शनिवार, 6 सितंबर 2014

कॉलेज में चुनाव

डॉ. विजय प्रताप सिंह 





दिल्ली विश्वविद्यालय एवं जे.एन.यू. में अगले हफ़्ते छात्र संघ के चुनाव सम्पन्न होने वाले हैं। कभी दल गत भावनाओं से ऊपर उठकर होने वाली छात्र रजनीति एक स्वस्थ परम्परा थी जहाँ से निकल कर तमाम युवा नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी  उपस्थिति दर्ज की। परन्तु अब छात्र राजनीति भी दल गत राजनीति की दल-दल में फंसती जा रही है।  खैर कीचड़ में ही कमल खिलता है।

बात  सन १९९१-९२ की है। मैं बनारस के  उदय प्रताप कॉलेज में बी.एस.सी. का छात्र था। उन दिनों उत्तर प्रदेश में छात्र राजनीति काफी मायने रखती थी। मुझे याद है की भूत पूर्व प्रधान मंत्री श्री वी. पी. सिंह अपनी सरकार गिरने के बाद बनारस के बेनिया बाग में एक सभा करने के लिए आये थे और कचहरी के पास सरकारी गेस्ट हॉउस में लालू प्रसाद यादव सहित कुछ नेताओं के साथ रुके थे। हमारे कॉलेज के छात्र नेताओं के साथ तमाम विद्यार्थी वी. पी. सिंह से मिलने गए (वी. पी. सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा उदय प्रताप इण्टर कॉलेज से पाई थी )।  वहां पर लालू प्रसाद यादव की एक टिप्पड़ी से नाराज छात्रों ने लालू की पिटाई कर दी थी। वी. पी. सिंह के बीच बचाव के बाद मामला शांत हुआ। जो दूसरे दिन तस्वीर सहित अख़बारों की सुर्खी बनी "उदय प्रताप कॉलेज के छात्रों द्वारा लालू की पिटाई " । नतीजा कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष ने बेनिया बाग की सभा में वी. पी. सिंह के साथ मंच साझा किया। 

उन दिनों कॉलेज में छात्र संघ का चुनाव एक नया माहौल पैदा कर देता था। सभी छात्र नेता कॉलेज से जुड़ी तमाम समस्याओं को खोद-खोद कर निकालते और अपने भाषण में रेखांकित करते। चुनाव जीतने के बाद समाधान का भरोसा भी। आखिर आज़ादी के बाद से नेता यही तो कर रहे हैं। कोरा आश्वासन। चुनाव के दिन मैं छुट्टी मनाने के मूड में था।  सोचा घर से ६-७  किलोमीटर साइकिल चला कर वोट डालने क्यों जाएँ। तभी मेरे एक मित्र ने घर आकर कॉलेज चलने की बात कही और हम चुनाव का माहौल देखने कॉलेज पहुँच गए। अपने पसंद के उम्मीदवार को वोट भी दिया। लेकिन जब चुनाव का नतीजा आया तो हमें अपने वोट की बहुमूल्य कीमत का पता चला।  हम दोनों ने जिस उम्मीदवार को वोट दिया था वह सिर्फ़ एक वोट के अंतर से जीता था ।

हमारे छात्र संघ अध्यक्ष ने तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह को छात्र संघ के शपथ समारोह के लिए आमंत्रित किया जिसे स्वीकार कर वो समारोह में आये। प्रधानमंत्री के समारोह में आने  का बड़ा फायदा यह हुआ की सालों से कॉलेज के सामने की टूटी फूटी सड़क रातों-रात बन गई।
  
मैंने अपने कॉलेज के दिनों हुए छात्र संघ चुनाव को अपनी नजर से देखने की कोशिश की और तक़रीबन २१ साल पहले चुनाव पर लिखी व्यंग रचना "कॉलेज में चुनाव" साझा कर रहा हूँ।


"कॉलेज में चुनाव"


बसंत की तरह खिल उठता है 
कॉलेज का प्रांगण  
नए सत्र में
नव आगंतुक छात्रों की चहल कदमी के साथ 
फिर ! धीरे-धीरे चढ़ने लगता है
छात्र संघ के चुनाव का बुखार
देखते ही देखते उग जाते हैं तमाम नेता
सफ़ेद मशरूम की तरह
और बरसाती मेढकों की तरह
टर्राते है
पहन कर सफ़ेद कुरता और सलवार
चुनाव के ऐलान के साथ बाढ़ आ जाती है समस्याओं की
और उजागर होते हैं तमाम भ्रष्टाचार
जिसे मिटाने के लिए
नेता
हाथ जोड़े कक्षाओं  में आते हैं
और साथ में आये चमचे बड़े गर्व से फरमाते है
मेरे क्रांतिकारी दोस्तों, भाइयों एवं बहनों
मेरा नेता आप सब को भायेगा
क्योंकि यह प्रशासन से " अनुशासन" को मिटाएगा
मिट्टी का तेल बँटवाएगा
जो आत्मदाह के काम आएगा*
और भी बहुत सी समस्याओं को उठाए
दो चार चुराए हुए शेर भी फरमाए
शेर सुनकर
नेता के विचार मुझे भा गए
मैंने कहा 'कलहंस'**
चल किस्मत आजमाते हैं
नेता बनने के दो चार फॉर्मूले जुगाड़ लाते हैं 
यही सोंच ! एक चमचे को पटाया
जिसने सुविधा शुल्क लेकर
मुझे एक नेता के ड्राइंग रूम तक पहुंचाया
शायद नेता को मेरा कवि ह्रदय भा गया 

जिस कारण आदर सहित बिठा कर
बिना कंसल्टेंसी फीस लिए
नेता बनने का फार्मूला कुछ इस तरह से बताया 
नेता जी बोले !
चनाव लड़ना तो आसान है 
मगर क्या जीत पाओगे 
खैर ! अगर मन बनाया है 
तो मेरी बात मान 
अपनी कविताओं से थोड़ा माहौल बना लो
कॉलेज से  २-४ साइकलें चुरा लो 
जिसे बेच कर बन जायेगा सफ़ेद लिबास
और कुछ पर्चे छपवा लो
यह सुन कर मैं थोड़ा सकपकाया
जिसे भांपते हुए नेता जी ने फ़रमाया
अबे ! साइकिल में ही हाजमा बिगड़  गया
तो नेता क्या खाक बनेगा
मुझे देख !
इस बार "हीरो पुक" पचायी है 
तभी तो कुर्ते को भी ड्रायक्लीन करवाई है 
लेकिन तू नया है… 
सायकिल से ही काम चला ले 
बस बढ़िया सा गुलाबी कार्ड छपवा ले 
यह रंग लड़कियों को बहुत भायेगा 
फिफ्टी परसेंट तू कविता और कार्ड से पा जायेगा 
बाकी की चिंता छोड़ 
इतने से ही तू
बहुमत का नेता बन जायेगा 
लेकिन जल्दी कर
यह मौसम साल में एक ही बार आएगा
मैं भी उठा और सम्मान में सर झुकाया 
बाहर निकलते हुए खुद को समझाया 
'कलहंस' तू अपने जमीर को नहीं मार पायेगा
नेता गिरी  का ख्वाब छोड़ दे
यह महान काम तुझसे न हो पायेगा
अरे जो दिल चुराने में डर गया वो साइकल क्या चुराएगा
बस लगा रह कविताओं के साथ
और 
मैं सोंचता हुआ आगे बढ़ गया…जिसका काम उसी को भाए.... नेता बने जो...


*उन दिनों हॉस्टल में खाना बनाने के लिए मिट्टी के तेल का कोटा मिलता था और मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के कारण कई जगह छात्रों द्वारा  मिट्टी का तेल डाल  कर आत्मदाह की  कोशिशें की गईं  थी। 
**मैं कविता इसी उपनाम से लिखता हूँ 

रविवार, 29 जून 2014

" एक मुठ्ठी बर्फ "

डॉ. विजय प्रताप सिंह 




दिनांक ३० अप्रैल २०१३। सुबह के ४ बजे। लेह जाने के लिए मैं अपने एक सहकर्मी के साथ दिल्ली हवाई अड्डे पहुँचा। लेह ! उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच लद्दाखी भू भाग पर समुद्र तल से ३५०० मी. की ऊँचाई पर बसा हुआ एक मनोरम शहर। तकरीबन ६ महीने तक सड़क मार्ग से पूरी तरह से कटा हुआ बर्फ की चादर में लिपटी एक अलग दुनिया।

हवाई अड्डे  पर  बोर्डिंग  टिकट  लेते  समय देखा  कि आस-पास  बहुत से कामगार मजदूर खड़े थे। मैंने जिज्ञासा वस् बोर्डिंग पास देने वाले कर्मी से पूछा तो पता चला की ये सब ठेकेदार द्वारा काम करने के लिए लेह भेजे जा रहे हैं। पर्यटन का सीजन शुरू होने के पहले कि तैयारी। कुछ मजदूरों से बात करने पर पता चला की उनमें से अधिकतर बिहार और मेरे गृहप्रदेश उत्तर प्रदेश से थे। इसी तरह पहले अँग्रेजों के समय हिंदुस्तान से बहुत से मजदूर दक्षिण अफ़्रीका भेजे जाते थे जिन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था। लेह में कुशल कामगार मजदूरों कि काफी कमी है। जिस कारण से होटलों की मरम्मत, पर्यटकों के लिए अस्थाई कैम्पों के निर्माण जैसे कार्यों के लिए मजदूरों कि काफी जरूरत रहती है।

अब हम तैयारे में सवार हो चुके थे। यह मेरी पहली लेह यात्रा थी। इसलिए मैंने खिड़की के किनारे वाली सीट ले रखी थी ताकि बाहर का नजारा देखा जा सके। लेह पहुचने से १५-२० मिनट पहले खिड़की से दिखने वाला नजारा वाकई अद्भुद था। नीले आसमान के तले सीढ़ी दार नंगे पहाड़ देख कर लगता जैसे आसमान तक पहुंचने के लिए प्रकृति ने सीढ़ियाँ बनाई हों। अब हम लेह  के "कुशोक बकुला रिनपौछे " हवाई अड्डे पर उतर चुके थे। हवाई अड्डा चारो तरफ से बर्फीली पहाड़ी से घिरा हुआ। बाहर निकल कर मै देखता रह गया प्रकृति की कारीगरी को, उस मनोरम छठा को।

अचानक मुझे अगस्त २०१० का वह मंजर याद आ गया जब पूरा लेह बादल फटने से हुई मूसलाधार वारिश और उस कारण से होने वाले भूस्खलन और घरों के गिरने से पूरी तरह से तबाह हो गया था। उस दिन मैं हिन्दुस्तान के सबसे दक्षिणी भूभाग "ग्रेट निकोबार द्वीप" पर था और वहीँ गेस्ट हॉउस में टेलीविजन पर भारत के सबसे उत्तरी छोर पर आई इस तबाही का मंजर देखा था।

लेह ! जहां साल भर में औसत बारिश लगभग १०० मि.मी. होती है और अगस्त के महीने में औसतन १५ मि.मी. (२२ अगस्त  १९३३ को २४ घंटे के  दौरान ५१ मि.मी.) वहीँ ६ अगस्त २०१० की आधी रात के समय पूरे साल में होने वाली बारिश के बराबर वर्षा लेह में आधे घंटे के दौरान हो गई। दरसल में यहाँ पर ज्यादातर घर मिट्टी के बने होते हैं। जो आसमान से बर्षी इस तबाही के कारण मलवे में बदल गए और आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार लगभग २५० लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी।

अगर आप हवाई मार्ग से लेह जाते हैं तो कम से कम दो दिन तक होटल में आराम करने कि जरुरत होती है। जो अधिक ऊंचाई पर आक्सीजन की कमी होने के कारण शारीर को यहाँ कि वायुमंडलीय परिस्थितियों में अनुकूलित (Aclemetise) होने के लिए जरूरी है। मैंने यहाँ आने से २४ घंटे पहले एसिटाजोलामाइड कि एक टेबलेट (Diamox) ले ली थी जो कि कम ऑक्सीजन की उपस्थिति में शरीर को अनुकूलित करने में सहायक होता है। पहले दिन हमने खाने और सोने के सिवाय कुछ नहीं किया। ठण्ड इतनी कि दो रजाई भी पूरी तरह से गर्माहट देने में असमर्थ। शाम को हमने थोड़ी देर शहर देखने का मन बनाया। और अपने एक परिचित मि. नोरबो, जो वहाँ फारेस्ट डिपार्टमेंट में काम करते हैं के साथ टैक्सी में लेह देखने निकल गया।

लेह को मोनेस्ट्रियों का शहर कहना गलत नहीं होगा। मोनेस्ट्री ! यानी बौद्ध धर्म स्थल। सबसे पहले हम थिकसे मोनेस्ट्री गए जो लेह से लगभग २० किलो मीटर दूर १२ मंजिला इमारत, लदाखी वास्तुशिल्प का एक बेजोड़ उदहारण है। यहाँ मुख्य प्रार्थना कक्ष में लगभग १५ मी. ऊँची चटकीले रंगों वाली बुद्ध प्रतिमा देखने लायक है। यहाँ एक जापानी दल बुद्ध प्रतिमा के सामने एकाग्रचित पूरी तरह भजन में लीन था। हम भी उनके साथ बैठ गए। मेरा ध्यान वहां पर रखे एक ट्रे पर पड़ी जिसमे धार्मिक पर्यटकों द्वारा दान की हुई विभिन्न देशों की मुद्रा पड़ी थी। जो बुद्ध की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता को दर्शा रही थी। यहाँ बैठा हुआ मैं खो गया था बुद्ध के स्वरूप में। सोंचता रहा ! बौद्ध धर्म के बारे में जिसका जन्म भारत में हुआ लेकिन उस धर्म को माननेवाले  दूसरे देशों में ज्यादा हैं। "गोली से डर नहीं लगता मगर शांति के प्रतीकों से डर लगता है" शायद यही असली कारण रहा होगा जो की तालिवानियों ने बामयान में हजारों साल पुरानी बौद्ध प्रतिमा को तोड़ दिया था।

यहाँ से हम शांति  स्तूप गए जिसे "द जपनीज़ फॉर वर्ड पीस" नाम की जापानी बौद्ध संस्था ने बनवाया है। यह "शांति स्तूप" लेह के उन जगहों में से एक है जहाँ आने वाले पर्यटकों की तादाद सबसे ज्यादा होती है। यहाँ से हम रैंचो के स्कूल आ गये। जी हाँ "रैंचो" यानी "फुन्सुक वांगडू"। "३ इडियट्स" फिल्म में फिल्माया गया स्कूल। अब यहाँ पर आने वाले पर्यटकों की संख्या को देखते हुए स्कूल की तरफ से एक इनफार्मेशन सेंटर बनाया गया है। जहाँ पर पर्यटकों की एंट्री करने के बाद स्कूल दिखाया जाता है। साथ में ही "रैंचो काफ़ी हाउस" भी खुल गया है।

सेकमोल स्टूडेंट्स 
पर सायद कम लोगों को पता होगा की जिस ब्यक्ति के काम से प्रभावित होकर यह फिल्म बनाई गई थी उनका नाम "सोनम वांगचुक" है और ३ इडियट्स के स्कूल का कॉन्सेप्ट उनके द्वारा चलाए जा रहे एक स्कूल से लिया गया है। जो लेह से तक़रीबन २० कि. मी. दूर "इंडस नदी" के किनारे फेह में है। इंडस नदी, जिसके किनारे पर हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ो (अब पाकिस्तान में) जैसी सभ्यताओं का विकाश हुआ था। फेह में बने इस स्कूल कैंपस को "स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ़ लद्दाख" (SECMOL) के नाम से जाना जाता है। दरसल में यहाँ पर हर साल तक़रीबन ४०-४५ ऐसे बच्चों को एक साल के लिए दाखिला दिया जाता है जो की हाई स्कूल में फेल हुए होते हैं। एडमिशन में प्रथम प्राथमिकता उन विद्यार्थियों को मिलती है जो सबसे ज्यादा विषय में फेल होते हैं। ये बच्चे एक साल तक इस कैंपस में वह सब कुछ  सीखते हैं जो जीवन में सफल होने के लिए जरुरी है।

सोनम वांगचुक विद्यार्थितों के साथ
 मैं इन्हीं बच्चों के साथ "जलवायु परिवर्तन एवं जैव विविधता संरक्षण" विषय पर एक तीन दिवसीय कार्यशाला आयोजित करने के लिए आया था। दूसरे दिन हम फेह, सेकमोल कैंपस आ गए। यहाँ की घड़ी एक घण्टा आगे चलती है। उद्द्येश जल्दी उठना और जल्दी सोना। इन बच्चों के साथ कार्यशाला  करते हुए लगा की हमारी शिक्षा पद्धति  में कितनी खामियां हैं। जो किसी विषय में फेल हुए बच्चे को जीवन में ही फेल मान लेती है। हो सकता है की कोई बच्चा किसी विषय में कमजोर हो या पढाई में उसका मन न लगता हो। जिसके बहुत से कारण हो सकते हैं। परन्तु हर बच्चे में  कोई न कोई खूबी जरूर होती है। जरुरत है उसे पहचानने की और उसे उस काम के लिए प्रेरित करने की। जो की "तारे जमीं पर" फिल्म में बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया है।

हिमालयन मर्मट
सोनम वांगचुक ने लद्दाख में शिक्षा के सुधार के लिए बहुत काम किया है। हमारे देश में "कश्मीर से लेकर ग्रेट निकोबार" (ज्यादातर हम सभी  "कश्मीर से कन्याकुमारी" ही बोलते हैं, शायद हम भूल जाते हैं की अंडमान निकोबार भी भारत का हिस्सा है ) तक के बच्चों की किताबें  एक जैसी बनाई जाती हैं। जब की इस विभिन्नताओं वाले विशाल देश के विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाने वाले पौधे व् जीव-जन्तु अलग-अलग हैं। यदि लद्दाख के बच्चों की किताब में किसी नाम के लिए "शीला या मोहन" लिखा हो तो वो बच्चे शायद ही समझें की यह किसी व्यक्ति का नाम है या जगह का। क्यों की वहाँ पर नाम नोरबो, जिग्मत वांगचुक, फुन्सुक वांगडू  जैसे होते हैं।

लद्दाख के बच्चों की किताबों में मे मेंढ़क क्यों होना चाहिए ? जब वहाँ पर मेंढक पाये ही नहीं जाते। एक दिन वहां पर कार्यरत मैनेजर ने मुझे बताया की जब मैं यहाँ किताब में मेंढक का चित्र देखकर पढ़ता था तो सोंचता था की मेंढक कम से कम एक से दो फ़ीट का होता होगा। बाद में जब आगे की पढाई के लिए लद्दाख से दिल्ली आया तो पहली बार मेंढ़क को देखकर सोंचा की यह मेंढक का बच्चा होगा। कुछ दिनों बाद उन्हें  समझ आया की मेंढक अमूमन इतना बड़ा ही होता है। 

सोनम वांगचुक जी ने सालों तक अपने अथक प्रयासों से लद्दाख में बच्चों को पढाई जाने वाली किताबों में बदलाव करवाया और अब उसमे वहां पर पाये जाने वाले जीव-जंतु, फूल-फल, पेड़-पौधों को डाला गया। सोनम जी ने एक और मुहिम चला रखी है की लद्दाख के सभी चुने हुए जनप्रतिनिधियों के बच्चों का सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य किया जाना चाहिए। उनका मानना है की यदि जन प्रतिनिधियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ेंगे तो वो सभी इन स्कूलों की शैक्षड़िक गुणवत्ता को ठीक करने का प्रयास करेंगे। जिसके फल स्वरूप इन स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिल सकेगी। परन्तु उनके इस मुहिम के कारण सारे राजनेता (?) उनसे नाराज रहते हैं।   
एक दिन मैं कार्यशाला समाप्त होने के बाद शाम को कुछ बच्चों के साथ बैठा हुआ था। मैंने एक स्टूडेंट से पूछा की उसका कौन सा विषय कमजोर है। तभी एक दूसरे छात्र ने कहा ! सर ! यह दो बार हाई स्कूल में फेल हुआ है। मैंने कहा तो क्या हुआ। तभी तो यहाँ पर है। मैंने उससे कहा की मैं भी तुम्हारे जैसा ही हूँ। क्यों की मैं भी हाई स्कूल में दो बार फेल हुआ हूँ। जिस पर उसने यकीन नहीं किया। पर दरसल में मेरा गणित विषय से छत्तीस का आंकड़ा था। जिस कारण से गणित के आलावा सभी विषय में अच्छे नंबर आने के बावजूद मैं हाइ स्कूल में दो बार फेल हुआ। फिर उसने बताया की वह हिन्दी में फेल हो जाता है। तब मुझे पता चला की यहाँ हाईस्कूल में हिंदी या उर्दू में से एक विषय पढ़ना और पास होना अनिवार्य है। तब मैं सोचने लगा की आखिर हिंदी, उर्दू के साथ वहां की मात्र भाषा लद्दाखी क्यों नहीं ?
चांगला टॉप 

परन्तु विडंबना यही है की आजादी के ६० सालों बाद भी हम "मैकाले" की सोंच से  बाहर नहीं आ पा रहे हैं। हलांकी सोनम वांगचुक काफी दिनों से लद्दाख में हाई स्कूल में हिंदी, उर्दू के साथ लद्दाखी को भी एक विषय के रूप में मान्यता दिलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। तभी उस बालक ने बड़े ही मासूमियत से कहा। सर! आप मेरे लिए हिंदी में १५ नंबर दिल्ली से भिजवा देना, बाकी  मैं यहाँ  पा लूंगा। मैं बड़ी भावुकता से सोंचता रहा की आखिर जिन बच्चों को सारी जिंदगी लद्दाख में रहना है उन्हें हाई स्कूल पास करने के लिए हिंदी या उर्दू में पास होना क्यों जरूरी है? हालां की यहाँ पर सामान्यतया लोग हिंदी बोल एवं समझ लेते हैं परन्तु उनकी मातृ भाषा लद्दाखी होने के कारण लिखने में मुश्किल होती है।

हम कार्यशाला समाप्त होने के बाद एक दिन पेंगोंग लेक जो समुद्र तल से ४३५० मी. की उंचाई पर है देखने गये। पेंगोंग लेक १३४ की.मी. लंबा  और लगभग ६०४ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जिसका ६०% हिस्सा तिब्बत में है। हम लेह से चांगला दर्रा होते हुए लगभग ५ घंटे में पैंगोंग पहुंचे। चांगला लदाख का सबसे ऊंचाई वाला दर्रा (समुद्र तल से ५३६० मी.) है जो दुनिया का तीसरा सबसे उंचाई पर स्थित वाहन चलने लायक सड़क मार्ग है। मैं पहली बार ऐसी बर्फीली वादी से रूबरू हुआ था। चारो तरफ बर्फ ही बर्फ।  पूरा इलाका एक अलग तरह की ताजगी एवं स्फूर्ति से भर देने वाला था।  

अभी यहाँ पर कांक्रीट के जंगलों का उगना शुरू नहीं हुआ है। जिसका एक कारण जम्मू एवं कश्मीर में लागू अनुछेद ३७० का वह प्रावधान भी है जो जम्मू एवं कश्मीर में दूसरे राज्यों के लोगों को जमीन खरीदने से रोकती है। अन्यथा लेह जैसे पर्यटन स्थल पर पारिस्थितिकीय संतुलन की जरूरतों को धता बता पूंजी पतियों द्वारा बड़े बड़े होटलों की श्रृंखला खड़ी कर दी गई होती। और वहां के छोटे भूखंडों के मालिक अपनी जमीन बेच कर उन्हीं होटलों में नौकर का काम कर रहे होते। खैर ! लेह से पैंगोंग जाते हुए प्रकृति का नज़ारा ऐसा था जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है। उसे शब्दों मे बांधने के लिये मेरी लेखनी मे शब्द नहीं है।

जमी हुई पेंगोंग लेक 
पेंगोंग लेक के किनारे एक लद्दाखी परिवार जो अपने काम में लगा था उनसे रूबरू होने का अवसर मिला। उन्हों ने हमें "बटर टी " पिलाई और फिर "छांग" एक तरह का देसी तरीके से बनाया गया अल्कोहलिक पेय पीने के लिए दिया। उन सबकी आत्मीयता देख कर लगा काश हम सभी एक दूसरे के प्रति ऐसा निःस्वार्थ अतिथि भाव रख पाते।

पेंगोंग लेक पूरी तरह से जम कर बर्फ मे तब्दील हो चुकी  थी। जिसका फायदा उठाते हुए मैंने भी पानी पर चलने का करतब दिखाया और लौटते हुए चांगला पहुँचा तो हल्की सी बर्फवारी होने लगी थी। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान से छोटे-छोटे रुई के फाहे टपक रहे हों। मैंने भी एक मुट्ठी बर्फ को साथ लाने की नाकाम कोशिश की लेकिन वह मुठ्ठी भर बर्फ देखते ही देखते पानी होकर हथेली से फिसल गया और बची तो सिर्फ खूबसूरत वादी में बिताये दिनों की यादें जिसे सँजो कर हम बर्फीली वादियों को पीछे छोड़ कांक्रीट के जंगल में (दिल्ली) वापस आ गये ।  

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

मॉस्ट्रिच, मैं और पाँच दिन (भाग-२)

डॉ. विजय प्रताप सिंह

मॉस्ट्रिच, नीदरलैंड जाने के लिए मिलने वाले मौके के कारण मुझे मेरा एक और सपना साकार होता दिख रहा था। लेकिन कहते हैं कि समय से पहले और किस्मत से ज्यादा कुछ नहीं मिलता। कुछ ऐसा ही हुआ था मेरे साथ। दरसल में १९९८ में मैंने जर्मनी जाकर शोध कार्य करने के लिए मिलने वाली एक फेलोशिप (DAAD Fellowship) के लिए साक्षात्कार दिया था। परन्तु सफल नहीं हो सका। इस फ़ेलोशिप के लिए आवेदन तभी कर सकते हैं जब आपको जर्मनी के किसी वैज्ञानिक द्वारा अपनी प्रयोगशाला में शोध कार्य करने एवं मार्गदर्शन देने सम्बंधी अनुमति पत्र मिला हो। जिस हेतु मैंने जर्मनी के कई शोध संस्थानों में शोध कर रहे वैज्ञानिकों को अपने शोध के बारे में लिखा था। अंततः मेरे प्रोजेक्ट प्रपोजल को स्वीकार करते हुए इस आसय का पत्र मैक्सप्लैंक इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेरेस्ट्रियल माइक्रोबॉयोलॉजीमारबर्ग, के प्रोफेसर राल्फ कॉनराड ने दिया। परन्तु फ़ेलोशिप न मिलने के कारण उनके साथ कार्य नहीं कर सका।

अब एक बार फिर मैंने चार साल बाद प्रो. कॉनराड से अपनी मॉस्ट्रिच यात्रा के दौरान आकर मिलने कि इछा जाहिर कि। जिसे उन्हों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। मैंने दो दिन वहाँ पर रुकने का प्लान बनाया। प्रो. कॉनराड कि विनम्रता ही थी कि उन्हों ने मुझे खुद मारबर्ग स्टेशन पर लेने आने कि बात कही। फिर कुछ दिनों बाद उनका मेल आया जिसमे उस दिन उनके संसथान में हो रहे एक सेमिनार में ब्यस्त होने के कारण अपनी सेक्रेटरी का फोन नंबर दिया जो मुझे स्टेशन से संस्थान ले जातीं। साथ में मुझे उस सेमिनार में भाग लेने का आमंत्रण भी दिया। सब कुछ तय हो चुका था। परन्तु राम चरित मानस में तुलसीदास जी ने सही ही लिखा है "होइ हैं सोई जो राम रचि राखा"। 
  
 मैंने नीदरलैंड जाने हेतु दिल्ली आकर वीज़ा के लिए आवेदन किया। अमूमन कम से कम १५ दिन का वीजा मिलता है और "शेंगेन वीजा" के तहत आप यूरोपियन यूनियन के किसी भी देश में जा सकते हैं। परन्तु नीदरलैंड उच्चायोग ने मुझे केवल ५ दिन का वीजा दिया। जब मैंने इस आसय में उनसे बात कि तो मुझे ५०० डालर खरीद कर पासपोर्ट में एंट्री करवाने कि बात कही। जो मेरे लिए यात्रा के दो दिन पहले सम्भव नहीं था। अब प्रो. कॉनराड की लैब में नहीं जा पाने के कारण मेरी मॉस्ट्रिच जाने कि ख़ुशी कम हो गई थी। मैंने उज्जैन पहुँच कर प्रो. कॉनराड को वीज़ा के कारण नहीं आ पाने का मेल लिखा। यह वैसे ही था जैसे प्यास में तड़पता आदमी पानी पीने से मना कर रहा हो ।

खैर कर भी क्या सकता था। चलिए फिर से मॉस्ट्रिच चलते हैं। २२ जनवरी २००२। सुबह होटल में नाश्ता करने के लिए पहुँचा। चूँकि ब्रेकफास्ट होटल  के कमरे के साथ ही बुक था इसलिए मैं नाश्ता जम कर करता था। हॉलैंड में दूध से बने उत्पादों  की बहुलता रहती है। नास्ते कि टेबल पर मेरे बगल में बैठे एक सज्जन उबले अंडे खा रहे थे। लेकिन मुझे रेस्टोरेंट में कहीं पर अंडे रखे हुए दिख नहीं रहे थे। मैं अण्डों कि  तलाश में नास्ते कि सामग्री से सजी टेबल के पास गया परन्तु अंडा कहीं दिखा नहीं। तब मेरी नजर वहीँ एक किनारे मुर्गे के पुतले पर पड़ी। जब  पुतला उठाया तो उसके नीचे रखी टोकरी में अंडे रखे थे। मैंने अंडे को प्लेट में रखते हुए सोचने लगा कि बेचारा मुर्गा भी अंडे कि खैर नहीं मना पाया। वैसे खाने के मामले में यूरोप में एक कहावत है। कि नाश्ता अकेले करना चाहिए…दोपहर का खाना दोस्त के साथ बाँट कर खाना चाहिए और रात का खाना दुश्मन को दे देना चाहिए। मतलब नास्ता सबसे तगड़ा और रात का खाना सबसे कम लेकिन सायद हम लोग इसका उल्टा करते हैं।

दिनभर अलग-अलग व्याख्यानों को सुनने में ब्यस्त रहा। आयोजकों ने डिनर का इंतजाम बेल्जियम में किया था। वैसे यह यूरोप में ही हो सकता है कि डिनर करने के लिए किसी दूसरे देश में जाया जा सके। हम तक़रीबन ४५ मिनट में हॉलैंड से बेल्जियम पहुँच गए। शहर का नाम मुझे याद नहीं आ रहा। हम ६ भारतीय  रेस्तरां में कोने कि एक टेबल पर बैठ गए। डिनर था "फोर कोर्स मेन्यू विथ वाइन"। वाइन परोसा जा रहा था। वेटर बड़े सलीके से वाइन कि बोतल को सफ़ेद रुमाल से पकड़े हुए हमारी ग्लास में डाल रही थी। तभी पराशर जी ने उसे अपने पास बुलाया और पूरी बोतल रखवा लिया। फिर शुरु हो गया खाने और पीने का दौर। जो तक़रीबन चार घंटे तक चलता रहा।

इसी दौरान एक अमेरिकी संस्थान में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर काम करने वाले बैज्ञानिक डॉ. मोजिएर हम लोगों के पास आकर बैठ गए। मेरा पहले से इनके साथ पत्र ब्यवहार था। मैंने इन्हे अपनी पी.एच.डी. थिसिस जिसे मैं साथ में ले गया था दिखाई। मुझे अपने रिसर्च में गर्मी के दिनों में शुष्क पतझड़ी जँगलों (Dry Desiduous Forest) में नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन कि जगह पर अवशोषण का ट्रेंड मिला था। जो कि उन परिस्थितयों में नहीं होना चाहिए। मैंने इस सम्बंध में रूस, जर्मनी और अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों को ईमेल से अपने शोध रिजल्ट भेजे और उनसे इस बारे में जानने कि कोशिश कि। यह मेरे लिए ख़ुशी कि बात थी कि सभी ने मेरे ईमेल का जबाब दिया और बताया कि उन्हें भी इस तरह के रिजल्ट मिलते हैं। परन्तु कारणों के बारे में ठीक से कुछ ज्ञात नहीं है । एक रुसी वैज्ञानिक ने मुझे लिखा कि यदि इस बारे में आपके आगे के शोध में कुछ पता चलता है तो मुझसे अवश्य साझा करें।

  लेखक, डॉ. मोजिएर एवं डॉ.पराशर
मैं डॉ. मोजिएर से इस सम्बंद में आगे किस तरह से शोध कार्य करना चाहिए हेतु चर्चा करता रहा। इस सम्बन्ध में उन्होंने मुझे एक्सपेरिमेंट  करने कि रूपरेखा समझाई। बाद में डॉ. मोजिएर ने इससे सम्बंधित कुछ शोधपत्र और प्रयोग के लिए सुझाव भी मुझे भेजे। जिस आधार पर मैंने एक रिसर्च प्रोजेक्ट बना कर पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप हेतु डिपार्टमेंट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (डी.एस.टी.), नई दिल्ली में अप्लाई किया। परन्तु मुझे फ़ेलोशिप नहीं मिली और मैं उस काम को आगे नहीं बढ़ा सका जिसे दिल से करना चाहता था। जैसा कि अमूमन हमारे देश में होता है। हम करना कुछ चाहते हैं और रोजी रोटी के लिए करने कुछ और लगते हैं।

एक और वाकया जिसका जिक्र मैं यहाँ करना चाहूंगा। मैं अपने पोस्ट डॉक्टोरल फ़ेलोशिप का प्रपोजल बनाने से पहले डी.एस.टी. गया। जहाँ मेरी मुलाकात एक सम्बंधित वैज्ञानिक से हुई। उन्हों ने मुझसे एक बात पूछी। कि आप ने जब हाईस्कूल पास किया, इंटर मीडिएट किया, बी.एस.सी, किया तो कैसा लगा ? सवाल मुझे समझ नहीं आया। मैंने कहा सॉरी सर मैंने कुछ समझा नहीं। तब उन्हों ने समझाया। कहा कि जब कोई स्टुडेंट हाई स्कूल पास करता है तो सोंचता है कि वह विज्ञानं, गणित, इतिहास, भूगोल आदि विषय में बहुत कुछ जनता है। जब वह इंटर मीडिएट करता है तो समझ में आता है कि सायद मैं पहले कुछ कम जनता था। इसी तरह से जैसे-जैसे वाह आगे कि पढाई करता है उसे पता चलता है कि वह उस विषय के बारे में बहुत कम जानता था। जब आप किसी विषय में एम.एस.सी. करते हैं तब पता चलता हैं कि उस विषय के बारे में पहले कितना कम जानते थे। यानि जैसे-जैसे हम ज्ञान अर्जित करते जाते हैं हमें हमारी अज्ञानता से परिचय होता है। बात मुझे अच्छी लगी…।

डिनर कि टेबल पर दूसरा कोर्स परोसा जा चुका था और मेरा इस तरह के डिनर का यह पहला अनुभव था। डॉ. पराशर जी मुझ पर आज कुछ ज्यादा ही मेहरबान थे। जैसे ही मेरा वाइन का ग्लास खाली होता वो दुबारा से उसे भर देते। अंत में मैंने वाइन ग्लास में छोड़ दिया। पराशर जी ने कहा ख़तम क्यों नहीं कर रहे हो। मैंने कहा सॉरी सर ! अब नहीं पी सकता। उन्होंने कहा ठीक है। अब हम लोग "फोर कोर्स विथ वाइन" का पूरा आनंद उठा चुके थे और चलने के लिए तैयार थे। तभी पराशर जी बोले। विजय ! मैंने कहा जी सर ! उन्होंने कहा तुम्हारा प्रेजेंटेशन कल है न ! मैंने कहा जी !  उन्हों ने कहा यदि तुम इसे (मेरे ग्लास में बची हुई वाइन) ख़तम कर दोगे तो कल तुम्हारा प्रेजेंटेशन अच्छा होगा। नहीं तो मैं कुछ कह नहीं सकता। मैं उनकी इच्छा समझ चुका था और अब मेरे सामने उसे पीने के आलावा कोई चारा नहीं था। मैं उसे वैसे ही गटक गया जैसे कोई छोटा बच्चा कुछ और पाने कि लालच में दूध का गिलास एक साँस में खाली कर देता है।

कांफ्रेंस समाप्त हो चुका था। रात को मैं टहलता हुआ मॉस् नदी पर बने एक पुल पर जो मेरे होटल के पास ही था आ गया। दूसरे दिन सुबह वापस जाना था इसलिए मैं ज्यादा से ज्यादा उस जगह को  फील करने और उन  अनुभवों को यादों में समेटने कि कोशिश  कर रहा था। चाँदनी रात में शहर को दो भागों में बांटती बहती हुई मॉस नदी। नदी के दोनों किनारों के साथ-साथ चलता हुआ शहर और उसकी रंग बिरंगी रोशनी का नदी में प्रतिबिम्ब एक अलग छठा बिखेर रही थी। मैं देर रात तक यूँ ही चहल कदमी करता उस चांदनी रात के सौंदर्य में खोया रहा। होटल आकर सोया तो कब सपनों में खो गया पता नहीं चला। सुबह तक़रीबन साढ़े चार बजे फ़ोन पर लगे अलार्म ने मेरी तंत्रा को भंग किया।

अब मैं मॉस्ट्रिच से अॅामस्ट्रेडम एअरपोर्ट पहुँच चुका था। जहाँ से मुझे फ्रैंकफ़र्ट होते हुए मुंबई आना था। अॅामस्ट्रेडम एअरपोर्ट  पर इमिग्रेशन अधिकारी मेरा पासपोर्ट चेक करते-करते मेरी तरफ मुखातिव होते हुए बोला "हैप्पी बर्थ डे  मिस्टर सिंह" और मेरी तरफ से कोइ प्रतिक्रिया न मिलने पर अधिकारी ने फिर से कहा "मिस्टर सिंह ! वेरी हैप्पी बर्थ डे" तब माजरा मेरी समझ में आया और मैंने उस अधिकारी के प्रति कृतज्ञता ब्यक्त करते हुए हाथ मिलाया। दरसल में आज पहली बार किसी ने मेरे "लीगल डेट आफ़ बर्थ" पर मुझे जन्म दिन कि बधाई दी थी। उस दिन २४ जनवरी था जो कि मेरे जन्म तारीख के रूप में मेरे पासपोर्ट पर अंकित है। अब मैं हर २४ जनवरी को अपने आप को जन्म दिन कि बधाई जरूर देता हूँ और उस अधिकारी कि प्रजेंस ऑफ़ माइंड को याद करता हूँ। मुझे लगता है कि मेरी तरह ज्यादातर भारतियों का एक लीगल जन्म दिन जरूर होता है। सायद इसी कारण से भारत में ब्रिटिश हाईकमीशन द्वारा मगायें जाने वाले वाले नौकरी के आवेदन पत्र में जन्म तिथि के लिए दो कालम  होता है। एक में लिखा होता है "डेट ऑफ़ बर्थ एक्चुअल: ……" और दूसरे में "डेट ऑफ़ बर्थ ऑन सर्टिफिकेट : .........."। यानि भारतियों के लीगल जन्म दिन के चर्चे दूर तक हैं।

अॅामस्ट्रेडम से मुंबई कि फ्लाइट तक़रीबन दो घंटे बाद थी। मैं एक सोफे पर जा कर बैठ गया। तभी एक सरदार लड़का जो मेरी ही उम्र का रहा होगा मेरे पास आकर बैठ गया। मुझे भारतीय देख कर हिंदी में बात करने लगा। कुछ देर बाद उसने मुझसे पूछा कि आप वापस इंडिया जा रहे हैं। मैंने कहा हाँ मैं यहाँ कांफ्रेंस में आया था आज वापस जा रहा हूँ। फिर उसने पूछा कि आप इंडिया में जॉब करते हैं। मैंने कहा नहीं मैं अभी पढाई कर रहा हूँ। फिर उसने अपने ज्ञान कि गठरी खोलनी चालू कि और सलाह देना शुरू किया…। बोला कि जब आप के पास इंडिया में नौकरी नहों है तो वापस क्यों जा रहे हैं ? लोग तो यहाँ एंट्री करने के लिए जुगाड़ करते हैं ! और आप यहाँ से वापस जा रहे हैं। यहाँ पर कुछ भी काम कर सकते हो। मैं एक अच्छे श्रोता कि तरह उसकी बहुत सारी बातें सुनता रहा। फिर मैंने उससे पूछा। आप क्या करते हैं ? उसने बताया कि वह वहाँ होटल में काम करता है और अभी जर्मनी जा रहा है। वह होटल में क्या करता है यह जानने कि मुझमे कोई उत्सुकता नहीं थी। इसलिये मैंने कोई और प्रश्न नहीं किया। परन्तु वह मुझे ऐसे देख रहा था जैसे उसके सामने कितना बड़ा मूर्ख ब्याक्ति बैठा हो जो इंडिया में नौकरी न होते हुए भी यूरोप आकर वापस जा रहा है।

अब मेरी फ्लाइट का समय होने वाला था और मैंने भी उस भले मानुष से पीछा छुड़ाते हुए सारी यादों को संजोए तैयारे में सवार होने के लिए आगे बढ़ गया.……।



रविवार, 9 मार्च 2014

मॉस्ट्रिच, मैं और पाँच दिन

डॉ. विजय प्रताप सिंह  

 रेलवे स्टेशन, मॉस्ट्रिच, नीदरलैंड 

उज्जैन, दिसंबर सन २००१। मेरा पी.एच.डी. शोध प्रबंध लिखने का काम लगभग पूरा हो चुका था। अब मैं उसे टाइप करवाने एवं एडिट करने में ब्यस्त था। जिस कारण से पिछले १०-१५ दिनों से ईमेल चेक करने का समय नहीं मिल पाया। उन दिनों ईमेल देखने के लिए "साइबर कैफे" जाना पड़ता था क्यों कि मेरे पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुबिधा नहीं थी। उसी दौरान एक दिन मेरे पी.एच.डी. गाइड प्रोफेसर एस.के.बिल्लोरे जी ने खबर भिजवाई कि तुम अपना मेल क्यों नहीं चेक कर रहे हो। आज ही जाकर मेल चेक करो। तुमको हॉलैंड कांफ्रेंस में जाने का खर्च आयोजकों ने देना स्वीकार कर लिया है। दरसल में मेरा एक शोध पत्र मॉस्ट्रिच, नीदरलैंड में "ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन" पर आयोजित एक अंतररास्ट्रीय संगोस्ठी में स्वीकार हुआ था और उसमे भाग लेने के लिए मैंने फेलोशिप हेतु आवेदन किया था। 

मेरा सारा खर्च नीदरलैंड के विदेश कार्य मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ फॉरेन अफेयरस) ने देना स्वीकार कर लिया था। जिस आसय का ईमेल कॉन्फ्रेंस के आयोजकों ने मुझे पिछले १० दिनों में कई बार भेजा था। परन्तु मेरी तरफ से कोई जबाब न मिलने पर मेरे डिपार्टमेंट (वानस्पतिकी अध्ययन शाला, विक्रम वि. वि. उज्जैन) में फैक्स द्वारा सूचित किया। मेरे लिए यह एक सुखद सूचना थी। मै तुरंत साइबर कैफे जा कर ईमेल चेक किया और विलम्ब से जबाब देने के लिए खेद प्रकट करते हुए उन्हें अपनी सहभागिता की  पुष्टता जबाबी मेल से कर दिया। और फिर आगे कि प्रक्रिया में लग गया। अपने एक मित्र से पैसे लेकर हवाई टिकट ख़रीदा क्यों कि मुझे पैसे वहाँ पहुचने पर मिलने वाला था। मैंने दो दिन पहले मॉस्ट्रिच पहुँचने का प्लान बना कर आयोजकों से होटल बुक करने का निवेदन किया था जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था। 

मैं १९ जनवरी २००२ को रात तक़रीबन ८ बजे फ्रैंकफ़र्ट (जर्मनी) और ऍम्सट्रेडम (नीदरलैंड की राजधानी) होते हुए मॉस्ट्रिच पहुंचा। मॉस्ट्रिच हवाई अड्डा। यहाँ से बाहर निकलते हुए लगा कि जैसे हवाई अड्डे पर कोई भी कर्मचारी नहीं हो। मेरे साथ विमान में आये तीन लोग अपनी टैक्सी का इंतजार कर रहे थे। बाकी सभी यात्री जा चुके थे। बाहर कोई टैक्सी भी नहीं दिख रही थी। जिस कारण मैंने उनमे से एक व्यक्ति से टैक्सी के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने किसी कर्मचारी से बात करने कि सलाह दी। मैं किसी कर्मचारी को ढूढ़ता तभी एक टैक्सी दिखी और उन महासय ने उससे बात कि और मैं उसी टैक्सी से अपने होटल आ गया। यह मेरी पहली योरप यात्रा थी। मॉस्ट्रिच "मॉस" नदी के दोनों तरफ बसा हुआ नीदरलैंड के सबसे पुराने शहरों में से एक। जहाँ पर ७ फरवरी १९९२ को यूरोपियन यूनियन के मसौदे पर हस्ताक्षर किये गए और यहीं पर "यूरो" को यूरोप कि एकीकृत मुद्रा के रूप में स्वीकार किया गया। 

बस की सवारी, मास्ट्रिच 
दूसरे दिन मैं शहर देखने के लिए निकल गया। उस दिन का तापमान तक़रीबन ३ डिग्री था। शहर में पैदल घूमता रहा। नई जगह होने के कारण शुरू-शुरू में रास्ता न भटकूँ इस लिए जिस रास्ते से जाता उसी से वापस हो लेता। फिर पूरा दिन मॉल, रेलवे स्टेशन, मास नदी का किनारा और बाजार में घूमता रहा। एक सुनसान इलाके में जहाँ एक रेड लाइट लगी हुई थी मैं सड़क पार करने के लिए काफी देर तक बत्ती के लाल होने और ट्रैफिक रुकने का इंतजार करता रहा। तभी एक व्यक्ति आया और सड़क के पास लगे एक खम्भे पर लगा बटन दबाया। और २-३ मिनट में सड़क के दोनों तरफ ट्राफिक रुक गया। और वह सड़क पार कर गया। 

तब मुझे माजरा समझ में आया। फिर मैंने वही प्रक्रिया दुहराई और सड़क पार किया। यानि ट्राफिक का कंट्रोल पैदल चलने वालों के हाथ में। सड़क पार करते हुए मुझे एक बार और सुखद आश्चर्य हुआ। हुआ यह कि मैं एक ज़ेब्रा क्रासिंग पर सड़क पार करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि तभी अंदर गली से एक कार को आते देख मैं इस विचार से ठिठक गया कि पहले कार निकल जाय फिर क्रॉस करूँ। लेकिन कार भी रुक गई और वह आगे नहीं गया। कुछ मिनट बाद उसे चला रहे व्यक्ति ने मुझे जाने  का इशारा किया। पहले तो मैं कुछ समझा नहीं। बाद में उसने दुबारा से मुझे पहले सड़क पार करने का इशारा किया। और मेरे सड़क पार करने के बाद ही वह कार वहाँ से निकली। 

नए साल कि मस्ती में लोग 
बाद में पता चला कि यहाँ ज़ेब्रा क्रासिंग पर पहले गुजरने का अधिकार पैदल चलने वालों को है। तब समझ में आया कि कार चला रहा व्यक्ति क्यों मेरे सड़क पार करने के बाद ही वहाँ से निकला। दरसल में मेरे पैर एक अनैछिक प्रक्रिया के तहत भारतीय सड़कों पर पैदल चलने वालों के मनः स्थिति के अनुरूप ठिठक गए थे।  जहाँ पैदल चलने वालों को ही अपनी जान बचा कर सड़क पार करना होता है। कारण ! एक तो प्रभावी नियम नहीं हैं, और यदि हैं तो ज्यादा तर लोग उसका पालन करने में अपनी तौहीन समझते हैं। वैसे भी हमारे यहाँ नेता, अभिनेता, आम या खास आदमी हर कोई कानून तोड़ने में अपनी शान समझता है। 


मॉस्ट्रिच रेलवे स्टेशन 
खैर छोड़िये ! इस ठिठुरन भरे मौसम में मॉस्ट्रिच के बाज़ार में घूमने का आनन्द लेते हैं (हंला कि यहाँ शर्दी का आभास केवल तभी तक होता है जब हम खुले में या सड़क पर घूम रहे होते हैं)। जनवरी के तीसरे सप्ताह में भी नए साल कि खुमारी बाजार में और लोगों के ऊपर साफ दिखाई दे रही थी। शाम को लोग सड़क के किनारे टेबल लगा कर बियर पीने का आनन्द ले रहे थे। बहुत से लोग रंग-बिरंगे बैंड बाजे कि पोषाक पहने हुए झूमते गाते सड़कों पर नजर आ रहे थे। जिसमे बच्चे, बूढ़े, महिलाऐं सभी मस्ती में सराबोर। पूरा मस्ती भरा माहौल। मैंने पूरा दिन पैदल घूमते हुए मॉस्ट्रिच शहर देखने और समझने में बिताया। 

कान्फ्रेंस से एक दिन पहले शाम को जो प्रतिभागी पहुंच चुके थे उनके लिए रजिस्ट्रेशन डेस्क खुला हुआ था। एक कॉक्टेल पार्टी भी आयोजित थी। मैं भी शाम को वहाँ पहुच गया। जब रजिस्ट्रेशन के लिए पहुंचा तो एक भद्र महिला ने नाम पूछा। फिर बात करते हुए पता चला कि मेरे साथ सारा पत्र व्यव्हार (ईमेल) इन्हों ने ही किया था। और मैंने सभी जबाबी मेल में इन्हे "डियर सर" लिख कर सम्बोधित किया था। मैंने जेंडर कि इस गलती के लिए खेद व्यक्त किया। जिसपर उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा "नो प्रॉब्लम". मगर मैं सोचने लगा कि आखिर ऐसा क्यों ? मेल किसी महिला द्वारा भेजा हुआ भी हो सकता है यह विचार क्यों नहीं आया ? सायद यह हमारी पुरुष प्रधान सोंच का ही नतीजा था। यह वैसे ही है जैसे यदि कोई जानवर अपने ईश्वर कि मूर्ति अपने मन में बनाएगा तो उसका स्वरुप उसके रूप 
जैसा ही सोंचेगा। जैसे हमने अपने अधिकतर देवी-देवता  को मानव रूप में ही उकेरा है। 
सड़क पर मस्ती करते लोग  

क्यों कि मेरा सारा खर्च आयोजकों द्वारा वहन किया जाना था। जिसके लिए उन्हों ने मुझे बगल में काँच के बने एक अर्ध वृत्ताकार केविन में बैठी एक अन्य महिला के पास भेज दिया। जिन्होंने मुझे १० मिनट के अंदर एक जगह दस्तखत करवा कर यात्रा खर्च एवं अन्य दैनिक भत्ते का भुगतान कान्फ्रेंस शुरू होने के एक दिन पहले ही कर दिया। यह भी मेरे लिए एक अलग अनुभव था। विक्रम विश्व विद्यालय में शोध छात्र रहते हुए कई बार प्रेक्टिकल परीक्षा लेने के लिए आये प्रोफेसर का ३-४ हजार रुपये के यात्रा व्यय का भुगतान विश्व विद्यालय से करवाने में लगभग आधा दिन लग जाया करता था। ऊपर से कई तरह के सवाल। लगता जैसे कि व्यक्ति पैदल चल कर आया हो और ट्रेन का किराया ले रहा हो। वहीँ दूसरी तरफ मुझे लगभग ७५ हजार रुपये का भुगतान बिना किसी सवाल जबाब के १० मिनट में कर दिया गया। और मैं सोंचता रहा कि किस तरह से हम लोग अपना बहुमूल्य समय जो किसी उपयोगी काम में लगा सकते हैं उसे लाल फीता शाही कि फाइलों के पीछे घूमने में खर्च कर देते हैं। परन्तु विडम्बना ही है कि हम खान-पान और पहनावे के लिए तो पश्चिमी देशों का अनुकरण कर रहे हैं, लेकिन उनकी काम  के प्रति जबाबदेही, समय वद्धता एवं कार्य शैली को नहीं अपना रहे।

कॉक्टेल पार्टी में मैंने जूस पीते हुए (अभी तक मैने कुछ अच्छी आदतें? सीखी नहीं थी) आये हुए प्रतिभागियों के साथ चर्चा करता रहा। दिल्ली से दो ऐसे लोग भी इस कॉन्फ्रेन्स में आने वाले थे जिन्हें मैं पहले से जनता था। होटल पहुचने पर पता चला कि वो भी आ चुके हैं और इसी होटल में रुके हुए हैँ। उनमें  से एक थे डॉ. डी. सी. पराशर। जो कि राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला (एन.पी.एल.),नई दिल्ली, में वरिस्ठ वैज्ञानिक थे। और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर कार्य करने वाले भारत के चुनिंदा वैज्ञानिकों में से एक। मैंने अपना शोध कार्य विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्रों से होने वाले नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) (इसे हँसाने वाला यानी लाफिंग गैस भी कहते हैं) उत्सर्जन पर किया था। एन.पी.एल. हमारे रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए सहयोगी संस्थान था और नाइट्रस ऑक्साइड गैस कि एनालिसिस मैं डॉ. पराशर जी के विभाग में करता था। हलां कि मेरा कार्य शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही वो रिटायर हो गए। परन्तु वो अवकाश प्राप्त बैज्ञानिक के रूप में अगले ४-५ सालों तक वहीँ पर कार्य करते रहे। जिस 
कारण से मेरी उनसे मुलाकात होती रहती थी और मैं अपने शोध कार्य में उनका मार्गदर्शन लेता रहता था।
कांफ्रेंस में आये भारतीय मूल के प्रतिभागी 

२१ जनवरी २००२। हम संगोस्ठी के उद्घाटन समारोह में पहुँच चुके थे। संगोस्ठी में आये मुख्य अतिथियों में एक अतिथि ऐसे थे जिनसे मिलने का मेरा सपना था। जो आज पूरा होता हुआ दिख रहा था। वह थे नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर पॉल जे. क्रुटजन। जिन्हे १९९५ में  ओजोन परत के छरण में नाइट्रस आक्साइड कि भूमिका को प्रतिपादित करने के लिए नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया था। चूँकि मेरा शोध कार्य भी नाइट्रस ऑक्साइड पर ही था इसलिए मैं उनके शोधपत्र पढ़ता रहता था। एक बार मैंने उन्हें उनके शोधपत्र भेजने के लिए पत्र भी लिखा था। और तब मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था जब मुझे डाक से एक लिफाफा मिला जिसमे शोध पत्रों के साथ एक छोटी पर्ची भी थी जिस पर उन्हों ने सुभकामना सन्देश लिखकर हस्ताक्षर किया हुआ था। आज उन्हें अपने सामने पाकर मैं कुछ ज्यादा ही उत्साहित था 


लेखक, पॉल क्रुटजन एवं डॉ. पराशर के साथ 

मैंने डॉ. पराशर जी से उनसे मिलने कि इच्छा जाहिर की। कयों कि मै जनता था कि डॉ. पराशर ने प्रो. क्रुटजन को नोबल पुरस्कार मिलने से पहले उनके साथ जर्मनी में एक साल तक शोध कार्य किया था। डॉ. पराशर द्वारा प्रो. क्रुटजन के बारे में सुनाया गया एक अनुभव मुझे आज भी याद है। बात उन दिनों कि थी जब डॉ. पराशर प्रो. क्रुटजन के साथ मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट ऑफ़ केमिस्ट्री, जर्मनी में थे। एक दिन डॉ. पराशर ने उनसे देर रात तक लैब में काम करने के लिए बात कि क्यों कि ज्यादातर लैब ६ बजे बंद हो जाती थी। जिस पर प्रो. क्रुटजन  ने अपने जेब से एक चाभी निकाल कर दी। और कहा कि तुम जब तक चाहो काम कर सकते हो। मेरी अनुपस्थिति में मेरी सीट पर भी बैठ कर पढाई कर सकते हो। परन्तु यह चाभी गायब नाहीं होनी चाहिए। नहीं तो मुझे पूरे बिभाग के ताले बदलवने पड़ेंगे। क्यों कि यह मास्टर चाभी है जिससे विभाग के सारे ताले खुल जाते हैं। 

प्रो. क्रुटजन की समय के प्रति प्रतिबद्धता का एक अनुभव मुझे उद्घाटन समारोह के दौरान हुआ। क्यों कि मेरा ध्यान ज्यादा तर उनपर ही केंद्रित था। इस लिए मेरा ध्यान उस तरफ गया। मैंने देखा कि तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार जो समय कर्यक्रम ख़तम होने का था ठीक उसी समय वो मंच से उतर कर बाहर निकल गए। जबकि कर्यक्रम अभी चल ही रहा था। 

उद्घाटन समारोह ख़तम होने के बाद मैं प्रो. क्रुटजन से मिला। डॉ. पराशर जी ने मेरा परिचय एक शोध छात्र के रूप में उनसे करवाया। मैं अपने पी. एच.डी. शोध प्रबंध कि एक प्रति साथ में ले गया था। जो मैंने उन्हें दिखाई। मैंने अपने शोध कार्य के बारे में उनसे बात कि। उन्हों ने भी पूरी एकाग्रता से मेरी बातें सुनी और मेरा शोध प्रबंध देखते हुए अच्छा काम करने कि सलाह भी दी। उनसे इस तरह से मिलाना और बात करना मेरे लिए एक सपना साकार होने जैसा था जो मैंने पी.एच.डी. करते समय देखा था। उस दिन मुझे लगा कि यदि सच्चे दिल से कोई सपना देखा जाय और उसके लिए सच्चा 
लेखक पहली बार वाइन पीते हुए 
प्रयास किया जाय तो ईश्वर उसे पूरा करने में मदद जरूर करता है। 
     
मुझे अपना शोध पत्र दो दिन बाद पढ़ना था। इसलिए मैं ज्यादातर समय मेरे शोध विषय पर हो रहे व्याख्यानों को सुनने और वैज्ञानिकों से मिल कर उस विषय पर चर्चा करने में लगा रहता था। आज शाम को मॉस्ट्रिच के मेयर ने वहाँ के टाउन हॉल में एक ड्रिंक पार्टी रखी थी। मैं डॉ. पराशर और उनके साथ शोध कर रही डॉ. रानू जिन्हें मैं पहले से जनता था वहाँ पहुँच गए। पार्टी शुरू हो चुकी थी। मैं और डॉ. रानू जूस का गिलास हाथ में लेकर बातें कर रहे थे। तभी डॉ. पराशर जी अपने दोनों हाथ में रेड वाइन से भरा ग्लास लिए हुए हमारी तरफ आये। और बोले ये क्या पी रहे हो। मैंने कहा कि मैं ड्रिंक नहीं करता। इस पर उन्हों ने पूछा। द्राक्षासव का नाम सुना है ? मैंने हाँ में जबाब दिया। उन्होंने पूछा…  क्या होता है? मैंने कहा कि आयुर्वेदिक दवा के रुप में प्रयोग होता है। फिर उन्होंने पूछा। उसमे एल्कोहल कितना परसेंट होता है? मैंने कहा तक़रीबन १० परसेंट। उन्हों ने कहा इसमें ९.५ परसेंट है और कहते हुए वाइन का गिलास हम दोनों कि तरफ बढ़ा दिया। जिसे न लेने की हिमाकत हम नहीं कर सकते थे। और अब हमारे हाथ में जूस कि जगह वाइन का ग्लास था। और फिर शुरू हो गई ढलती हुई शाम में वाइन के साथ विज्ञान चर्चा........।  
(....शेष अगले अंक में )

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

बापू, बंदर और चाटा

डॉ. विजय प्रताप सिंह 

जापान के निक्को शहर में बने "तोशो-गु श्राइन" (एक धार्मिक स्थल) के दरवाजे पर खुदे तीन बंदरों का प्रतीक - साभार विकिपीडिया 

बंदर । गाँधी जी के तीन बंदर। आखिर कहाँ से आये ये तीन बंदर ?  एक दिन सुबह कि सैर करते हुए पार्क में एक बंदर को देख अनायास ही यह विचार मेरे मन में कौंधने लगा। बुरा न सुनने, बुरा न बोलने, बुरा न देखने  कि शिक्षा देते तीन बंदरों का प्रतीक ! जिन्हें देख हर भारतीय को गाँधी जी की याद आ जाती है। आखिर इन प्रतीकात्मक बंदरों का जन्म कब, कैसे और कहाँ पर हुआ? इन्हे गाँधी जी के तीन बन्दर हम क्यों कहते हैं ? सोचता रहा.… मगर जबाब नहीं मिला। घर पहुंच कर गूगल बाबा के सानिध्य में जानकारी जुटाने कि कोशिश की । तो समझ में आया कि मैं कितना गलत था। सायद ज्यादातर लोग मेरे जैसा ही सोंचते होंगे।

जिन्हें मैं गाँधी जी की खोज मान रहा था, दरसल में उन तीन बंदरों का पहला प्रमाण १७ वीं  शताब्दी में जापान के निक्को शहर में बने "तोशो-गु श्राइन" (एक धार्मिक स्थल) के दरवाजे पर मिलता है। जिस पर इन तीन  बंदरों कि आकृति उकेरी हुई है। माना जाता  है कि इन बंदरों का सम्बन्ध महान चीनी दार्शनिक कन्फूसियस की  आचार संघिता में उद्धृत (दूसरी से चौथी शताब्दी ईशा पूर्व) मुहावरे पर आधारित है। मुहावरा था  "वह मत देखो जो हो मर्यादा के विपरीत, वह मत सुनो जो हो मर्यादा के बिपरीत, वह मत बोलो जो हो मर्यादा के बिपरीत, वह मत करो जो हो मर्यादा के बिपरीत। जो आठ वीं शताब्दी में टेंडाइ बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से जापान पहुंचा। जहाँ इनका सरलीकरण जापान में प्रचलित एक कहावत मिज़ारु, क़िक़ाजारू, इवाजारु जिसका मतलब है न देखो, न सुनो, न बोलो से जुड़ कर "बुरा  मत सुनो, बुरा मत बोलो और बुरा मत देखो" के रूप में हुआ ।

वैसे तो इन आदर्शों का बंदरों से कोई सम्बन्ध नहीं था। लेकिन माना जाता है कि जापानी कहावत के तीनो शब्दों के अंत में लगा "-ज़ारु" बोलने में जापानी शब्द "सारू" से मिलता है जिसका मतलब बंदर होता है। और इस तरह से ये आदर्श बंदरों के प्रतीक के रूप में जापान में प्रचलित एवं चित्रित हुए।

बाद में गाँधी जी ने अपने मिलते जुलते आदर्शों को लोगों तक पहुचाने के लिए इन तीन बंदरों के प्रतीक का उपयोग किया। और आज हम इस प्रतीक को "गाँधी के तीन बंदर" के रूप में देखते हैं। बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो।  "बुरा मत देखो"... मतलब बुरा होते हुए मत देखो। और गलत काम के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करो। न कि बुरा होते हुए देखकर आँखे बंद कर लिया जाय। यही ब्याख्या सुनने और बोलने के बारे में भी है । मुझे लगता है कि हमें इन तीन बंदरों के बजाय कन्फ्यूसियस के चौथे आदर्श "वह मत करो जो हो मर्यादा के बिपरीत" को  चौथे बंदर "बुरा मत करो"  के प्रतीक के रूप में आत्मसात करने कि जरुरत है।  न कि बापू के तीन बंदरों के प्रतीकात्मक शिक्षा की अपनी सुबिधानुसार व्याख्या करने की।

साबरमती आश्रम जहाँ गाँधी जी १९१५-१९३० तक रहे, इन तीन बंदरों का बड़ा सा प्रतीक आज भी लगा हुआ है। परन्तु  हाथीदांत पर खुदे हुए तीन बंदरों के प्रतीक वाली मूर्ति जिसे गांधी जी अपने साथ रखते थे २१ मई २०१३ को ब्रिटेन के लुडलो रेसकोर्स में खुली नीलामी के हथौड़े के नीचे आ गया। और राष्ट्रीय महत्व कि धरोहरों को सहेजने के प्रति सरकारी उदासीनता बार-बार उजागर होती रही है।

एक ब्यांगकर ने ठीक ही कहा है कि -

गाँधीतुम हिन्दुस्तानियों से गच्चा खा गए और ५०० से सीधे १० रुपये के नोट पर आ गये। 

खैर। तक़रीबन २० साल पहले मैंने भी गाँधी जी कि "एक गाल पर चाटा खाने के बाद दूसरा गाल आगे करने" कि सलाह के सम्भावित प्रतिफल पर "चाटा" शीर्षक से एक व्यंग लिखा था। जिसे इस प्रसंग पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

"चाटा"
जब एक लड़की ने
मेरे गाल पर चाटा लगाया
तो सेवा में
मैंने दूसरा गाल भी बढ़ाया
क्योंकि ऐसा करना बापू ने सिखाया है।
तभी लड़की ने
दूसरा चाटा भी जमाया
जिसे खा कर
मैंने उसके हाथ को चूमता हुआ फर्माया।
क्यों प्रिये !
कहीं हाथ में चोट तो नहीं आई
यह सुन कर
लड़की दिल पर चोट खाई
थोड़ी सी शर्माई
अपने सर को मेरे कन्धों पर टिकाई
और
मेरे खुरदरे गालों को सहलाती हुई बोली
माफ़ करना
यह तो पहले प्यार कि मिठाई थी
जो
तुम्हारे गालों तक पहुंचाई है
और भी बहुत सी मिठाइयां लाऊंगी
शादी के बाद जी भर के खिलाऊँगी
जिसके लिए
मजबूत बेलन और चिमटे दहेज़ में लाऊंगी
यह सुनते ही मेरा सर चकराया
भागता हुआ बापू कि तस्बीर के सामने आया
और जोर- जोर से चिल्लाया
अरे !
तुमने अंग्रेजों को मनाने के लिए यही फार्मूला बनाया
जिसे मानकर मैं एक लड़की भी नहीं पटा पाया
और तो और
दोनों गाल पर चाटा खाया
अब अगर
मैं अपने आप को
तुम्हारे पद चिन्हों पर और भी चलाऊंगा
तो इसमें शक नहीं
किसी लड़की के हाथ मारा जाउंगा
अरे !
वह मुझे ऐसी मिठाई खिलाएगी
कि बाकी जिंदगी भी खटाई में पड़ जाएगी
कि बाकी जिंदगी भी..... । 

रविवार, 12 जनवरी 2014

दिसंबर का महीना, बर्फ़ीली वादी और हम पाँच


डॉ. विजय प्रताप सिंह  


ब्रेकिंग न्यूज़ ! दिल्ली में गिरी बर्फ। दिल्ली में बर्फ। चौंकिए नहीं ! हमारी मीडिआ कहीं पर भी बर्फ बारी करवा सकती हैं। हुआ यूँ कि "एक आदमी साइकल पर बर्फ ले जा रहा था और कैरिअर ढीला होने के कारण बर्फ सड़क पर गिर गई"   । मई २०१२ में सोशल मीडिया ने इंडिया टी.वी. के हवाले से दिल्ली में कुछ इसी तरह बर्फ गिरवा दी थी। खैर, जिस तरह से दिनों दिन 24 x7 खबरिया चैनलों की बाढ़ आ रही है तो कुछ अलग दिखने के लिए ऐसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनना लाजमी है।

 इसी कड़ी में साल २०१३ के आगाज़ से पहले के आखिरी हफ्ते में  कुछ खबरिया टी. वी. चैनलों  ने एक बार फिर बे सर पैर कि बहस छेड़ रखी थी। विषय था नास्त्रेदमस कि २१ दिसंबर २०१२ को दुनिया ख़तम होने वाली भविष्यवाणी। मगर हम इससे बे परवाह दिल्ली कि सर्दी से बचने के लिए किसी ऐसी जगह की तलाश में थे जहाँ बर्फ बारी का आनंद लिया जा सके। और हमारी तलाश रोहड़ू, "पब्बर घाटी" कि बर्फीली वादी पर आकर ख़तम हुई ।

रोहड़ू ! "पब्बर नदी" के किनारे बसा एक छोटा सा क़स्बा। समुद्र तल से  ऊँचाई ५००० फीट। चीड़ एवं देवदार के घने जंगलों से घिरी पब्बर घाटी सेब की खेती के लिए मशहूर "एप्पल वैली" के नाम से भी जानी  जाती  है।

जिस दिन दुनिया ख़तम होनेवाली थी (नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी को पढ़ने का दावा करने वालों के अनुसार) उसी दिन हम पाँच  मित्रों ने सेंटा कि दाढ़ी सी सफ़ेद और कपास की रुई जैसी मुलायम असली बर्फ कि तलाश में पब्बर घाटी कि तरफ निकल पड़े थे। मगर घने कुहरे कि चादर से ढ़की सड़क पर हमारी गाड़ी कछुए कि चाल से सरक रही थी ।  प्रकृति के सामने मनुष्य का सारा विकास कितना बौना हो जाता है। इसका आभास इसी से लगाया जा सकता है, कि  हमने दिल्ली से चंडीगढ़ तक की लगभग २५० कि. मी. कि यात्रा ८ घंटे में पूरी की। साथ ही एक और बात इस कुहरे में समझ में आई। कि किस तरह से प्रकृति हमें भाई चारा सिखा देती है। जहाँ अमूमन लोग सड़क पर चलते हुए एक दूसरे को ओवर टेक करने में लगे होते हैं। वहीँ कुहरे के कारण सभी पहले आप-पहले आप करते नजर आये। सभी कुहरे कि दीवार को तोड़ती हुई किसी और गाड़ी के पीछे उसकी बैक लाइट के सहारे सड़क ढूढ़ने कि कोशिश करते रहे। कुहरा ज्यादा होने के कारण हमने चण्डीगढ़ में रात गुजारने का  फैसला किया।  और एक होटल में दो कमरे लिए। पांच लोग और दो कमरे।

मै अपने दो बंगला भाषी मित्रों के साथ एक कमरे में सोने का प्रयास किया ही था। कि एक भाई ने बेसुरी बंशी बजाना (खर्राटे लेना) शुरू किया। मैंने दूसरे मित्र से कहा कि यह तो अभी से ही शुरू हो गया। तो दूसरे ने जबाब दिया। थोड़ी देर में मैं भी शुरू हो जाउंगा। मैंने वह कमरा छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी। और धीरे से रजाई लेकर दूसरे कमरे में सो रहे दूसरे मित्रों के कमरे में आ गया। आगे कि यात्रा में रात्रि शयन के दौरान दोनो बंग्ला मित्रों ने एक दूसरे को कौन-कौन सी धुन सुनाई इसका गवाह तीसरा कोई नहीं रहा। खैर, खर्राटा मारने वाले का दोष भी क्या है। चिकित्सा विज्ञानं भी तो अब तक इसके सटीक कारणों का पता लगाने एवं इलाज खोज पाने में असफल ही रहा है। एक सर्वे के मुताबिक लगभग २३ प्रतिशत पति-पत्नी खर्राटों के कारण  अलग  कमरों में सोते हैं। वहीँ दुनिया मेंखर्राटा तलाक का तीसरा सबसे प्रमुख कारण है।
लेखक, दो बंग्ला - भाषी मित्र और कारथी 

मुझे लगता है कि वर-वधू कि तलाश के लिए तैयार किये जाने वाले "घोषणा पत्र" (बायोडाटा) में तमाम खूबियों के साथ सोते समय बाँसुरी बजाने कि कला का भी जिक्र कर दिया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि इससे खर्राटों के कारण होने वाले तलाक में कमी जरूर आयेगी। क्यों कि ! जब..... मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा....... । शादी के घोषणा पत्र से जुड़ी एक और बात। जो तक़रीबन ८ साल पुरानी है। एक अंग्रेजी अख़बार में शादी के लिए सुयोग्य कन्या कि तलाश में छपे एक विज्ञापन पर मेरी नजरें आकर रुक गईं।  और तमाम विचार मेरे मन में कौंधने लगे। मैंने छाया चित्र के रूप में उस विज्ञापन को अपने पास सुरक्षित रख लिया। विज्ञापन था शादी के लिए एक एच.आई.वी. पॉजिटिव युवक की तरफ से एक एच.आई.वी. पॉज़िटिव कन्या कि तलाश का। पढ़ कर मैंने मन ही मन उस युवक की जीवन के प्रति सकारात्मकता एवं अपने साथ  एक
और व्यक्ति के जीवन में खुशियाँ भरने की  चाहत  को सलाम किया। आखिर न जाने  कितने ऐसे लोग हैं जो जीवन में छोटी-छोटी मुश्किलों में निराश हो जाते हैं।

वादी की खूबसूरती को यादों में समेटता मैं 
अगले दिन सुबह हम आगे कि यात्रा पर निकल चुके थे । शाम तक हम पहाड़ और खाई के बीच सर्पीली सड़क पर बर्फीली वादियों में मस्ती खोरी का सपना संजोए आगे बढ़ते रहे। अँधेरा होने लगा था। और हम अभी गंतव्य से बहुत दूर थे। आगे बढ़ते हुए रास्ते की तलाश में हमने आधुनिक तकनीक (गूगल पथ प्रदर्शक) का सहारा लिया। और शार्टकट के चक्कर में गलत मार्ग पर चल पड़े । अब हम अँधेरे में गड्ढों और पत्थरों के बीच में सड़क ढूढते हुए चल रहे थे । वैसे इन रास्तों से गुजरने का रोमांच भी कुछ कम नहीं था। जिसका एहसास हम सबने किया भी था।और ड्राइविंग सीट पर बैठे मेरे मित्र को रोमांच के साथ कलात्मक ड्राइविंग का "आनंद" अनायास ही मिल रहा था।

इन रास्तों से गुजरते हुए मुझे रामायण में वर्णित एक प्रसंग याद आ रहा था। जिसके अनुसार विश्वामित्र ने राक्षसों से अपनी यज्ञ की  रक्षा के लिए श्री राम और लक्ष्मण को अयोध्या से अपने साथ लेकर जाते हुए एक जगह पर पहुँच कर उन्हें दो रास्ते दिखाए। और बताया कि एक रास्ता छोटा है। परन्तु दुर्गम पहाड़ियों से होकर गुजरना होगा। रास्ते में तमाम राक्षसों का भी सामना कारना पड़ेगा। दूसरा रास्ता लम्बा परन्तु कम मुश्किलों  भरा है । राम ने आगे बढ़ने के लिए छोटा रास्ता चुना। और रास्ते में तमाम राक्षसों का संहार करते हुए आगे बढ़े थे।

शायद हमने भी कुछ वैसा ही किया था। मगर गलती से । हम रात के अँधेरे में जंगल के बीच से गुजरती टूटी-फूटी सड़क पर पत्थर रूपी राक्षसों से लड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। मगर हम अपने कुशल "कारथी" (अगर महाभारत काल में मोटर कार होती तो श्री कृष्ण "सारथी" नहीं बल्कि "कारथी" कहलाए होते) कि हिम्मत और कलात्मक ड्राइविंग  के भरोसे सड़क पर आने वाली सभी बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। दूर-दूर तक घुप्प अँधेरा । अगर गाड़ी की  हेड लाइट का बल्ब फ्यूज हो जाय तो सड़क पर रात गुजारने के आलावा दूसरा कोई उपाय नहीं होता ।                

पूरे एक घंटे तक इस रास्ते से गुजरते हुए हमें किसी दूसरी गाड़ी ने क्रॉस नहीं किया। खैर, थोड़ी देर बाद हमें दूर से टिम टिमाती रोशनी दिखाई दी। वहाँ पहुँच कर पता चला कि हम "खड़ा पत्थर" पहुंच चुके थे। इस जगह को यह नाम यहाँ पर पाये जाने वाले विशाल अंडाकार पत्थरों के कारण मिला है। जो समुद्र तल से ८७७० फीट कि ऊंचाई पर बहुतायत में खड़ी अवस्था में मौजूद हैं। लेकिन रात के अँधेरे के कारण हम इन पत्थरों को देखने नहीं जा सके। जिसका मलाल है। खड़ा पत्थर में हमने हाड़ को कंपा देने वाली ठंड़ क्या होती है इसका भी एहसास किया । लोगों का मानना है कि पब्बर वैली में यह सबसे ठंडी  जगह है। सर्दियों में यहाँ का तापमान हिमांक के नीचे ही रहता है। यहाँ आने का सबसे अच्छा समय मार्च से जून या अगस्त-सितंबर का महीना है। मगर हम तो गए ही थे अलग अनुभव की तलाश में।

यहाँ हमने एक छोटी सी दुकान पर चाय और पकौड़ों के साथ बालूशाही (एक तरह कि मिठाई) का भी आनन्द लिया। और दुकान की रसोई में जल रही आग के सामने अपने आप को गरम करने का भी प्रयास किया। अब रात के आठ बज चुके थे। और रोहड़ू अभी हमारी पहुंच से ३५ कि. मी. दूर था। हम खड़ा पत्थर से रोहड़ू की  यात्रा २ घंटों में पूरी कर पर्यटन विभाग के अतिथि गृह पहुंचे। कमरे में ठंड से बचने के सभी सामान मौजूद थे (कृपया पाठक इसका मतलब अपने हिसाब से न निकालें)। खैर ! जा की रही भावना जैसी……।

एक और बात। जिसका ज़िक्र मैं यहाँ नहीं करना चाह रहा था। परन्तु कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर प्रकाश डालने के लिए लिख रहा हूँ। पूरे रास्ते कुछ मित्रों में  एक अलग तरह की प्रतिस्पर्धा  चल पडी थी कि कौन कितना ग्लोबल वार्मिंग करवा सकता है। यात्रा के दौरान कार में पड़े ब्रूट (एक डिओडरेंट का ब्रांड) का बस एक ही उपयोग रह गया था। अगर कम्पनी को पता चले तो शायद इस नाम से डी. ओ. बनाना ही बंद कर दे। वैसे ही जैसे बोफोर्स तोप खरीदी में हुए भ्रष्ट्राचार के कारण  साख खो चुकी बोफर्स कम्पनी ने अपना नाम बदल लिया। शायद कम ही लोगों को पता हो कि दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित "नोबल पुरस्कार" शुरू करने वाले अल्फ्रेड नोबल बोफोर्स कम्पनी के मालिक रह चुके हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों में एक सबसे महत्वपूर्ण  मीथेन (CH4) है। जिसका ग्लोबल  वार्मिंग  में योगदान  लगभग  २८  प्रतिशत है।
सेब के पेड़ कि देख भाल करता किसान 
मीथेन गैस का उत्सर्जन ज्यादातर नम भूमि एवं धान के खेत (Paddy Field) से होता है। परन्तु इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण स्रोत जानवरों की पाचन क्रिया के दौरान  निकलने वाली गैस है। जानवरों द्वारा  निकाला जाने वाला मीथेन विश्व भर में मानव जनित कारणों से उत्सर्जित होने वाले मीथेन का लगभग २९ प्रतिशत होता है। वहीँ एक अध्ययन के अनुसार मनुष्य भी इस क्रिया में थोड़ा मीथेन और कार्बन डाई आक्साइड  गैस निकालते हैं। और हमारे कुछ मित्र भी इस कार्य में अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहना चाहते थे। खैर इस वैज्ञानिक चर्चा को यहीं विराम देते हैं। और ग्लोबल वार्मिंग से पूरी घाटी की बर्फ पिघल जाये इससे  पहले घूमने का आनंद ले लेते हैं।

सुबह बर्फ में घूमने की पूरी तैयारी के साथ हम चिरगावं होते हुए चांसल तक कि यात्रा पर निकल लिए। चांसल से तक़रीबन १६ कि.मी. पहले सड़क (पहाड़ में बनी कच्ची सड़क) पर बर्फ होने के कारण गाड़ी से आगे जाना सम्भव नहीं था। अब हम शार्टकट से पहाड़ी पर चढ़ते हुए ऊपर जा रहे थे। इस दौरान पब्बर घाटी में घूमते हुए हमें सेब के बागान में अपने पेड़ों की देखभाल करते किसानों से मिलने का मौका मिला। बड़ी तन्मयता से वो अच्छी फसल पाने के लिए पेड़ों की अनुपयोगी डालों कि कटाई-छँटाई कर उसपर एक खास प्रकार का लेप लगा रहे थे। जिसे देखकर सोचता रहा कि जरूर इनकी यह मेहनत एक दिन सुन्दर सेब के फलों के रूप में इन डालियों पर लटक रहे होंगे। याद उस सेब का भी आया जिसने न्यूटन को अमर कर दिया।

आगे बढ़ते हुए चीड़ के पेड़ (वनस्पति विज्ञानं में इन्हें जिम्नोस्पर्म यानी बिना फूल वाले पौधों कि श्रेणी में रखा गया है) की डालियों पर गहरे हरे रंग की सुई की  आकार वाली पत्तियों के बीच लटकते चमकीले भूरे रंग के फल (इसे कोन कहा जाता है जिसके अंदर बीज होते  हैं। सही मायने में ये फल नहीं होते) इन  पेड़ों  कि सुंदरता को  अलग ही चार चाँद लगा रहे थे। वहीँ चीड़ के पेड़ से निकलने वाले गोंद (रेज़िन, जिसका उपयोग तारपीन का तेल बनाने एवं पेंट में किया जाता है) पर बैठा कीट कब कांच कि तरह पारदर्शी रेज़िन कि बूंद के बीच कैद हो गया शायद ही समझ पाया हो (देखें फोटो ) .

 इस फ़ोटो को खींचते हुए मुझे जुरासिक पार्क फ़िल्म का एक  दृश्य याद आ रहा था। जिसमे दिखाया गया था कि कैसे एक मछर जिसने किसी डायनासोर को काटने के बाद एक पेड़ पर बैठता है और तभी पेड़ से निकलने वाले गोंद के नीचे दब कर संरक्षित (Preserve) हो जाता है । बाद में उसी मच्छर  के शरीर में संरक्षित डायनासोर के खून के डी.एन.ए. से जुरासिक पार्क में डायनासोर की उत्पत्ति की  गई। कहानी फ़िल्मी होते हुए भी वैज्ञानिक सत्य के अत्यंत करीब थी । मुझे इस चीड़ के गोंद की  बूंद के बीच संरक्षित इस कीट को देख कर लगा जैसे यह कीट भी शायद हजारों सदियों बाद "जुरासिक पार्क"  कि तरह किसी "पब्बर पार्क" की  कहानी का अहम् पात्र होने वाला/वाली है।

अब हम  प्रकृति की  तमाम कलाकृतियों एवं ताने बाने से रुबरु  होते हुए काफी दूर निकल आए थे। जहाँ हमें बर्फ के प्यार में सराबोर होने का  मौका मिला । हम भी पीछे नहीं रहे।  मुट्ठी में हाथ कि गर्मी से बूंद बनकर टपकती बर्फ के साथ अटखेलियाँ करता सोचता रहा कि स्थाई कुछ भी नहीं। पानी की  बूंद जो सूरज कि तपिष  से भाप बन कर आसमान कि उंचाई में खो गयी थी । आज बर्फ बन कर इस जमीं पर सफ़ेद चादर सी  बिछी  है। और तैयार है एक बार फिर सूरज कि गर्मी को सोख बूंद बन कर धरती में समां जाने को। या बर्फ बनने के लिए एक बार फिर भाप बन जाने को बेताब।

शाम ढलने लगी थी। और हम प्रकृति के इस मनोरम नज़ारे को कैमरों में कैद करते हुए, अनमने मन से धरती पर बिछी सफ़ेद चादर को पीछे छोड़ते अपनी यादों में मुट्ठी भर बर्फ लिए वापस चल दिए । देखते ही देखते डूबते सूरज की लालिमा पहाड़ी के पीछे ऐसे छुप गयी जैसे खिड़की  के झुरमुट से झांकती नव विवाहित  सुंदरी ने मेहँदी रची हथेलियों में अपना चेहरा छुपा लिया हो।