बुधवार, 25 दिसंबर 2013

"सतपुड़ा की रानी" और "मनीराम"


     डॉ. विजय प्रताप सिंह





मार्च २००९ ! मैं अपने एक मित्र की शादी में पिपरिया, मध्य प्रदेश, गया। शादी में शरीक होने के साथ दो और उद्देश्य था। एक तो पचमढ़ी  घूमना और दूसरा मनीराम से मुलाकात। पिपरिया, पचमढ़ी पहुँचने  के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है।

पचमढ़ी का नाम यहाँ मौजूद पाँच गुफाओं के कारण पड़ा। ऐसा माना जाता है कि महाभारत में वर्णित पांच पांडवों ने अपने अज्ञातवाश के समय रहने के लिए ऊँची पहाड़ी पर इन गुफाओं को बनाया था।      

१८५७ में अंग्रेजी सेना में कैप्टेन जेम्स फोर्सिथ कि अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ झाँसी कि तरफ जाते समय इस पहाड़ी पर नजर पड़ी । बाद में यहाँ के खुशनुमा मौसम के कारण इसे एक हिल स्टेशन और अंग्रेजी सैनिकों के हेल्थ रिसोर्ट के रूप में बिकसित किया गया। पंचमढ़ी को अंग्रेजों ने "सेंट्रल प्रोविंस" (आज का मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़  और महाराष्ट्र) जिसकी राजधानी नागपुर थी की गर्मियों कि राजधानी (Summer Capital) बनायी।

मैं अपने मित्र कि शादी में शरीक होने  के बाद दूसरे दिन पचमढ़ी घूमने के लिए निकल गया। पचमढ़ी ! जिसे "सतपुड़ा कि रानी" भी कहा जाता है। एक शांत, बेहद मनोरम एवं जैव विविधता वाला क्षेत्र है । सतपुड़ा क्षेत्र गुजरात के पूर्वी भाग में अरब सागर  के किनारे से होता हुआ महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के बॉर्डर से पूर्व में छत्तीसगढ़ तक लगभग ९०० कि.मी. तक फैला हुआ है । पचमढ़ी को इसकी प्रचुर जैविक विविधाताओं के कारण यूनेस्को द्वारा मई २००९ में "बायोस्फियर रिज़र्व" घोषित किया गया।


मुझे जंगल और ऐतिहासिक महत्व वाली जगह हमेसा से आकर्षित करती रही हैं । बाद में बनस्पति शास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण हरी भरी वादियों में पेड़ पौधों के बीच रहना और उनके बारे में जानने कि जिज्ञासा और बलवती हुई। मैं पूरा दिन पचमढ़ी कि वादियों में घूमता रहा। पेड़ पौधों के अलावा प्रकृति द्वारा स्व निर्मित  शिल्प जिसमें कहीं भारत का नक्सा दिखाई देता, कहीं जंगल का राजा शेर पहाड़ी से छलांग लगाने को तैयार तो कहीं सुन्दर नर्तकी का चेहरा। बस देखने के लिए नजर चाहिए। रामचरित मानस में तुलसी दास ने सही ही लिखा है "जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी" .

अब मैं यहाँ के मशहूर जल प्रपात जिसे B Fall के नाम से जाना जाता है के पास एक पत्थर पर बैठ गया। चारो तरफ से विविध प्रजाति वाले पेड़ पौधों कि शीतल छावं में गिरते हुए प्रपात के बूंदो की  नमी समेटे हुए हवा का स्पर्श देर तक पैदल चलने की  थकान को काफूर करने के लिए काफी था। यहाँ कि प्रकृति के स्पर्स का अनुभव मैं शब्दों में बयां करने में अपने आप को असमर्थ पा रहा हूँ।

जैसा कि हम जानते हैं कि सभी पौधों में कुछ न कुछ औषधीय गुण होता है। और यहाँ की  अपार जैव बिविधता का एक बड़ा हिस्सा यहाँ पर पाई जाने वाली बहुत सी जड़ी बूटियों एवं  औषधीय पौधों का है ।  जिस हवा में इन औषधीय एवं दूसरे पौधों का स्पर्श एवं फूलों कि सुगंध घुली हो उस हवा के बीच में रहना और उसे सांसों में भरना अपने आप में एक चिकित्सा है। सायद यहाँ कि इसी विषेशता के चलते अंग्रेजों ने अपने बीमार सैनिकों के लिए हेल्थ रिसोर्ट यहाँ पर बनाया था।

परन्तु मुझे यह देख कर दुःख हुआ कि यहाँ पर आने वाले पर्यटक अपने पीछे जो "प्लास्टिक फुट प्रिंट" छोड़ जाते हैं वह किस तरह से इसकी सुंदरता कि चादर में पैबंद लगा रहे हैं। मुझे अंडमान द्वीप समूह  के "जॉली बॉय" द्वीप पर प्लास्टिक फुट प्रिंट कम करने के लिए पर्यटन विभाग का एक प्रयोग काफी अच्छा लगा। इस द्वीप पर जाने वाले सभी पर्यटकों को साथ में ले जा रहे पानी या कोल्ड ड्रिंक्स कि बोतलों के लिए प्रति बोतल १०० रु. जमा करा कर रशीद लेनी होती है। जो लौटकर खाली बॉटल दिखाने पर  वापस कर दिया जाता है।

पचमढ़ी घूमने के बाद मैं मनीराम से मिलने के लिए निकल गया। मनीराम पंचमढ़ी के फारेस्ट चौकी में सुरक्षा गार्ड के तौर पर पिछले कई दशकों से कार्यरत हैं। परन्तु शायद ही ऐसा कोई बनस्पति शास्त्र पढ़ने या पढ़ाने वाला हो, जो कभी पचमढ़ी बायोस्फियर रिज़र्व में शैक्षणिक टूर या रिसर्च के लिए गया हो और मनीराम से प्रभावित न हुआ हो। कारण ! मनीराम कि एक विलक्षण छमता है । मनीराम, जिसने शायद मैट्रिक की भी पढाई पूरी नहीं कि है । इस पूरे बायोस्फियर रिज़र्व में पाये जाने वाले सभी पेड़ पौधों के बैज्ञानिक नाम (Botanical Name) और उनकी फैमिली बिना दिमाग पर जोर डाले बता सकते हैं। इनके इसी विलक्षण छमता के लिए भारतीय प्रबंध संस्थान (Indian Institute of Forest Management), भोपाल द्वारा १२ जुलाई १९९९ को इन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान में दिए गए प्रशस्ति पत्र के अनुसार -

मनीराम को मिला प्रशस्ति पत्र 
" मनीराम, पचमढ़ी, जिला होशंगाबाद, म. प्र. के निवासी हैं तथा ये पौधों के ज्ञान के सम्बन्ध में एक जीते जाते शब्द कोष माने जाते हैं। वर्गीकरण विज्ञान कि औपचारिक शिक्षा न होते हुए भी , इन्हे पादप वर्गीकरण विज्ञान का गहन ज्ञान है। वनस्पति विज्ञान एवं वानिकी के छात्र एवं शोध कर्ता प्रति वर्ष पूरे भारत से आकर आप के अद्वितीय पादप ज्ञान से लाभ प्राप्त करते रहे हैं। वास्तव में पचमढ़ी में श्री मनीराम से मिले बिना उनका शैक्षणिक भ्रमण अधूरा रहता है। आप का पादप वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में योगदान सम्माननीय है। इनके द्वारा पादप वर्गीकरण विज्ञान में अद्वितीय योगदान हेतु यह प्रशस्ति पत्र अंतर्राष्ट्रीय सामुदायिक वानिकी केन्द्र के उद्घाटन अवसर पर प्रदान किया गया "

मनीराम के साथ लेखक 
यह जान कर कि मैं उनसे ही मिलने के लिए यहाँ पर आया हूँ। वो थोड़े भावुक हो उठे। फिर हम काफी देर तक बातें करते रहे। उन्होंने यह प्रशस्ति पत्र जो वहीँ पर एक कमरे में टंगा था दिखाया। जहाँ बनस्पति शास्त्र का विद्यार्थी होते हुए भी मुझे पेड़-पौधों का वैज्ञानिक नाम (अधिकतर नाम लैटिन भाषा से लिए गए हैं ) याद् रखना सबसे कठिन लगता था। वहीँ मनीराम जी को सब जबानी याद है। मैंने मनीराम से पूछा कि आपने यह सब सीखा कैसे। तो बड़ी ही मासूमिया से बोले कि "आप सभी लोगों से ही सीखा है".  मनीराम ने बताया कि, मैं अपनी रूचि के चलते घने जंगल में दूर नई जगह और नए पौधों के बारे में जानने के लिए जाया करता था। बहुत से विद्यार्थी शैक्षणिक भ्रमण पर यहाँ आते थे। जिन्हें जंगल में घुमाते हुए मुझे पता चला कि सभी पौधों का एक अलग नाम होता है जिसे Botanical Name कहा जाता है। बस, मैं भ्रमण पर आने वाले शिक्षकों और छात्रों से सीखने लगा। और जब भी जंगल में जाता तो पौधों को उन्हीं नामों से सम्बोधित करता। बस इसी तरह यह सब सीख गया। अब मनीराम को पचमढ़ी बायोस्फियर रिज़र्व के लगभग सभी पेड़ पौधों के साइंटिफिक नाम याद हैं। मनीराम से विदा लेते समय मैं सोचता रहा कि अगर मन में लगन और दॄढ़ इछा शक्ति हो तो असम्भव कुछ भी नहीं।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

काला पानी

डॉ. विजय प्रताप सिंह

सेलुलर जेल, पोर्टब्लेयर, अंडमान 

सन १७७८। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मरीन सर्वयेर लेफ्टिनेंट आर्चिबाल्ड ब्लेयर को एक ऐसी उपयुक्त जगह ढ़ूढ़ने का काम सौंपा जहाँ कैदियों को भेज कर उनसे मजदूरी कराइ जा सके। जिसकी खोज में लेफ्टिनेंट ब्लेयर अपने जहाज "द वाइपर" से अंदमान द्वीप पंहुचा। 

अंडमान ! मनोरम द्वीपों का समूह। एक किंबदंती के अनुसार अंडमान द्वीप समूह का नाम रामायण में वर्णित प्रतापी बानर हनुमान के नाम पर "हंडुमान" पड़ा। जो बाद में "अंडमान" हुआ। मगर अंग्रेजों ने इसे एक नयी पहचान दी। और यह पहचान थी "काले  पानी कि सजा" दी जाने वाली जगह। "काला पानी"। जहाँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के वीर सपूतों पर जुल्म और अत्याचार कि सबसे काली इबारत लिखी गई। 
मुख्य गेट, सेलुलर जेल 

अंग्रेजों ने १७८९ में पहली बार अंडमान के दक्षिण पूर्व में चट्टम द्वीप पर कैदियों को रखने के लिए कालोनी   (Penal Colony) बसाई। और आर्चिबाल्ड ब्लेयर के सम्मान में जगह का नाम रखा पोर्टब्लेयर। दो साल बाद इस कॉलोनी को ग्रेट अंडमान के उत्तर-पूरब  में स्थान्तरित कर दिया। और एडमिरल विलियम कार्नवैलिस के नाम पर नाम दिया पोर्ट कॉर्नवैलीस। परन्तु विपरीत  मौसम एवं बीमारियों से होने वाली मौतों  के चलते मई १७९६ में सरकार ने इसे बंद कर दिया। बाद में इस जगह का इस्तेमाल   १८२४ में प्रथम एंग्लो-बर्मीस युद्ध के लिए जाने वाले सैनिकों के जहाजी बेड़ों के अड्डे  के रूप में किया गया।


जिस लकड़ी की बल्ली से शेर अली को
फांसी पर लटकाया गया 
फिर दशकों तक अंडमान शांत रहा। लेकिन अंग्रेज यहाँ कैदियों के लिए कालोनी बसाने का प्रयास बराबर करते रहे। इसी दौरान भारत का "प्रथम स्वतंत्रता संग्राम" ! यानि १८५७ कि क्रांति हुई। इस क्रांति के कारण बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजी हुकूमत द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। देश में कैदियों कि संख्या काफी बढ़ गई थी। इसी को ध्यान में रख कर अंग्रेजी हुकूमत ने नवम्बर १८५७ में अंडमान के "वाईपर द्वीप" (लेफ्टिनेंट ब्लेयर के जहाज द वाईपर के नाम पर)  पर कैदियों को रखने कि योजना बनाई। और १० मार्च १८५८ को डॉ. जे. पी. वाल्केर जिन्हे यहाँ का पहला सुप्रिंटेंडेंट बनाया गया था, २०० कैदियों (ये सभी १८५७ कि क्रांति के हीरो थे) और अपने कर्मचारियों के  जत्थे के साथ  अंडमान पहुँचा। बाद में  सन  १८६४-६७ के बीच लेफ्टिनेंट कर्नल फोर्ड की   देख़ रेख में यहाँ वाईपर जेल का निर्माण  हुआ। जहाँ बहुत से राजनीतिक कैदियों एवं  महिला कैदियों को भी रखा गया। इस जेल में दी जाने वाली अमानवीय सजा के कारण  इसे "वाईपर चेन गैंग जेल" भी कहा जाने लगा। जो कैदी बर्तानिया हुकूमत कि खिलाफत करते उन्हें रात को एक साथ लोहे की चेन जो एक लोहे कि घिर्री के सहारे उनके पैरों के चारो तरफ चलती रहती, से जकड़ दिया जाता।
फाँसी घर, वाइपर आईलैंड 

इसी जेल में राजनैतिक कैदी श्री ब्रिज किशोर सिंह देव (जिन्हे पुरी के महाराजा जगन्नाथ के नाम से जाना जाता था) को एक  आम कैदी जैसा रखा गया। जहाँ १८७९ में उनकी मृत्यु हो गई। शेर अली खान को वाइसराय लार्ड मायो का बध करने के कारण इसी जेल में फांसी दी गई। जिस लकड़ी की बल्ली से कभी शेर अली खान को फांसी पर लटकाया गया था वह आज भी वाइपर द्वीप पर जीर्ण-क्षीर्ण अवस्था में पड़े फांसी घर में उसी तरह मौन है। और हमारी सरकारें भी  मौन। लाखों पर्यटक हर साल यहाँ पर आते हैं। और भारत माँ के वीर सपूतों की दिलेरी को याद कर उन्हें मन ही मन प्रणाम करते हैं। परन्तु लगता है कि यह फांसी घर खुद भी थोड़े दिनों में पूरी तरह से फांसी पर चढ़ जायेगा। अपने राष्ट्रीय धरोहरों के प्रति ऐसी उपेक्षा शायद ही अन्यत्र किसी और देश में देखने को मिले।

सेलुलर जेल का मॉडल 
खैर ! इस द्वीप पर काले पानी का सबसे काला अध्याय लिखा जाना अभी बाकी था। जिसकी शुरुआत हुई सन १८९० में।  जब सी. जे. ल्यॉल और डॉ. ए. एस. लेथब्रिडज की दो सदस्यीय कमेटी ने यहाँ का दौरा करने के बाद कैदियों को कम से कम ६ महीने के लिए एकाकी कोठरियों में रखने का प्रस्ताव दिया। जिसके फल स्वरूप १८९६ में ६९० काल कोठरियों वाली "सेलुलर ज़ेल " कि नीव रखी गई। जो १९०६ में ५,१७,३५२ रू की लागत और कैदियों के हाड़ तोड़ मेहनत से बनकर तैयार हुई। इसे बनाने के लिए ईंटें और दूसरे जरूरी सामान बर्मा (अब म्यांमार) से लाया गया ।  इस स्टार फ़िश की आकर वाली तीन मंजिले जेल के सात विंग और उनके बीचो-बीच सेंट्रल टावर इस तरह से डिज़ाइन किया गया था कि केवल एक संतरी उस टावर से पुरे ज़ेल की निगरानी बड़ी आसानी से कर लेता। सभी विंग के पीछे का हिस्सा दूसरी विंग के सामने होता जिससे एक कैदी कभी भी दूसरे कैदी को देख नहीं पाता। 


वहीँ सेलुलर जेल से थोड़ी ही दूरी पर रॉस आइलैंड। जहाँ अंग्रेजी अफसरों के लिए सभी सुबिधाओं से लैश बस्ती बसाई गई। स्विमिंग पुल, गिरजाघर, बाज़ार, और पानी साफ करने का संयंत्र इंग्लैंड से लाकर लगाया गया। लेकिन अब चर्च के खँडहर और कमिश्नर हॉउस की कुछ दीवारें  जिन्हें पेड़ की जड़ों ने अगर जकड़ न  रखा होता तो शायद पर्यटकों को ये अवशेष भी नहीं दिखते। मगर खंडहर कहते हैं ईमारत बुलंद थी। पर एक जीव जिससे अंग्रेज यहाँ पर हारते रहे वह था "मछर". आखिर एक मछर भी आदमी को……। जिसका सुबूत यहाँ पर कब्र में दफ़न अंग्रेज अफसर और उनके परिवार के लोग हैं।  इनमे से ज्यादातर कि मौत मलेरिया से हुई थी।  
   
जून २००९ कि एक सुबह जब मैंने पहली बार पोर्टब्लेयर कि धरती को छुआ तो उगते सूरज कि पहली किरण के स्पर्श ने रोमांचित कर दिया। हवा में भी एक अलग ताजगी का एहसाश हुआ। सेलुलर जेल के एक कोने में बना फाँसी घर। आज भी ख़ामोशी से सारा मंजर बयां कर देता है। जहाँ एक साथ तीन लोगों को फाँसी दी जाती थी। और कैदियों कि निगरानी के लिए जेल के बीचोबीच बने वाच टावर में लगे घंटे कि आवाज जैसे ही सन्नाटे को चीरता तो दूर लंगर डाले जहाजी समझ जाते कि आज फिर भारत माँ के तीन जांबाजों ने अपनी सहादत दी है। मैं फांसी घर के निचले भाग में थोड़ी देर बैठा सोंचता रहा। कि न जाने कितने वीर सपूतों की अंतिम साँस यहीं पर छूटी होगी। और उनकी इस क़ुरबानी का ज़िक्र शायद ही  इतिहास कि किसी किताब में दर्ज हो।  

जहाँ देश की स्वतंत्रता के लिए न जाने कितने रण बांकुरों ने हँसते-हँसते अपनी जान कि कुर्बानी दे दी थी । वहीं बहुत से स्वतंत्रता सेनानी अंडमान द्वीप पर काले पानी की सज़ा काट रहे थे। इन्ही में से एक थे वीर विनायक दामोदर सावरकर। सावरकर को दो आजीवन कारावास (५० साल) कि सज़ा देकर ४ जुलाई १९११ को सेलुलर जेल भेज दिया गया। जहाँ इनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर एक साल पहले से सज़ा काट रहे थे। लेकिन एक वर्ष तक इस बात का पता गणेश को नहीं चला कि विनायक को भी इसी जेल में लाया गया है। जेलर डेविड बेरी ने जान बूझ कर सावरकर को दूसरी मंजिल पर ठीक फांसी घर के सामने वाले कोठरी में रखा था। २ मई सन १९२१ को महत्मा गाँधी, बिट्ठल भाई पटेल और बाल गंगा धर तिलक द्वारा अंग्रेजी हुकूमत पर दबाव के चलते सावरकर बंधुओं को अंडमान के सेलुलर जेल से वापस रत्नागिरी जेल भेज दिया गया। और अंततः ६ जनवरी १९२४ को इन्हे रिहा कर दिया गया।


बिडंबना है कि इनके प्रति सम्मान प्रकट करने कि जगह पोर्टब्लेयर कि सेलुलर जेल के बाहर वीर सावरकर कि प्रतिमा पर लगी नाम पट्टिका पर उनके नाम से "वीर" शब्द अगस्त २००४ में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री (मणिशंकर अइयर, कांग्रेस) के आदेश से हटा कर नई पट्टिका लगा दी गई। कारण ! उनका सम्बंध आर.एस.एस. से होना था।   

सेलुलर जेल में सजा काट रहे राजनीतिक बंदियों एवं क्रांतिकारियों पर तरह-तरह के अमानवीय अत्याचार किये जाते रहे। कई तरह से जंजीरों में जकड़ कर रखा जाता, धूप में सर के बल  लटकाया जाता, कोल्हू में बैल कि तरह जुत कर नारियल का तेल निकालने पर मजबूर किया जाता। और तेल निकालने का कोटा होता था प्रतिदिन ४० किलो। काम पूरा न होने पर शाम को सजा अलग से। सजा के तौर पर खाना बंद कर दिया जाता। हंटर से पिटाई कि जाती। या काम का कोटा बढ़ा दिया जाता। इसी तरह के जुल्मो सितम यहाँ पर आने वाले सभी कैदियों पर चलता रहा। अमानवीय अत्याचारों से ऊब कर इंदु भूषण रॉय ने १९१२ में जेल में ही आत्म हत्या कर लिया। १९१९ में पंडित राम रक्खा ने अपने जनेऊ कि पवित्रता के लिए भूख हड़ताल करते हुए मृत्यु को गले लगा लिया।  
फाँसी घर का निचला हिस्सा 

सन १९३२ से १९३८ के बीच सबसे ज्यादा राजनीतिक बंदियों एवं क्रांतिकारियों को यहाँ भेजा गया। १९३३ में क्रांतिकारियों ने जेल में भूख हड़ताल कर दिया। जिसे दबाने के लिए जेल प्रशासन द्वारा जबरन नली से खिलाने के दौरान उल्लासकर दत्त, ब्रिंद्रा घोष, महाबीर सिंह, मोहित मैत्रा, मोहन किशोर नामदास कि मृत्यु हो गई। जेल में दूसरा भूख हड़ताल १९३७ में हुआ जिसने पूरे देश को उद्देलित कर दिया। और अंततः जनवरी १९३८ में अंग्रेजी हुकूमत पर ज्यादा दबाव पड़ने के कारण सभी स्वतंत्रता सेनानियों को वापस लाकर देश कि दूसरी जेलों में रखा गया। 

द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर अंग्रेज अंडमान से वापस आ गये। और १९४२ में अंदमान पर जापानियों ने कब्ज़ा कर लिया। फिर शुरू हुआ दिल दहला देने वाले जुल्मो सितम का एक और दौर। लगता जैसे इस द्वीप समूह कि यही नियति बन गई हो। सैकड़ों द्वीप निवासियों को अंग्रेजों का गुप्तचर समझ कर जापानियों द्वारा घोर यातनाएं दी गई। कुछ को गोलियों से भून दिया गया। जापानियों के कब्जे के दौरान एक बार नेताजी सुभाष चन्द्र बोष भी यहाँ पर आये और सेलुलर जेल का मुआयना किया। लेकिंन जापानियों ने उन्हें जेल के उन हिस्सों में नहीं ले गए जहाँ बहुत से नागरिकों को बर्बरता पूर्वक कैद कर रखा था।

इसी दौरान १९४३-४४ में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने जापानियों कि मौजूदगी में पोर्टब्लेयर को आजाद हिन्द सरकार का मुख्यालय बनाया। लेकिन बाद में जापान ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद समर्पण कर दिया। और ७ अक्टूबर १९४५ को अंग्रेजों ने एक बार फिर से अंडमान द्वीप समूह पर अपना अधिकार कर लिया। जापानियों ने इस द्वीप पर बहुत सारे बंकर बनाए। जो आज भी रॉस आइलैंड पर देखे जा सकते हैं। लोगों का मानना है कि आज भी बहुत सारा धन इन बंकरों में छुपा हुआ है। जिसे समर्पण करने के पहले जापानियों ने बंकरों में छुपा दिया था।

जापानी बंकर, रॉस आईलैंड 
फिर १५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हो गया। लेकिन सेलुलर जेल वर्षों तक उपेछित अपनी बदहाली पर आंशू बहाता रहा। इसके दो विंग जापानियों ने तोड़ दिया था और दो विंग आजादी के बाद ढहा दिए गए।  बाद में अंडमान के पूर्व स्वतंत्रता सेनानिओं ने बचे हुए ३ विंग को संग्रक्षित करने के लिए मुहिम चलाई। और आखिर ३२ साल बाद ११ फरवरी १९७९ को  तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरार जी देसाई ने सेलुलर जेल को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में देश समर्पित किया।

पर्यटकों के लिए शाम को जेल  में होने वाला  "लाइट एंड साउंड शो", अतीत की कहानी जेल के अंदर खड़े उस पीपल के पेड़ के माध्यम से बयां करता है जो रोंगटे खड़े कर देने वाले जुल्मो सितम कि हर एक छोटी बड़ी घटनाओं का लेखा जोखा अपने शारीर कि दरारों में संजोए आज भी खड़ा है। परन्तु हमारे स्कूलों कि पाठ्य पुस्तकों में शायद ही ऐसा कोई पाठ है जो आने वाली पीढ़ी को इस निर्जन टापू पर अंग्रेज अफसरों के जुल्मो सितम को सहते हुए भी ब्रितानी हुकूमत की चूलें हिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की वीर गाथा से अवगत करता हो।