शनिवार, 5 अप्रैल 2014

मॉस्ट्रिच, मैं और पाँच दिन (भाग-२)

डॉ. विजय प्रताप सिंह

मॉस्ट्रिच, नीदरलैंड जाने के लिए मिलने वाले मौके के कारण मुझे मेरा एक और सपना साकार होता दिख रहा था। लेकिन कहते हैं कि समय से पहले और किस्मत से ज्यादा कुछ नहीं मिलता। कुछ ऐसा ही हुआ था मेरे साथ। दरसल में १९९८ में मैंने जर्मनी जाकर शोध कार्य करने के लिए मिलने वाली एक फेलोशिप (DAAD Fellowship) के लिए साक्षात्कार दिया था। परन्तु सफल नहीं हो सका। इस फ़ेलोशिप के लिए आवेदन तभी कर सकते हैं जब आपको जर्मनी के किसी वैज्ञानिक द्वारा अपनी प्रयोगशाला में शोध कार्य करने एवं मार्गदर्शन देने सम्बंधी अनुमति पत्र मिला हो। जिस हेतु मैंने जर्मनी के कई शोध संस्थानों में शोध कर रहे वैज्ञानिकों को अपने शोध के बारे में लिखा था। अंततः मेरे प्रोजेक्ट प्रपोजल को स्वीकार करते हुए इस आसय का पत्र मैक्सप्लैंक इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेरेस्ट्रियल माइक्रोबॉयोलॉजीमारबर्ग, के प्रोफेसर राल्फ कॉनराड ने दिया। परन्तु फ़ेलोशिप न मिलने के कारण उनके साथ कार्य नहीं कर सका।

अब एक बार फिर मैंने चार साल बाद प्रो. कॉनराड से अपनी मॉस्ट्रिच यात्रा के दौरान आकर मिलने कि इछा जाहिर कि। जिसे उन्हों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। मैंने दो दिन वहाँ पर रुकने का प्लान बनाया। प्रो. कॉनराड कि विनम्रता ही थी कि उन्हों ने मुझे खुद मारबर्ग स्टेशन पर लेने आने कि बात कही। फिर कुछ दिनों बाद उनका मेल आया जिसमे उस दिन उनके संसथान में हो रहे एक सेमिनार में ब्यस्त होने के कारण अपनी सेक्रेटरी का फोन नंबर दिया जो मुझे स्टेशन से संस्थान ले जातीं। साथ में मुझे उस सेमिनार में भाग लेने का आमंत्रण भी दिया। सब कुछ तय हो चुका था। परन्तु राम चरित मानस में तुलसीदास जी ने सही ही लिखा है "होइ हैं सोई जो राम रचि राखा"। 
  
 मैंने नीदरलैंड जाने हेतु दिल्ली आकर वीज़ा के लिए आवेदन किया। अमूमन कम से कम १५ दिन का वीजा मिलता है और "शेंगेन वीजा" के तहत आप यूरोपियन यूनियन के किसी भी देश में जा सकते हैं। परन्तु नीदरलैंड उच्चायोग ने मुझे केवल ५ दिन का वीजा दिया। जब मैंने इस आसय में उनसे बात कि तो मुझे ५०० डालर खरीद कर पासपोर्ट में एंट्री करवाने कि बात कही। जो मेरे लिए यात्रा के दो दिन पहले सम्भव नहीं था। अब प्रो. कॉनराड की लैब में नहीं जा पाने के कारण मेरी मॉस्ट्रिच जाने कि ख़ुशी कम हो गई थी। मैंने उज्जैन पहुँच कर प्रो. कॉनराड को वीज़ा के कारण नहीं आ पाने का मेल लिखा। यह वैसे ही था जैसे प्यास में तड़पता आदमी पानी पीने से मना कर रहा हो ।

खैर कर भी क्या सकता था। चलिए फिर से मॉस्ट्रिच चलते हैं। २२ जनवरी २००२। सुबह होटल में नाश्ता करने के लिए पहुँचा। चूँकि ब्रेकफास्ट होटल  के कमरे के साथ ही बुक था इसलिए मैं नाश्ता जम कर करता था। हॉलैंड में दूध से बने उत्पादों  की बहुलता रहती है। नास्ते कि टेबल पर मेरे बगल में बैठे एक सज्जन उबले अंडे खा रहे थे। लेकिन मुझे रेस्टोरेंट में कहीं पर अंडे रखे हुए दिख नहीं रहे थे। मैं अण्डों कि  तलाश में नास्ते कि सामग्री से सजी टेबल के पास गया परन्तु अंडा कहीं दिखा नहीं। तब मेरी नजर वहीँ एक किनारे मुर्गे के पुतले पर पड़ी। जब  पुतला उठाया तो उसके नीचे रखी टोकरी में अंडे रखे थे। मैंने अंडे को प्लेट में रखते हुए सोचने लगा कि बेचारा मुर्गा भी अंडे कि खैर नहीं मना पाया। वैसे खाने के मामले में यूरोप में एक कहावत है। कि नाश्ता अकेले करना चाहिए…दोपहर का खाना दोस्त के साथ बाँट कर खाना चाहिए और रात का खाना दुश्मन को दे देना चाहिए। मतलब नास्ता सबसे तगड़ा और रात का खाना सबसे कम लेकिन सायद हम लोग इसका उल्टा करते हैं।

दिनभर अलग-अलग व्याख्यानों को सुनने में ब्यस्त रहा। आयोजकों ने डिनर का इंतजाम बेल्जियम में किया था। वैसे यह यूरोप में ही हो सकता है कि डिनर करने के लिए किसी दूसरे देश में जाया जा सके। हम तक़रीबन ४५ मिनट में हॉलैंड से बेल्जियम पहुँच गए। शहर का नाम मुझे याद नहीं आ रहा। हम ६ भारतीय  रेस्तरां में कोने कि एक टेबल पर बैठ गए। डिनर था "फोर कोर्स मेन्यू विथ वाइन"। वाइन परोसा जा रहा था। वेटर बड़े सलीके से वाइन कि बोतल को सफ़ेद रुमाल से पकड़े हुए हमारी ग्लास में डाल रही थी। तभी पराशर जी ने उसे अपने पास बुलाया और पूरी बोतल रखवा लिया। फिर शुरु हो गया खाने और पीने का दौर। जो तक़रीबन चार घंटे तक चलता रहा।

इसी दौरान एक अमेरिकी संस्थान में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर काम करने वाले बैज्ञानिक डॉ. मोजिएर हम लोगों के पास आकर बैठ गए। मेरा पहले से इनके साथ पत्र ब्यवहार था। मैंने इन्हे अपनी पी.एच.डी. थिसिस जिसे मैं साथ में ले गया था दिखाई। मुझे अपने रिसर्च में गर्मी के दिनों में शुष्क पतझड़ी जँगलों (Dry Desiduous Forest) में नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन कि जगह पर अवशोषण का ट्रेंड मिला था। जो कि उन परिस्थितयों में नहीं होना चाहिए। मैंने इस सम्बंध में रूस, जर्मनी और अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों को ईमेल से अपने शोध रिजल्ट भेजे और उनसे इस बारे में जानने कि कोशिश कि। यह मेरे लिए ख़ुशी कि बात थी कि सभी ने मेरे ईमेल का जबाब दिया और बताया कि उन्हें भी इस तरह के रिजल्ट मिलते हैं। परन्तु कारणों के बारे में ठीक से कुछ ज्ञात नहीं है । एक रुसी वैज्ञानिक ने मुझे लिखा कि यदि इस बारे में आपके आगे के शोध में कुछ पता चलता है तो मुझसे अवश्य साझा करें।

  लेखक, डॉ. मोजिएर एवं डॉ.पराशर
मैं डॉ. मोजिएर से इस सम्बंद में आगे किस तरह से शोध कार्य करना चाहिए हेतु चर्चा करता रहा। इस सम्बन्ध में उन्होंने मुझे एक्सपेरिमेंट  करने कि रूपरेखा समझाई। बाद में डॉ. मोजिएर ने इससे सम्बंधित कुछ शोधपत्र और प्रयोग के लिए सुझाव भी मुझे भेजे। जिस आधार पर मैंने एक रिसर्च प्रोजेक्ट बना कर पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप हेतु डिपार्टमेंट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (डी.एस.टी.), नई दिल्ली में अप्लाई किया। परन्तु मुझे फ़ेलोशिप नहीं मिली और मैं उस काम को आगे नहीं बढ़ा सका जिसे दिल से करना चाहता था। जैसा कि अमूमन हमारे देश में होता है। हम करना कुछ चाहते हैं और रोजी रोटी के लिए करने कुछ और लगते हैं।

एक और वाकया जिसका जिक्र मैं यहाँ करना चाहूंगा। मैं अपने पोस्ट डॉक्टोरल फ़ेलोशिप का प्रपोजल बनाने से पहले डी.एस.टी. गया। जहाँ मेरी मुलाकात एक सम्बंधित वैज्ञानिक से हुई। उन्हों ने मुझसे एक बात पूछी। कि आप ने जब हाईस्कूल पास किया, इंटर मीडिएट किया, बी.एस.सी, किया तो कैसा लगा ? सवाल मुझे समझ नहीं आया। मैंने कहा सॉरी सर मैंने कुछ समझा नहीं। तब उन्हों ने समझाया। कहा कि जब कोई स्टुडेंट हाई स्कूल पास करता है तो सोंचता है कि वह विज्ञानं, गणित, इतिहास, भूगोल आदि विषय में बहुत कुछ जनता है। जब वह इंटर मीडिएट करता है तो समझ में आता है कि सायद मैं पहले कुछ कम जनता था। इसी तरह से जैसे-जैसे वाह आगे कि पढाई करता है उसे पता चलता है कि वह उस विषय के बारे में बहुत कम जानता था। जब आप किसी विषय में एम.एस.सी. करते हैं तब पता चलता हैं कि उस विषय के बारे में पहले कितना कम जानते थे। यानि जैसे-जैसे हम ज्ञान अर्जित करते जाते हैं हमें हमारी अज्ञानता से परिचय होता है। बात मुझे अच्छी लगी…।

डिनर कि टेबल पर दूसरा कोर्स परोसा जा चुका था और मेरा इस तरह के डिनर का यह पहला अनुभव था। डॉ. पराशर जी मुझ पर आज कुछ ज्यादा ही मेहरबान थे। जैसे ही मेरा वाइन का ग्लास खाली होता वो दुबारा से उसे भर देते। अंत में मैंने वाइन ग्लास में छोड़ दिया। पराशर जी ने कहा ख़तम क्यों नहीं कर रहे हो। मैंने कहा सॉरी सर ! अब नहीं पी सकता। उन्होंने कहा ठीक है। अब हम लोग "फोर कोर्स विथ वाइन" का पूरा आनंद उठा चुके थे और चलने के लिए तैयार थे। तभी पराशर जी बोले। विजय ! मैंने कहा जी सर ! उन्होंने कहा तुम्हारा प्रेजेंटेशन कल है न ! मैंने कहा जी !  उन्हों ने कहा यदि तुम इसे (मेरे ग्लास में बची हुई वाइन) ख़तम कर दोगे तो कल तुम्हारा प्रेजेंटेशन अच्छा होगा। नहीं तो मैं कुछ कह नहीं सकता। मैं उनकी इच्छा समझ चुका था और अब मेरे सामने उसे पीने के आलावा कोई चारा नहीं था। मैं उसे वैसे ही गटक गया जैसे कोई छोटा बच्चा कुछ और पाने कि लालच में दूध का गिलास एक साँस में खाली कर देता है।

कांफ्रेंस समाप्त हो चुका था। रात को मैं टहलता हुआ मॉस् नदी पर बने एक पुल पर जो मेरे होटल के पास ही था आ गया। दूसरे दिन सुबह वापस जाना था इसलिए मैं ज्यादा से ज्यादा उस जगह को  फील करने और उन  अनुभवों को यादों में समेटने कि कोशिश  कर रहा था। चाँदनी रात में शहर को दो भागों में बांटती बहती हुई मॉस नदी। नदी के दोनों किनारों के साथ-साथ चलता हुआ शहर और उसकी रंग बिरंगी रोशनी का नदी में प्रतिबिम्ब एक अलग छठा बिखेर रही थी। मैं देर रात तक यूँ ही चहल कदमी करता उस चांदनी रात के सौंदर्य में खोया रहा। होटल आकर सोया तो कब सपनों में खो गया पता नहीं चला। सुबह तक़रीबन साढ़े चार बजे फ़ोन पर लगे अलार्म ने मेरी तंत्रा को भंग किया।

अब मैं मॉस्ट्रिच से अॅामस्ट्रेडम एअरपोर्ट पहुँच चुका था। जहाँ से मुझे फ्रैंकफ़र्ट होते हुए मुंबई आना था। अॅामस्ट्रेडम एअरपोर्ट  पर इमिग्रेशन अधिकारी मेरा पासपोर्ट चेक करते-करते मेरी तरफ मुखातिव होते हुए बोला "हैप्पी बर्थ डे  मिस्टर सिंह" और मेरी तरफ से कोइ प्रतिक्रिया न मिलने पर अधिकारी ने फिर से कहा "मिस्टर सिंह ! वेरी हैप्पी बर्थ डे" तब माजरा मेरी समझ में आया और मैंने उस अधिकारी के प्रति कृतज्ञता ब्यक्त करते हुए हाथ मिलाया। दरसल में आज पहली बार किसी ने मेरे "लीगल डेट आफ़ बर्थ" पर मुझे जन्म दिन कि बधाई दी थी। उस दिन २४ जनवरी था जो कि मेरे जन्म तारीख के रूप में मेरे पासपोर्ट पर अंकित है। अब मैं हर २४ जनवरी को अपने आप को जन्म दिन कि बधाई जरूर देता हूँ और उस अधिकारी कि प्रजेंस ऑफ़ माइंड को याद करता हूँ। मुझे लगता है कि मेरी तरह ज्यादातर भारतियों का एक लीगल जन्म दिन जरूर होता है। सायद इसी कारण से भारत में ब्रिटिश हाईकमीशन द्वारा मगायें जाने वाले वाले नौकरी के आवेदन पत्र में जन्म तिथि के लिए दो कालम  होता है। एक में लिखा होता है "डेट ऑफ़ बर्थ एक्चुअल: ……" और दूसरे में "डेट ऑफ़ बर्थ ऑन सर्टिफिकेट : .........."। यानि भारतियों के लीगल जन्म दिन के चर्चे दूर तक हैं।

अॅामस्ट्रेडम से मुंबई कि फ्लाइट तक़रीबन दो घंटे बाद थी। मैं एक सोफे पर जा कर बैठ गया। तभी एक सरदार लड़का जो मेरी ही उम्र का रहा होगा मेरे पास आकर बैठ गया। मुझे भारतीय देख कर हिंदी में बात करने लगा। कुछ देर बाद उसने मुझसे पूछा कि आप वापस इंडिया जा रहे हैं। मैंने कहा हाँ मैं यहाँ कांफ्रेंस में आया था आज वापस जा रहा हूँ। फिर उसने पूछा कि आप इंडिया में जॉब करते हैं। मैंने कहा नहीं मैं अभी पढाई कर रहा हूँ। फिर उसने अपने ज्ञान कि गठरी खोलनी चालू कि और सलाह देना शुरू किया…। बोला कि जब आप के पास इंडिया में नौकरी नहों है तो वापस क्यों जा रहे हैं ? लोग तो यहाँ एंट्री करने के लिए जुगाड़ करते हैं ! और आप यहाँ से वापस जा रहे हैं। यहाँ पर कुछ भी काम कर सकते हो। मैं एक अच्छे श्रोता कि तरह उसकी बहुत सारी बातें सुनता रहा। फिर मैंने उससे पूछा। आप क्या करते हैं ? उसने बताया कि वह वहाँ होटल में काम करता है और अभी जर्मनी जा रहा है। वह होटल में क्या करता है यह जानने कि मुझमे कोई उत्सुकता नहीं थी। इसलिये मैंने कोई और प्रश्न नहीं किया। परन्तु वह मुझे ऐसे देख रहा था जैसे उसके सामने कितना बड़ा मूर्ख ब्याक्ति बैठा हो जो इंडिया में नौकरी न होते हुए भी यूरोप आकर वापस जा रहा है।

अब मेरी फ्लाइट का समय होने वाला था और मैंने भी उस भले मानुष से पीछा छुड़ाते हुए सारी यादों को संजोए तैयारे में सवार होने के लिए आगे बढ़ गया.……।