सोमवार, 26 अगस्त 2013

जानवर हमसे बहुत आगे हैं




सभ्यता का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की स्वयं इतिहास। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर आज की आधुनिक सभ्यता के सफ़र में न जाने कितनी सभ्यताए परवान चड़ी और अपनी छाप छोड़ कर समय के गर्त में समां गई। यही प्रकृति का नियम है। सब कुछ नश्वर ।  समय का पहिया घूमता ही रहता है अपनी गति से।  अब हम मानव विकास गाथा को ही देख लें। जंगलों में प्रकृति के बीच नंगे रहा करते थे हमारे पूर्वज।  बाद में पेड़ के पत्तों और छालों से बदन ढकना शुरू किया।  फिर कपड़े पहनने का युग आया। और अब कपड़े   उतारने का।  कुछ लोग दूसरों का उतार रहे हैं और ज्यादातर अपना । हम यहाँ अपनो की बात कर रहे हैं। आखिर खुद से खुद का कपड़ा उतारना ज्यादा हिम्मत का काम जो है।


यात्रा जहाँ से शुरू वहीं पे ख़तम।  यह समय का चक्र ही तो है।  अगर हव्या (आदम  और हव्या) ने ज्ञान के बृक्ष का फल नहीं खाया होता तो सायद हम आज भी प्रकृति के उतने ही करीब होते।  लेकिन अब पछताए होत  क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।  मगर चिंता की कोई बात नहीं। हमारे समाज का एक वर्ग प्रकृति के साथ कदम ताल करने के लिए अपने कपड़ो की लम्बाई हर साल एक पिलान छोटी (पिलान, बुद्धू बक्से पर चाक्लेट के एक विज्ञापन से लिया गया शब्द) कर खुलेपन  के साथ जीने का दंभ भर रहा है।  मगर क्या  उनके सोंच में भी वही खुलापन है ? कुछ प्रकृति प्रेमी बालाओं के बदन पर टीशर्ट बेचारी जींस से मिलने के लिए छटपटा  रही है पर सफल होती नहीं दिखती। उसकी और जींस के बीच का फासला दिनोदिन  बढता ही जा रहा है। और यह वर्ग कपड़े उतार कर आधुनिक समाज का  झंडावरदार बनने की कोशिश कर रहा है।  इस पर मुझे मशहूर हास्य व्यंग कवि काका हाथरसी की एक कतरन  याद आती है "अगर कपड़े उतरना ही फ़ैशन  है तो हम बहुत अभागे हैं, जानवर हमसे बहुत आगे हैं " । और वो जानवरों को पीछे छोड़ने पर अमादा।


समय का चक्र ही कुछ ऐसा है।  आज आधुनिकता कपड़ो की लम्बाई से आंकी जाने लगी है।  शारीर और कपड़ो में बराबर का अनुपात पिछड़ेपन का और कपड़ो से बहार  झांकते अंग प्रत्यंग आधुनिकता के प्रतीक बन रहे हैं। मगर हम लोग भी कितने दोहरे मापदंड अपनाते हैं।  जो लोग जान बूझ कर पतलून एक पिलान छोटी कर रहे हैं वो खुले विचार वाले और हमारे आदिवासी जो सदियों से नंगे बदन जंगलो में रह रहे हैं वो पिछड़े और असभ्य। हो भी क्यों न वे तो मजबूर हैं। उन्हें तो कपड़ा नसीब ही नहीं हुआ, क्योंकी उनके हिस्से के संसाधनों से ही तो हमने अपने शहरों का विकास  किया है।


बात थोड़ी पुरानी है।  जब मैं छठी  कक्षा में था तो घूमने के लिए लखनऊ अपने एक चाचा जी के पास गया। वहीं पर पहली बार फिल्म देखी।  उस समय के सबसे अच्छे "नावेल्टी" सिनेमा हाल में।  फिल्म थी मनोरंजन कर से मुक्त रिचर्ड अटेनबरो  की "गाँधी".  फिल्म के एक दृश्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया।  बाद में उस दृश्य के लिए कई बार गाँधी फिल्म देखी।  दृश्य - नदी के किनारे एक महिला कपड़े धो रही होती है और गाँधी जी की नजर पड़ने पर खुद को अपने फटे हुए कपड़ो में समेटने की नाकाम कोशिश करती है।  इसे देख गाँधी जी अपनी धोती उसकी तरफ तैरा  देते हैं। और वह उस धोती से लिपट जाती है। इस दृश्य को मैंने "विवशता" शीर्षक से अपनी कविता में कुछ इस तरह से पंक्ति बद्ध किया।



विवशता

निज कर्म में डूबी हुई
थी ढक रही
अपना बदन नव योवना
जब पड़ी उस पर नजर
लगता की जैसे
कर रही हो कोशिशे नाकाम
खुद में ही समा जाने को वह
चाहती तन को छुपाना बार बार
थी मगर मजबूर
क्योँ की
हो गया था
वस्त्र तन पर तार तार
देख उसकी वह विवशता
मूँद अपनी आँख
उसके ओर
अपना वस्त्र मैंने कर दिया
थी  झपट कर चीर में वह खो गयी
और झुका कर नैन
रह खामोश
सब कुछ कह दिया।

अगली बार किसी और कविता के पीछे के सच के साथ मुलाकात होगी।  



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