिजोरी भरने वाले नेताओं को बार-बार वह  मौका क्यों देती। मगर अब पर्दा धीरे धीरे उठ रहा है। चेहरों से नकाब हट रहे  है। आखिर कब तक जनता कि आवाज चुनावी नक्कारखाने में तूती की आवाज कि तरह  गुम होती रहेगी। 

लेकिन अभी एक और  प्रयास जारी है। राजनीतिक लफ्फेबाजों द्वारा।जनता को असल मुद्दे से भटकाने के लिए फेकू और पप्पू के जुमले गढ़े जा रहे हैं। और  गड़े मुर्दे उखाड़ने का प्रयास जोर शोर से हो रहा है । वह चाहे मंदिर-मस्जिद का मुद्दा हो या  अतीत में हुए साम्प्रदायिक दंगे। ब्यापार तो फायदे का ही किया जाता है। इसलिए साम्प्रदायिक दंगों कि चिंगारी को हवा देकर सुलगाए रखना जरुरी है। क्योंकि दंगों की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेकना सबसे आसान जो है। फिर इसे इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकते हैं। रोजी- रोटी का सवाल जो है। इसलिए चुनावी फायदे के लिए आग में घी डालने का काम सभी राजनीतिक दल अवश्य  करेंगे।मुजफ्फरपुर के साम्प्रदायिक दंगे इसका सबसे हालिया उदहारण है। एक तरफ सम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के नाम पर अयोध्या को छावनी में तब्दील कर दिया जाता है और दूसरी तरफ साम्प्रदायिक दंगों को होने दिया जाता है। क्योंकि आम जनता (वह चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय से हो ) कि जिंदगी पर राजनीतिक नफा नुकसान का गणित भारी जो है। 

राजनीतिक रंगमंच पर बहुरूपिये कलाकार घूम-घूम कर  नाटकों का मंचन बखूबी कर रहे हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने कि होड़ में भाषा कि शालीनता कहीं खो गई है।  प्राइम टाइम पर कुतर्क, गाली-गलौज और सर फुटउअल करने में इन्हें कोई शर्म नहीं। और मीडिया की बाजारू संस्कृति चाहती भी तो यही है। आखिर जो बिकता है वही दिखता है। फिर टी. आर. पी. का सवाल भी तो है। मगर दर्शक भी होशियार हो गया है और ताली पीट खूब मजे ले रहा। उसे पता है कि ५० फीसदी मार्क तो किसी को नहीं मिलने वाला।  मगर चुनावी गणित में  ३० फीसद से भी टॉप किया जा सकता है। परीक्षा का समय आ गया है।  पूरे साल पढाई न करने वाले विद्यार्थी कि तरह नेता भी दिन रात एक कर रहे हैं। मगर अन्धों में काना राजा कौन ? देखना दिलचस्प होगा। इस बार जनता सब कुछ देख, सुन और समझ रही है। और अपने वोट से कहेगी कि बहुत हो चुका ……कोरे वादे अब और नहीं.......... । 


मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

मरती हुई संवेदनाएं

डा . विजय प्रताप सिंह   
फोटो साभार ebv.blogspot.in

बात तक़रीबन पचीस साल पुरानी है। तपती गर्मी का महीना। मैं अपने एक और परिचित के साथ एक रिश्तेदार के यहाँ जाने के लिए घर से निकला था। अपने गाँव से टैम्पो में सवार होकर बस्ती बस अड्डे पंहुचा। जहाँ से बस पकड़ कर दुबौलिया (राम जानकी मार्ग पर एक छोटा सा क़स्बा ! एक मान्यता के अनुसार १४ वर्ष के वनवास होने पर श्री राम, सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या छोड़ इसी तरफ से वन को गए थे ) तक की लगभग ४० किलोमीटर की यात्रा तय करनी थी। हम बस का इंतजार करने लगे। बस आई। पूरी तरह से बस रुकती उससे पहले ही बहुत सारे लोग उस में सवार होने और जल्द से जल्द अपने लिए एक अदद सीट पाने के लिए बस के साथ-साथ दौड़ने लगे।  मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा था। क्योंकि  दूसरी बस ३-४ घंटे बाद ही मिलती। उन दिनों परिवहन व्यवस्था अच्छी नहीं थी। आज भी बहुत अच्छी है, ऐसा नहीं कह सकते। फिर भी बदलाव तो आया ही है। खैर ! लोग सीट पाने के लिए उतरने वाली सवारी से धक्का मुक्की करते बस में घुसने का प्रयास कर रहे थे।  मैंने बस की एक तरफ की खिड़की से अपनी रुमाल सीट पर गिरा कर दो सीट का तत्काल रिजर्वेसन कर लिया था। यह एक नायाब तरीका है।  किसी भी पैसेंजेर ट्रेन या बस में भीड़ के कारण अन्दर घुस कर सीट हथियाने में असमर्थता महसूस कर रहे हैं, तो आप खिड़की से ही सीट पर  अपनी रुमाल, टोपी, हैण्ड बैग या कोई और वस्तु जो ज्यादा कीमती न हो (अन्यथा गायब हो सकती है) डाल कर सीट पक्की कर सकते हैं। जिनको सीट मिल गई थी वो चहरे पर विजयी भाव लिए बैठ गए। और कुछ लोग खड़े-खड़े यात्रा करने को मजबूर  थे।

फोटो साभार facenfacts.com 
बस चलने ही वाली थी कि एक २०-२५ साल की गर्भवती महिला जो एडवांस स्टेज में थी अपने छोटे भाई जिसकी उम्र ८-९ साल रही होगी के साथ बस में सवार हुई। शायद शहर के किसी हस्पताल में चेकअप करवाने के लिए आई रही होगी (यह मेरा अनुमान है). अब बस चल चुकी थी।  हमारी बगल वाली तीन लोगों की सीट पर तीन अधेड़ उम्र की महिलाएं बैठी हुई थीं । तीन की सीट पर तीन महिलाएं। उस गर्भवती महिला ने उन महिलाओं से थोड़ा खिसक कर उसे बैठने की जगह देने के लिए कहा। पहले तो उन महिलाओं ने ऐसा जताया जैसे कुछ सुना ही न हो। मगर फिरसे दुबारा पूछने पर कह दिया की जगह कहाँ है? हलांकि तीन की सीट पर यदि थोड़ा सा एडजस्ट किया जाए तो चार लोग आराम से बैठ सकते हैं। मैं इस पूरी घटना को ध्यान से देख रहा था। मुझसे रहा नहीं गया। मै उठा और अपनी सीट पर उस महिला को बिठा दिया। उस गर्भवती महिला ने थोड़ा सा आगे खिसकते हुए मुझे भी बैठ जाने के लिए कहा। मैंने सीट के बगल में अपना सूटकेस लगा दिया और दो लोगों की सीट पर हम तीन लोग बैठ गये।

फोटो साभार blogs.reuters.com
कभी कभी कुछ घटनाएँ अंतस मन में कहीं गहरे पैठ कर जाती हैं। ऐसा ही इस घटना से मेरे साथ हुआ। मैं पूरे रास्ते सोंचता रहा। कि एक महिला जो सायद खुद भी उस अवस्था से गुजरी होगी, एक गर्भवती  महिला के प्रति इतनी असंवेदनशील कैसे हो सकती है। लेकिन प्रत्यक्ष को किसी प्रमाण की क्या जरूरत।  अभी कुछ दिन पहले एक वाकया सुन कर २५ साल पुरानी यह घटना एक बार फिर किसी चलचित्र की तरह मेरे आँखों के सामने उभर आई। हुआ यह कि मेरी एक महिला सहकर्मी दिल्ली मेट्रो में महिलाओं के लिए आरछित कोच में सफ़र कर रही थीं। पूरी बोगी खचाखच भरी हुई। उसी बोगी में एक गर्भवती महिला लटकते हुए हुक के सहारे खड़ी थी। शायद वह अपने मन में यह सोंच रही होगी की काश कोई अपनी सीट से उठ कर उसे बैठने के लिए कह दे। मगर ऐसा हुआ नहीं। और उसके पास अपने गर्भ में पल रहे बच्चे के साथ खड़े-खड़े यात्रा करने के सिवाय कोई चारा नहीं था।  हो सकता है की वह अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को कह रही हो कि तुम धरती पर आने के बाद इतने असंवेदनशील मत बनना।  जिससे तुम्हारे कारण तुम्हारी मां की तरह किसी और मां को ऐसे अनुभव से गुजरना पड़े।

फोटो साभार navbharattimes.indiatimes.com
दिल्ली मेट्रो का एक और वाकया मुझे याद आ रहा है। एक १६-१७ साल की लड़की महिलाओं के लिए आरछित सीट पर बैठी अपने कानों में इअरफोन लागाए मोबाइल से गाने सुन रही थी। और ठीक उसके सामने एक ५०-५५ साल की महिला खड़ी थी। आखिर उस सीट की जरुरत किसे ज्यादा थी ? मैं सोचता रहा.…। हम इतने असंवेदनशील क्यों हो गये ? दोष किसका है ? सवाल बहुत सारे। पर जबाब कोई नहीं।  हो सकता है की अगर महिला कोच में कुछ सीटें गर्भवती महिलाओं के लिए आरछित होतीं तो उस महिला को सीट मिल जाती। लेकिन यदि ऐसी महिलाओं की संख्या कोच में आरछित  सीटों से ज्यादा हुई तो क्या होगा ? वैसे तो कुछ जगह लिखा होता है की यह सीट उसे दें जिसे इसकी ज्यादा जरूरत हो। मगर उसके लिए हमें संवेदनशील होने की जरूरत है।  परन्तु हमारे अन्दर की मानवीयता और संवेदना दुबारा न पैदा किये जा सकने वाले संसाधनों (Nonrenewable Resources) की तरह बड़ी तेजी से समाप्त होती जा रही है। और हम चाह कर भी हर जरूरतमंद के लिए चीजें आरछित तो नहीं ही कर सकते।

जहाँ इस पुरुष प्रधान समाज में आधी आबादी आये दिन उनके साथ घर के अन्दर और बाहर होने वाले दुर्वव्हार एवं बलात्कार जैसी घटनाओं से दो चार हो रही हों वहां नारी का नारी के प्रति यह असंवेदना समस्या को और गंभीर बना देती है। क्या हम सभी इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं ? हमें सोंचना होगा। क्या हमने अपने बच्चों को वह संस्कार देने का प्रयास किया है? जो उन्हें किसी बुजुर्ग, असहाय या जरूरतमंद की सहायता करने के लिए अपना  हाथ बढ़ाने का अंतरबोध पैदा करा सके। जरुरत एक संवेदनशील समाज निर्माण की है। जिसकी शुरुआत हमें खुद से और अपने परिवार से ही करनी होगी। और अगर हम यह कर सके तो फिर किसी बुजुर्ग, विकलाँग  या गर्भवती महिला के लिए सीटों के आरक्षण की जरुरत नहीं होगी।

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

दूल्हा मैट्रिक फेल

डा. विजय प्रताप सिंह 

(वैसे तो कविता गागर में सागर होती है। परन्तु कभी-कभी मंच से पढ़ी जाने वाली ब्यंग रचनाओं को श्रोताओं के मनोरंजन हेतु खीच कर थोडा लम्बा कर दिया जाता है। १९९२ में लिखी मेरी यह हास्य व्यंग रचना कुछ ऐसी ही है)  


फेल होने के हैं बड़े फायदे। 
यह कहते हैं समाज के कानून और कायदे
यही सोंच ! 
मैं मंदिर जा रहा था..और फेल होने के लिए ईश्वर को मना रहा था  
लौट कर घर आया, तो पिता जी को नाराज पाया 
पहुंचते ही मेरे गाल पर एक चाटा जमाया
और बोले नालायक !
नालायक ! मैट्रिक में तीसरी बार फेल आया है
मैंने कहा लड्डू खाइए…यही तो मैंने ईस्वर से मनाया है  
क्यों की इससे समाज को कई फायदे हैं
सबसे पहले नौकरी के आवेदनों में कमी आएगी 
पढ़े लिखे बेरोजगारों की लाइन थोड़ी छोटी हो जाएगी 
समाज में दूसरी समस्या दहेज़ की आती है 
जो मेरे फेल होने से शाल्ब हो जाती है 
मैं मैट्रिक फेल हूँ …. यह सोंच कर आप शर्मायेंगे 
और मेरी शादी में दहेज़ नहीं मांग पाएंगे 
उलटे घूस (दहेज़) देकर मेरी शादी करवाएंगे 
खैर !
मेरे मित्रों ने भी रंग दिखाया है 
और मुझे अनपढ़ यूनियन का लीडर बनाया है
हम 
पढ़े लिखे दहेज़ खोरों के खिलाफ आवाज उठाएंगे 
लड़कियों से इनका बहिष्कार करवाएँगे 
और सभी एम्प्ल्वाएड लड़कियों की शादी  
बिना दहेज़ मैट्रिक फेल से करवाएंगे 
जिसे देख कर… सब के सब फेल होना चाहेंगे 
और अगर …दुर्भाग्य से पास हो गए 
तो घूस देकर 
फर्जी फेल का सर्टिफिकेट बनवायेंगे !
इस तरह से नारी प्रधान समाज आएगा 
पत्नी कमाएगी और पति खायेगा 
तब नारी को पति की चिता पर बिठाया नहीं जायेगा 
दहेज़ के लिए जिन्दा जलाया नहीं जायेगा  
क्योंकि यह समाज उसी की कमाई खाएगा 
अरे सोंचते क्या हो 
यह अनपढ़ यूनियन का खेल है 
ग्यारवीं सदी से इक्कीसवी सदी का मेल है 
क्यों की 
दूल्हा मैट्रिक फेल है।

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

एक सुबह झंडेवाला पार्क में

डा. विजय प्रताप सिंह 

मुख्य द्वार, झंडेवाला पार्क, अमीनाबाद, लखनऊ  

२९ सितम्बर २०१३। जगह झंडेवाला पार्क, अमीनाबाद, लखनऊ। मैं सुबह की सैर के लिए कैसरबाग कोतवाली, अपने भाई साहब के घर से निकल कर झंडेवाला पार्क की तरफ चल पड़ा। सुबह-सुबह  रास्ते में जाते हुए सड़क के दोनों तरफ फैली गन्दगी से रूबरू होना अच्छा नहीं लगा। घर से सोंच कर निकला था की पार्क में पहुंच कर थोड़ी देर बैठूँगा। जाते हुए रास्ते में  एक रिक्से वाले से पूंछा। झंडेवाला पार्क किधर है ? उसने इसारा किया, सामने ही तो है।  पार्क के चारो तरफ लगी हुई अस्थाई दुकानों के कारण पता नहीं चला की मैं पार्क के सामने खड़ा था।  अब मैं पार्क के मुख्य द्वार पर था। पार्क के अन्दर घुस कर नजर घुमाई तो थोड़ी देर के लिए मैं हतप्रभ खड़ा रह गया। सोचने लगा इस एतिहासिक पार्क की यह दुर्दशा। 

यह वही पार्क है जहां पर स्वतंत्रता सेनानियों ने १९२८ में पहली बार तिरंगा फहराया था। जिसके क़ारण इसका नाम झंडेवाला पार्क पड़ा।  इस घटना के बाद ब्रितानी हुकूमत ने आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए तिरंगा फहराने या लेकर चलने पर पाबन्दी लगा दी। पाबन्दी के बिरोध में सन १९३५ में महान स्वतंत्रता सेनानी गुलाब सिंह लोधी हाथ में तिरंगा लेकर इसी पार्क के एक पेड़ पर चढ़ गए। जिस कारण उन्हें एक अंग्रेज पुलिस अफसर ने वहीं पर गोलियों से भून दिया। इस "आजादी के तीर्थ" (वहां पर लगे एक शिलालेख  पर खुदा हुआ) झंडेवाला पार्क की मिट्टी जो कभी गुलाब सिंह लोधी जैसे भारत माँ के सपूत के खून से रंग गई थी, आज, असामाजिक तत्वों एवं नशा  करने वालों  की तीर्थ स्थली बन गई है।  सरकार और समाज !  दोनों की इस एतिहासिक महत्व के पार्क  के रख रखाव के प्रति ऐसी उदासीनता ! आखिर क्यों ? सोंचता रहा।

झंडेवाला पार्क, जो आजादी के पहले और आजादी के बाद भी न जाने कितनी ऐसी सभाओं का  प्रत्यछ गवाह रहा जिसे महात्मा गाँधी, पंडित जवाहर लाल नेहरु सरीखे नताओं ने संबोधित की थी।  आज बेबस, लाचार अपनी बदहाली के लिए किसे कोस रहा होगा…पता नहीं।  पार्क के अन्दर चारो ओर गन्दगी पसरी हुई। पार्क में घुसते ही नाक बंद करने को जी चाहता। इसी गन्दगी के बीच जहां-तहां सोए हुए लोग।  जिनके पास रात गुजारने के लिए इससे अच्छी जगह (?) सायद दूसरी नहीं।

न चाहते हुए भी मैं पार्क में काफी देर तक टहलता रहा। देखता रहा पार्क में लगी मूर्तियां एवं शिलान्यास के पत्थरों पर उकेरे हुए नामों को।  पार्क के एक किनारे पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा । अनावरण १२ जनवरी २००३ को भारतीय जनता पार्टी की तत्कालीन सरकार में आवास, नगर विकास  एवं गरीबी उन्मूलन मंत्री श्री लाल जी टंडन के कर कमलों द्वारा। वहीं एक दुसरे किनारे पर हाथ में तिरंगा लिए स्वतंत्रता सेनानी गुलाब सिंह लोधी की प्रतिमा । जिसका अनावारण २३ अगस्त २००४ को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव द्वारा शहरी विकास मंत्रालय सहित पांच बिभागों के मंत्री श्री आजम खान की मौजूदगी में हुआ । संयोग से आज २०१३ में भी शहरी विकास मंत्रालय आजम खान जी के पास ही है।

लेकिन हमारे राजनेता एवं मंत्री गण  के पास उनके ही हाथों अनावरित मूर्ति स्थलों की दुर्दशा देखने के लिए दुबारा आने का समय कहाँ है ? उन्हें सांप्रदायिक दंगों पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से फुर्सत मिले तब न। वह चाहे मुरादाबाद हो, गोधरा या भागलपुर । १९८४ हो या २००२।  फेहरिस्त बहुत लाम्बी है।

नेता किसी भी पार्टी, जाति या धर्म का हो सत्ता के लिए कुछ भी करने को सदैव तत्पर। इन्हें सत्ता की सीढ़ी चढ़ने के लिए आम जनता की लाशों पर से गुजर जाने में भी कोई गुरेज नहीं। आखिर १२४ करोड़ के देश में सौ-पांच सौ लोग नहीं भी रहे तो क्या फर्क पड़ता है ?  आम आदमी वैसे भी तो मरता ही है।  कभी भूख से।  अभी कर्ज न चुका पाने के कारण । कभी नकली दवाइयों से। कभी बिना दवाई के। कभी जहरीले शराब से। कभी तपती जेठ में रिक्शा खीचते। कभी माघ की शर्दी में नंगे बदन। आखिर आम आदमी जो ठहरा।

एक और दिलचस्प बात। जिसकी कहानी  संगमरमर की पट्टिकाओं पर खुदी तारीख और नाम खुद ब खुद बयां कर रहे थे । एक पट्टिका पर- स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण दिनांक "१२ जनवरी २००३"। उसी पट्टिका के बगल में दूसरी पट्टिका- प्रतिमा का जीर्णोधार पार्षद द्वारा दिनांक "१ जनवरी  २०१३"। और २९ सितम्बर २०१३ की सुबह मेरे द्वारा लिए गए छाया चित्र  में ९ महीने पहले जिस मूर्ति का जीर्णोधार हुआ उसका टुटा हुआ एक हिस्सा अपनी कहानी खुद ही कह रहा है । मैं सोचने लगा ठीक १० वर्षों में ही जीर्णोधार की नौबत क्यों आ गई ? जीर्णोधार के ९ महीने बाद फिर जीर्णोधार की जरुरत। आखिर क्यों ? सोंचता रहा.………। और वापस लौटते हुए मुड़-मुड़ कर देखता रहा उस अमर शहीद की प्रतिमा को जो हाथ में तिरंगा लिए खड़ा था उस "आजादी के तीर्थ " "झंडेवाला" पार्क में।



जीर्णोधार के ९ महीने बाद २९ सितम्बर २०१३ को लिया गया छाया चित्र  
झंडेवाला पार्क में सोते हुए लोग 

झंडेवाला पार्क- आसमान के नीचे आशियाना 
























रविवार, 15 सितंबर 2013

खोता बचपन


उज्जैन, मध्य प्रदेश के एक गाँव में लिया गया फोटो 

बचपन  कि  यादें ! …वो कागज की कश्ती .....वो बारिश का पानी .…बागों में फिरना….मछली पकड़ना….गलती पे झापड़ खा कर सुबकना…. वो बचपन की यादें…वो छुटपन की यादें ! 

काश वो बचपन के दिन हम दुबारा जी पाते। जीवन के सबसे सुनहरे दिन। न कोई फ़िक्र न ही किसी चीज की कोई परवाह । मेरा बचपन मेरे गाँव "देवरिया माफ़ी" में बीता। जो बस्ती शहर से १४ किलोमीटर पूर्व  की तरफ ग्रांट ट्रंक रोड के दोनों तरफ बसा हुआ है। ग्रांट ट्रंक रोड! दक्षिण एसिया का सबसे पुराना और सबसे लम्बा सड़क मार्ग। जो चिटगांव ( आज के बांग्लादेश ) से होता हुआ हावड़ा (पश्चिम बंगाल ), पेशावर (आज के पाकिस्तान )  से काबुल, अफगानिस्तान को एक मार्ग से जोड़ता था। पहले इसे  "उत्तर पथ" या  शाह राह -ए - आजम (ग्रेट रोड ) या सड़क-ए -आजम (बादशाही सड़क ) नाम से भी जाना जाता था।

यह सड़क मार्ग मौर्य काल में बना। बाद में शेर शाह सूरी ने अपने शासन काल में इसे ठीक करवाया।"ढोरिका" (बस्ती शहर के नजदीक) जाने की तैयारी करने लगा था।  हवाई अड्डे का काम चालू हो चुका था। हवाई पट्टी बनकर तैयार भी हो गई। एक बार पूरी तरह से हवाई अड्डा तैयार होने पर सारे गाँव वालों को वहां से विस्थापित होना था। इस दौरान केवल एक बार हवाई जहाज ने मेरे गाँव पर बनी हवाई पट्टी को छुआ। लेकिन १९४५ में द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने पर हवाई अड्डे का काम रोक दिया गया। हजारों की संख्या में आये अंग्रेजी सैनिंक वापस चले गए। और मेरा गाँव विस्थापित होने से बच गया।
और अंग्रेजों द्वारा सन १८३३ से १८६० के बीच इस सड़क मार्ग को दुबारा से ठीक करवाया गया। मेरे गाँव के पास से गुजरते इस एतिहासिक सड़क के उत्तर में थोड़े ही दूरी पर रेल लाइन गुजरती है। सन १९३९ में द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने पर अंग्रेजी शासन ने मेरे गाँव के पास सैनिक हवाई अड्डा बनाने का निर्णय लिया। जिस कारण से हमारा परिवार एक और पुस्तैनी गाँव

उस समय के अंग्रेजों के बहुत से किस्से बुजुर्ग लोग सुनते हैं। गाँव के सड़क के दूसरे तरफ एक प्राचीन शिव मंदिर है। लोग बताते हैं कि हवाई अड्डा बनते समय अंग्रेजों ने इसे भी हटाने की कोशिस की। लेकिन मंदिर को हटाते समय वहां पर काम देख रहे अंग्रेजी इंजीनियरों में से कुछ को वहां से निकले काले रंग के भौरों ने काट लिया। एवं कुछ अन्य कारणों से मंदिर को हटाने का अपना इरादा अंग्रेजों ने बदल दिया। आज भी वह मंदिर और मंदिर से सटा सदियों पुराना पीपल का पेड़ जो उन सारी घटनाओं का साक्षात् गवाह रहा है, तन कर उसी जगह पर खड़ा है। काश हम उस पीपल के पेड़ से वार्तालाप कर पाते। तो न जाने कितनी और घटनाओं का लेखा जोखा मिल जाता । लेकिन पेड़ और आदमी में  संवाद कहाँ संभव है।  पर शायद आने वाले समय में ऐसी किसी तकनीकी का इजाद हो जब हम इन पेड़ पौधों की कथा एवं  ब्यथा को जान सकें।  परन्तु मुझ में इतना इंतजार करने का धैर्य नहीं था।  और मैंने इस पीपल के पेड़ से अपनी वार्तालाप एक कविता "मंदिर का पीपल" के माध्यम से करने की कोशिश की। जिसके बारे में फिर कभी लिखूंगा।

मेले में बिकता गुल्लक 
ऐसे गाँव में बीता मेरा बचपन।  मुझे याद आता है की कैसे हम इस गावं के मंदिर पर लगने वाले शिवरात्रि के मेले में जाने के लिए पैसे इकठ्ठा करते थे।  फिर मेले के दिन घर वालों से पैसे मांगना और थोड़ा ज्यादा मिलने पर होने वाली ख़ुशी अब केवल बीती हुई यादें भर हैं। हम मेले से मिटटी के गुल्लक जरुर खरीदते थे।  और फिर उसे किसी सेठ की तिजोरी की तरह संभाल कर रखते। मगर शायद ही कभी मेरी गुल्लक को एक रूपये से ज्यादा के सिक्के या नोट को अपने अन्दर छुपा कर रखने का सौभाग्य मिला हो।  बेचारी गुल्लक। जब गुल्लक चिल्लर से ही इतनी  संतुष्ट हो तो नोट से क्या लेना देना। 

जब मैं चौथी या पांचवी कक्षा में था तो मेरे बड़े भाई साहब मुझे चार आने (पच्चीस पैसे) जेब खर्च के लिए रोज दिया करते थे। मैं उसमें से २० पैसे का "कचालू" (पतले कटे हुए उबले आलू में नमक, भुनी  हुई धनिया और लाल मिर्च पावडर डाल कर इमली के पानी से खट्टा किया हुआ जो महुए के पत्ते पर मिलता था) मैं रोज खाया करता था। एक दिन खुल्ले पैसे नहीं होने के कारण भाई साहब ने मुझे एक रुपये का सिक्का इस हिदायत के साथ दिया की मैं ४ दिन तक पैसे नहीं मांगूंगा। उस एक रुपये को पाने की ख़ुशी आज मेरे किसी भी बैंक बैलेंस से शायद ही मुझे मिले।  और आज वही एक रूपया अपना वजूद खो चुका है। रिज़र्व बैंक ने भी एक रुपये के नोट को लेन  देन की प्रक्रिया से बहार का रास्ता दिखा दिया है।       

मोबाईल फ़ोन पर गेम खेलता बच्चा
गाँव में हम मनोरंजन के लिए बहुत से खेल खेला करते थे। और शायद ही कोई ऐसा खेल होता जिसे हम घर के अन्दर खेल पाते। जेठ की तपती धूप हो या कड़-कड़ाती  सर्दी। खेलने के लिए घर से बाहर जाना जरुरी होता। वह भी घरवालों से छुपते छुपाते। ये खेल शायद बच्चों ने अपनी उम्र एवं परिवेष के अनुसार कभी खुद ही इजाद किये होंगे।  हम गाँव में ज्यादातर गुल्ली- डंडा, लखनी- लखना, लंगड़ी, सिस्तौल, कन्चा, लट्टू नचाना, कबड्डी, छुपा-छुपाई, बाघा गोटी आदि खेल खेला करते थे । सावन के महीने में पेड़ों पर रस्सी और लकड़ी के पटरे से बने झूले पर झूला झुलना एक अलग ही अनुभव हुआ करता था।  मगर आज शहरों में रहने वाले बच्चे शायद ही इन खेलों से वाकिफ हो। आज के बदलते हुए परिवेश और तकनिकी ने बच्चों के बचपन को कुछ ज्यादा ही यांत्रिक बना दिया है। एक कमरे में कैद टेलीविजन पर कार्टून या मोबाइल गेम खेलने में मशगूल। मेरी एक भांजी जो नोएडा में रहती है। उसका साढ़े तीन साल का बेटा स्मार्ट फ़ोन पर गेम डाउन लोड कर खेलता है और पसंद न आने पर उसे अनइंस्टाल  भी कर देता है। आज बच्चे तकनीकी ज्ञान में कहीं आगे हैं।

जिस उम्र में हम गाँव की गलियों में बेफिक्र घुमते धमा-चौकड़ी करते थे, आज उस उम्र के बच्चे जो स्कूल जाने में सक्षम हैं, उनके कंधे स्कूली बस्ते के बोझ से झुके जा रहे हैं। और जिन बच्चों को स्कूल नसीब नहीं हो रहा (हलां कि सभी के लिए शिक्षा का अधिकार कानून लागू है ) उनके कंधे सड़क पर कचरा बीनते, जूता पालिश करते या किसी चाय की दुकान पर काम करते हुए पेट भरने के बोझ से झुक गए हैं। 

खुद से बनाई गई गाड़ी चलाते बच्चे 
जहाँ किताबी ज्ञान बच्चों को कुछ बनने (?) के लिए गला काट प्रतिस्पर्धा में सफलता दिला रहे  हैं। वहीँ इसकी कीमत बच्चों को अपना बचपन खो कर चुकाना पड़  रहा है।  बच्चों के लिए क्या जरूरी है यह बहस का विषय हो सकता है। परन्तु इतना तो सही है की इसने बच्चों के चहुमुखी विकाश को तो अवरुद्ध किया ही है।

संयुक्त परिवार में रहते हुए पले-बढ़े बच्चे जहाँ दादा-दादी,चाचा-चाची, फुआ-फूफा, भईया-भाभी, दीदी और न जाने कितने चचेरे, ममेरे, जाने-अनजाने रिश्तों की डोर से अपने आप को जुड़ा  हुआ महसूस करते थे। वहीँ बच्चों में अपनी किसी भी वस्तु (खाने पीने की , खेलने की या पहनने की ) घर के दूसरे बच्चों के साथ बाँटने या साझा करने की प्रवृति का अंकुरण अपने आप ही हो जाया करता था। परन्तु आज बढ़ते हुए एकाकी परिवार के चलते बच्चों में  नैतिकता, सामाजिक संवेदना एवं रिश्तों की समझ कहीं खोती जा रही है। जरा सोंचिये ! जिस घर  में केवल एक बेटी या बेटा हो वह बच्चा भाई बहन के रिश्ते को कैसे महसूस कर सकेगा। संयुक्त परिवार में रहते हुए  यह समस्या काफी हद तक अपने आप ही सुलझ जाती थी।  यहाँ मैं विषय से थोड़ा हट कर एक संकेत करना चाह रहा हूँ। यदि महिलाओं के साथ हो रही बलात्कार की घटनाओं में लिप्त लोगों का अध्ययन किया जाये तो मुझे लगता है की ऐसे लोगो की तादाद शायद ज्यादा होगी जिनकी कोई बहन नहीं होगी (यहाँ मैं सिर्फ अपना विचार व्यक्त कर रहा हूँ ऐसा हो जरूरी नहीं है ).     

चलिए फिर से बचपन पर लौटते हैं। हम गर्मियों की दुपहरी ज्यादातर आम के बाग में पेड़ से आम तोड़ते और खाते हुए बिताते थे। घर लौटने पर कितनी भी डांट पड़े पर दूसरे दिन फिर वही दिनचर्या। मैंने एक बार मेले से बहुत सारे रंग बिरंगे कन्चे खरीदे।  जिसमें से काले रंग  पर दूधिया निशान वाले कन्चे मुझे बहुत पसंद थे। मै इन्हें एक पोटली में रखता था।  एक दिन मेरे एक बड़े भाई साहब ने मुझे कन्चा खेलते हुए देख लिया और मेरे सारे कन्चे पोटली सहित कुँए में फेंक दी।  मैं बहुत उदास हुआ। और इसके बाद कभी कन्चा नहीं खेला।


सूरजकुंड मेले में बाइस्कोप
डमरू बजाता हुआ मदारी वाला, बन्दर और भालू नाचने वाला या बाइस्कोप वाला जैसे ही गाँव में आता सारे बच्चे इकठ्ठा हो जाते।  खेल देखने के बाद उसे सभी कुछ न कुछ अनाज ला कर दे देते। खेल देखने के लिए कोई टिकट नहीं लगता। खेल देखने के बाद किसी ने कुछ नहीं भी दिया तो कोई बात नहीं। मुझे बाइस्कोप देखना अच्छा लगता था। हम बाइस्कोप के डिब्बे से आँख लगा कर बैठ जाते और बाइस्कोप वाला अपने हाथ से एक हैंडल के सहारे चरखी को घुमाता और बाइस्कोप के ऊपर बने एक छेद से देखते हुए आने वाले हर चित्र के बारे में अपनी बनाइ पैरोड़ी को सुनाता। बाइस्कोप में चल रहे चित्रों में दिल्ली का कुतुब मीनार, आगरे का ताजमहल, बम्बई शहर, झाँसी की रानी , महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु आदि के बारे में जानकारी के साथ मनोरंजन करता। और हम उन रंगीन चित्रों को देखते किसी दूसरी दुनिया की सैर कर रहे होते। पिछले साल मैं कुछ दोस्तों के साथ सूरजकुंड (दिल्ली के पास) मेले में गया वहां पर मुझे एक बाईस्कोप वाला दिखा।  जिसे देख कर मेरी पुरानी  यादें   ताजा हो गईं। लेकिन मैंने उस दिन बाइस्कोप नहीं देखी। पर आज यह ब्लॉग लिखते समय सोंच रहा हूँ की काश उस दिन देखा होता तो पता चलता की क्या बाइस्कोप के पात्र आज भी वही हैं या समय के साथ वह भी  बदल गये। 

हम एक और काम कभी कभी मनोरंजन के लिए किया करते थे।  गाँव के पास रेलवे लाइन पर जा कर ट्रेन आने का इंतजार करते। और जैसे ही दूर से ट्रेन आती दिखती हम ५ या १० पैसे का सिक्का रेल पटरी पर रख कर दूर हट जाते।  ट्रेन गुजर जाने के बाद हम उस पैसे को ढूढ़ते जो वहीँ कहीं गिरा हुआ या पटरी पर चिपका हुआ मिल जाता।  पैसे के ऊपर से ट्रेन गुजर जाने के कारण शिक्का चिपटा हो कर फ़ैल जाता। हम उसे हाथ में लेकर यह सोचते यह और बड़ा क्यों नहीं हुआ। और फिर पैसा चिपटा करने की प्रक्रिया को कभी कभार दुहराते। आज सोंचता हूँ तो ऐसा करने के पीछे के जिज्ञासु मन का कोई तर्क समझ में नहीं आता। फिर भी मैंने अपने "कचालू" के कुछ पैसे इस खेल में ख़राब जरूर किये।

मुझे एक पुराना वाकया याद आ रहा  है। मैं अपने एक मित्र के साथ चंडीगढ़ से इंडियन साइंस कांग्रेस में  भाग लेकर ट्रेन से वापस उज्जैन जा रहा था। बोगी में एक ८-९ साल का बालक जनवरी महीने की ठण्ड में अपनी शर्ट उतार कर उसे झाड़ू की तरह इस्तेमाल कर फर्श पर पड़े कचरे को इकठ्ठा  रहा था। मैं हमेशा से ट्रेन में यात्रा के दौरान झाड़ू लगाने वाले इन बच्चों को बड़े ध्यान से देखता था। इसी के चलते मैंने यह जाना की ये बच्चे इक्कट्ठा किये गए कचरे को पूरी तरह बोगी से नीचे नहीं  गिराते। बल्कि उसका एक हिस्सा दरवाजे के पीछे या दो बोगिओं के बीच की जगह में लगा देते हैं।  जिससे बोगी में कचरा न होने पर कोई दूसरा लड़का उसी कचरे को निकाल कर यात्रियों से कुछ पाने की आस में एक तरफ से दूसरी  तरफ ले जाता  और फिर दरवाजे के पीछे लगा देता। मुझे यह एक दूसरे के लिए कमाई के  संसाधन  को सुरछित रखने का नायाब उदाहरण लगा।


थोड़ी देर बाद वह लड़का अपनी शर्ट से झाड़ू लगाता हुआ मेरी सीट के पास आ गया । और मुझसे कुछ पैसे देने के लिए कहा। मैंने उसे इकठ्ठा किये गए कचरे को ट्रेन से नीचे गिराकर आने पर पांच रुपये देने की बात कही। यह वही कचरा था जिसे हम और आप शायद ही कभी अपने ड्राईंग रूम में फेंकते।  लेकिन यह तो ठहरी भारतीय रेल, एक सार्वजनिक संपत्ति ।  हमें तो अगले स्टेशन पर उतर जाना है।  सफाई का जिम्मा तो रेलवे का है। की मानसिकता के चलते हमने इकठ्ठा किया था। मुझे अपने पूर्व राष्ट्रपति ड़ा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी का एक लेख याद आ रहा है जिसे उन्होंने राष्ट्रपति बनने से पहले लिखा था। की कैसे एक ब्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से सिंगापुर , न्यूयार्क, सिडनी या टोक्यो पहुंचता है तो चाकलेट या अन्य कोई चीज खाने  के लिए उसके ऊपर से हटाये गए कागज या प्लास्टिक को कैसे वह कूड़े दान न दिखने पर अपने बैग में कहीं रख लेता है।  लेकिन वही ब्यक्ति वापस लौट कर दिल्ली हवाई अड्डे से बहार निकलते ही ऐसी चीजें सड़क पर फेंकना चालू कर देता है। समझ नहीं आता हम सभी सार्वजनिक जगह को कूड़ेदान क्यों मान लेते हैं।  काश हम अपनी  इस सोंच में थोड़ा बदलाव ला पाते।

खैर ! कुछ मिनटों बाद वह झाड़ू लगाने वाला लड़का वापस मेरे पास आया। मैंने पूछा कचरा गिरा दिया? उसने हाँ में जबाब दिया। मैंने उसे चलकर दिखाने को कहा और उसके साथ दरवाजे के पास निरीक्षण करने  पहुँच गया। देखा तो कचरे का कुछ हिस्सा उसने दरवाजे के पीछे लगा रखा था।  मेरे कहने पर वह अनमने मन  से उसे नीचे गिरा दिया। मै अपनी सीट पर आ गया।  वह भी मेरी सामने वाली सीट पर आकर बैठ गया। मैंने उसे कहे  के मुताबिक ५ रुपये दे दिए। फिर उसने एक बात कही जिसने मुझे बहुत कुछ सोंचने पर मजबूर किया। उसने बड़े ही मासूमियत से कहा की सर " उस कचरे को बोगी से नीचे फिकवा कर आज आपने कई बच्चों के पेट पर लात मार दी"। यह सुन कर मैं हतप्रभ था। मैंने उसे अपने बगल में बिठा कर उसके परिवार के बारे में जानने की कोशिश की। उसने बताया की  उसका बाप दारू पीता था जो मर गया।  माँ झोपड़ पट्टी में रहती है और कुछ घरों में काम करती है। मैंने उसके पढ़ाई के बारे में पूछा।  उसने कहा की वह पढ़ना चाहता है।  लेकिन माँ कहती है की कुछ कमा कर ला। इसलिए वह यह काम करता है। 

मैंने उससे पूछा गिनती आती है। बोला नहीं आती। तभी मैंने अपनी जेब में पड़े कुछ सिक्के निकले। और उसमें से एक रुपये का सिक्का उसे  देते हुए पूछा यह कितना रूपया है।  उसने कहा एक रूपया ।  मैंने एक और सिक्का दिया।  उसने कहा दो रूपया। इस तरह वह १० तक की गिनती  बड़े आराम से कर लिया। मैंने उसे वह १० रुपये भी दे दिए। और कहा की तुम्हें तो गिनती आती है।  यह सुनकर उसके चेहरे पर उभरी मुस्कान और आत्मबिस्वास आज भी मेरे नज़रों के सामने उसका चेहरा उकेर देती है।

अगला स्टेशन आने तक वह मेरे साथ रहा। मैंने उसे एक नोटबुक पर ५० तक की गिनती और हिंदी की वर्णमाला लिख  कर दिया।  जब तक वह मेरे साथ रहा अंको को  लिखने का प्रयास करता रह।  फिर अगले स्टेशन पर  ट्रेन रुकी और वह उतर गया। ट्रेन कुछ देर तक रुकी रही और मैं खिड़की से उसे देखता  रहा। उसके जैसे कुछ और बच्चे जो उसी ट्रेन से उतरे थे। उसके हाथ में नोट बुक और पेन देख कर उसके पास आ गए।  और वह उन्हें अपने द्वारा नोट बुक में लिखे गए अंकों को बड़े ही उत्सुकता से दिखा रहा था। फिर ट्रेन आगे बढ़ गई और मै  रास्ते भर उसी के बारे में सोंचता रहा।

वापस उज्जैन (तब मैं विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से पी.एच.डी. कर रहा था ) पहुँच कर मैंने ऐसे बच्चों को पढ़ाने का एक प्लान बनाया। कुछ किताबें, नोटबुक और पेन्सिल खरीद कर अपने यात्रा करने वाले बैग में रख लिया। सोंचा कि जब भी मैं ट्रेन में सफर करूंगा तो ऐसे कुछ बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करूँगा और यह पाठ्य सामग्री उन्हें दूंगा। पर ऐसा कर पाने में मैं असफल रहा। क्यों की उसके बाद मैंने कई ऐसे बच्चों के साथ यात्रा के दौरान पढाई के बारे में बात की। लेकिन सभी ने दो टूक जबाब दिया। कुछ देना है तो दो नहीं तो टाइम क्यूँ ख़राब करते हो साहब ।  शायद उनकी बात सच भी थी । एक दिन पढ़ाई की बात करने से क्या होगा ? उसे तो उस दिन के खाने का इंतजाम करना है। आज सोंचता हूँ क्या सभी के लिए शिक्षा के कानून में इन बच्चों के लिए कोई जगह है ? या कोई ऐसा जरिया जो इनके खोते हुए बचपन को लौटा सके। 

मैंने ४ जून १९९७ को एक ऐसे ही बच्चे को सुल्तानपुर, (उत्तर प्रदेश ) रेलवे स्टेशन पर हमारे द्वारा फेंके गए कचरे में अपनी भूख मिटाने  का सामान ढूढता देख कर "तलाश" शीर्षक से यह कविता लिखी। 


जिसे देख कर यह कविता लिखी 

तलाश 

कुछ भी नहीं है 
जिंदगी में
जीने लायक  
फिर भी 
वह भटक रहा है 
वस्त्र हीन 
दुर्बल काया के साथ 
इधर उधर 
कचरे के ढेर में 
कुछ तलाशता 
शायद 
जिंदगी 
जो 
सिमट गई है 
पेट भर रोटी तक 
फिर भी 
अधूरी ही रही 
तलाश 
आज भी 
कल की तरह 
और 
कल
फिर 
वह निकल पड़ेगा 
अपने 
बारह साल 
बूढ़े 
कंधे पर 
मैला बैग लिए 
जेठ की
तपिस को चीरता  
अंजान 
जिंदगी की 
तलाश में।