रविवार, 15 सितंबर 2013

खोता बचपन


उज्जैन, मध्य प्रदेश के एक गाँव में लिया गया फोटो 

बचपन  कि  यादें ! …वो कागज की कश्ती .....वो बारिश का पानी .…बागों में फिरना….मछली पकड़ना….गलती पे झापड़ खा कर सुबकना…. वो बचपन की यादें…वो छुटपन की यादें ! 

काश वो बचपन के दिन हम दुबारा जी पाते। जीवन के सबसे सुनहरे दिन। न कोई फ़िक्र न ही किसी चीज की कोई परवाह । मेरा बचपन मेरे गाँव "देवरिया माफ़ी" में बीता। जो बस्ती शहर से १४ किलोमीटर पूर्व  की तरफ ग्रांट ट्रंक रोड के दोनों तरफ बसा हुआ है। ग्रांट ट्रंक रोड! दक्षिण एसिया का सबसे पुराना और सबसे लम्बा सड़क मार्ग। जो चिटगांव ( आज के बांग्लादेश ) से होता हुआ हावड़ा (पश्चिम बंगाल ), पेशावर (आज के पाकिस्तान )  से काबुल, अफगानिस्तान को एक मार्ग से जोड़ता था। पहले इसे  "उत्तर पथ" या  शाह राह -ए - आजम (ग्रेट रोड ) या सड़क-ए -आजम (बादशाही सड़क ) नाम से भी जाना जाता था।

यह सड़क मार्ग मौर्य काल में बना। बाद में शेर शाह सूरी ने अपने शासन काल में इसे ठीक करवाया।"ढोरिका" (बस्ती शहर के नजदीक) जाने की तैयारी करने लगा था।  हवाई अड्डे का काम चालू हो चुका था। हवाई पट्टी बनकर तैयार भी हो गई। एक बार पूरी तरह से हवाई अड्डा तैयार होने पर सारे गाँव वालों को वहां से विस्थापित होना था। इस दौरान केवल एक बार हवाई जहाज ने मेरे गाँव पर बनी हवाई पट्टी को छुआ। लेकिन १९४५ में द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने पर हवाई अड्डे का काम रोक दिया गया। हजारों की संख्या में आये अंग्रेजी सैनिंक वापस चले गए। और मेरा गाँव विस्थापित होने से बच गया।
और अंग्रेजों द्वारा सन १८३३ से १८६० के बीच इस सड़क मार्ग को दुबारा से ठीक करवाया गया। मेरे गाँव के पास से गुजरते इस एतिहासिक सड़क के उत्तर में थोड़े ही दूरी पर रेल लाइन गुजरती है। सन १९३९ में द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने पर अंग्रेजी शासन ने मेरे गाँव के पास सैनिक हवाई अड्डा बनाने का निर्णय लिया। जिस कारण से हमारा परिवार एक और पुस्तैनी गाँव

उस समय के अंग्रेजों के बहुत से किस्से बुजुर्ग लोग सुनते हैं। गाँव के सड़क के दूसरे तरफ एक प्राचीन शिव मंदिर है। लोग बताते हैं कि हवाई अड्डा बनते समय अंग्रेजों ने इसे भी हटाने की कोशिस की। लेकिन मंदिर को हटाते समय वहां पर काम देख रहे अंग्रेजी इंजीनियरों में से कुछ को वहां से निकले काले रंग के भौरों ने काट लिया। एवं कुछ अन्य कारणों से मंदिर को हटाने का अपना इरादा अंग्रेजों ने बदल दिया। आज भी वह मंदिर और मंदिर से सटा सदियों पुराना पीपल का पेड़ जो उन सारी घटनाओं का साक्षात् गवाह रहा है, तन कर उसी जगह पर खड़ा है। काश हम उस पीपल के पेड़ से वार्तालाप कर पाते। तो न जाने कितनी और घटनाओं का लेखा जोखा मिल जाता । लेकिन पेड़ और आदमी में  संवाद कहाँ संभव है।  पर शायद आने वाले समय में ऐसी किसी तकनीकी का इजाद हो जब हम इन पेड़ पौधों की कथा एवं  ब्यथा को जान सकें।  परन्तु मुझ में इतना इंतजार करने का धैर्य नहीं था।  और मैंने इस पीपल के पेड़ से अपनी वार्तालाप एक कविता "मंदिर का पीपल" के माध्यम से करने की कोशिश की। जिसके बारे में फिर कभी लिखूंगा।

मेले में बिकता गुल्लक 
ऐसे गाँव में बीता मेरा बचपन।  मुझे याद आता है की कैसे हम इस गावं के मंदिर पर लगने वाले शिवरात्रि के मेले में जाने के लिए पैसे इकठ्ठा करते थे।  फिर मेले के दिन घर वालों से पैसे मांगना और थोड़ा ज्यादा मिलने पर होने वाली ख़ुशी अब केवल बीती हुई यादें भर हैं। हम मेले से मिटटी के गुल्लक जरुर खरीदते थे।  और फिर उसे किसी सेठ की तिजोरी की तरह संभाल कर रखते। मगर शायद ही कभी मेरी गुल्लक को एक रूपये से ज्यादा के सिक्के या नोट को अपने अन्दर छुपा कर रखने का सौभाग्य मिला हो।  बेचारी गुल्लक। जब गुल्लक चिल्लर से ही इतनी  संतुष्ट हो तो नोट से क्या लेना देना। 

जब मैं चौथी या पांचवी कक्षा में था तो मेरे बड़े भाई साहब मुझे चार आने (पच्चीस पैसे) जेब खर्च के लिए रोज दिया करते थे। मैं उसमें से २० पैसे का "कचालू" (पतले कटे हुए उबले आलू में नमक, भुनी  हुई धनिया और लाल मिर्च पावडर डाल कर इमली के पानी से खट्टा किया हुआ जो महुए के पत्ते पर मिलता था) मैं रोज खाया करता था। एक दिन खुल्ले पैसे नहीं होने के कारण भाई साहब ने मुझे एक रुपये का सिक्का इस हिदायत के साथ दिया की मैं ४ दिन तक पैसे नहीं मांगूंगा। उस एक रुपये को पाने की ख़ुशी आज मेरे किसी भी बैंक बैलेंस से शायद ही मुझे मिले।  और आज वही एक रूपया अपना वजूद खो चुका है। रिज़र्व बैंक ने भी एक रुपये के नोट को लेन  देन की प्रक्रिया से बहार का रास्ता दिखा दिया है।       

मोबाईल फ़ोन पर गेम खेलता बच्चा
गाँव में हम मनोरंजन के लिए बहुत से खेल खेला करते थे। और शायद ही कोई ऐसा खेल होता जिसे हम घर के अन्दर खेल पाते। जेठ की तपती धूप हो या कड़-कड़ाती  सर्दी। खेलने के लिए घर से बाहर जाना जरुरी होता। वह भी घरवालों से छुपते छुपाते। ये खेल शायद बच्चों ने अपनी उम्र एवं परिवेष के अनुसार कभी खुद ही इजाद किये होंगे।  हम गाँव में ज्यादातर गुल्ली- डंडा, लखनी- लखना, लंगड़ी, सिस्तौल, कन्चा, लट्टू नचाना, कबड्डी, छुपा-छुपाई, बाघा गोटी आदि खेल खेला करते थे । सावन के महीने में पेड़ों पर रस्सी और लकड़ी के पटरे से बने झूले पर झूला झुलना एक अलग ही अनुभव हुआ करता था।  मगर आज शहरों में रहने वाले बच्चे शायद ही इन खेलों से वाकिफ हो। आज के बदलते हुए परिवेश और तकनिकी ने बच्चों के बचपन को कुछ ज्यादा ही यांत्रिक बना दिया है। एक कमरे में कैद टेलीविजन पर कार्टून या मोबाइल गेम खेलने में मशगूल। मेरी एक भांजी जो नोएडा में रहती है। उसका साढ़े तीन साल का बेटा स्मार्ट फ़ोन पर गेम डाउन लोड कर खेलता है और पसंद न आने पर उसे अनइंस्टाल  भी कर देता है। आज बच्चे तकनीकी ज्ञान में कहीं आगे हैं।

जिस उम्र में हम गाँव की गलियों में बेफिक्र घुमते धमा-चौकड़ी करते थे, आज उस उम्र के बच्चे जो स्कूल जाने में सक्षम हैं, उनके कंधे स्कूली बस्ते के बोझ से झुके जा रहे हैं। और जिन बच्चों को स्कूल नसीब नहीं हो रहा (हलां कि सभी के लिए शिक्षा का अधिकार कानून लागू है ) उनके कंधे सड़क पर कचरा बीनते, जूता पालिश करते या किसी चाय की दुकान पर काम करते हुए पेट भरने के बोझ से झुक गए हैं। 

खुद से बनाई गई गाड़ी चलाते बच्चे 
जहाँ किताबी ज्ञान बच्चों को कुछ बनने (?) के लिए गला काट प्रतिस्पर्धा में सफलता दिला रहे  हैं। वहीँ इसकी कीमत बच्चों को अपना बचपन खो कर चुकाना पड़  रहा है।  बच्चों के लिए क्या जरूरी है यह बहस का विषय हो सकता है। परन्तु इतना तो सही है की इसने बच्चों के चहुमुखी विकाश को तो अवरुद्ध किया ही है।

संयुक्त परिवार में रहते हुए पले-बढ़े बच्चे जहाँ दादा-दादी,चाचा-चाची, फुआ-फूफा, भईया-भाभी, दीदी और न जाने कितने चचेरे, ममेरे, जाने-अनजाने रिश्तों की डोर से अपने आप को जुड़ा  हुआ महसूस करते थे। वहीँ बच्चों में अपनी किसी भी वस्तु (खाने पीने की , खेलने की या पहनने की ) घर के दूसरे बच्चों के साथ बाँटने या साझा करने की प्रवृति का अंकुरण अपने आप ही हो जाया करता था। परन्तु आज बढ़ते हुए एकाकी परिवार के चलते बच्चों में  नैतिकता, सामाजिक संवेदना एवं रिश्तों की समझ कहीं खोती जा रही है। जरा सोंचिये ! जिस घर  में केवल एक बेटी या बेटा हो वह बच्चा भाई बहन के रिश्ते को कैसे महसूस कर सकेगा। संयुक्त परिवार में रहते हुए  यह समस्या काफी हद तक अपने आप ही सुलझ जाती थी।  यहाँ मैं विषय से थोड़ा हट कर एक संकेत करना चाह रहा हूँ। यदि महिलाओं के साथ हो रही बलात्कार की घटनाओं में लिप्त लोगों का अध्ययन किया जाये तो मुझे लगता है की ऐसे लोगो की तादाद शायद ज्यादा होगी जिनकी कोई बहन नहीं होगी (यहाँ मैं सिर्फ अपना विचार व्यक्त कर रहा हूँ ऐसा हो जरूरी नहीं है ).     

चलिए फिर से बचपन पर लौटते हैं। हम गर्मियों की दुपहरी ज्यादातर आम के बाग में पेड़ से आम तोड़ते और खाते हुए बिताते थे। घर लौटने पर कितनी भी डांट पड़े पर दूसरे दिन फिर वही दिनचर्या। मैंने एक बार मेले से बहुत सारे रंग बिरंगे कन्चे खरीदे।  जिसमें से काले रंग  पर दूधिया निशान वाले कन्चे मुझे बहुत पसंद थे। मै इन्हें एक पोटली में रखता था।  एक दिन मेरे एक बड़े भाई साहब ने मुझे कन्चा खेलते हुए देख लिया और मेरे सारे कन्चे पोटली सहित कुँए में फेंक दी।  मैं बहुत उदास हुआ। और इसके बाद कभी कन्चा नहीं खेला।


सूरजकुंड मेले में बाइस्कोप
डमरू बजाता हुआ मदारी वाला, बन्दर और भालू नाचने वाला या बाइस्कोप वाला जैसे ही गाँव में आता सारे बच्चे इकठ्ठा हो जाते।  खेल देखने के बाद उसे सभी कुछ न कुछ अनाज ला कर दे देते। खेल देखने के लिए कोई टिकट नहीं लगता। खेल देखने के बाद किसी ने कुछ नहीं भी दिया तो कोई बात नहीं। मुझे बाइस्कोप देखना अच्छा लगता था। हम बाइस्कोप के डिब्बे से आँख लगा कर बैठ जाते और बाइस्कोप वाला अपने हाथ से एक हैंडल के सहारे चरखी को घुमाता और बाइस्कोप के ऊपर बने एक छेद से देखते हुए आने वाले हर चित्र के बारे में अपनी बनाइ पैरोड़ी को सुनाता। बाइस्कोप में चल रहे चित्रों में दिल्ली का कुतुब मीनार, आगरे का ताजमहल, बम्बई शहर, झाँसी की रानी , महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु आदि के बारे में जानकारी के साथ मनोरंजन करता। और हम उन रंगीन चित्रों को देखते किसी दूसरी दुनिया की सैर कर रहे होते। पिछले साल मैं कुछ दोस्तों के साथ सूरजकुंड (दिल्ली के पास) मेले में गया वहां पर मुझे एक बाईस्कोप वाला दिखा।  जिसे देख कर मेरी पुरानी  यादें   ताजा हो गईं। लेकिन मैंने उस दिन बाइस्कोप नहीं देखी। पर आज यह ब्लॉग लिखते समय सोंच रहा हूँ की काश उस दिन देखा होता तो पता चलता की क्या बाइस्कोप के पात्र आज भी वही हैं या समय के साथ वह भी  बदल गये। 

हम एक और काम कभी कभी मनोरंजन के लिए किया करते थे।  गाँव के पास रेलवे लाइन पर जा कर ट्रेन आने का इंतजार करते। और जैसे ही दूर से ट्रेन आती दिखती हम ५ या १० पैसे का सिक्का रेल पटरी पर रख कर दूर हट जाते।  ट्रेन गुजर जाने के बाद हम उस पैसे को ढूढ़ते जो वहीँ कहीं गिरा हुआ या पटरी पर चिपका हुआ मिल जाता।  पैसे के ऊपर से ट्रेन गुजर जाने के कारण शिक्का चिपटा हो कर फ़ैल जाता। हम उसे हाथ में लेकर यह सोचते यह और बड़ा क्यों नहीं हुआ। और फिर पैसा चिपटा करने की प्रक्रिया को कभी कभार दुहराते। आज सोंचता हूँ तो ऐसा करने के पीछे के जिज्ञासु मन का कोई तर्क समझ में नहीं आता। फिर भी मैंने अपने "कचालू" के कुछ पैसे इस खेल में ख़राब जरूर किये।

मुझे एक पुराना वाकया याद आ रहा  है। मैं अपने एक मित्र के साथ चंडीगढ़ से इंडियन साइंस कांग्रेस में  भाग लेकर ट्रेन से वापस उज्जैन जा रहा था। बोगी में एक ८-९ साल का बालक जनवरी महीने की ठण्ड में अपनी शर्ट उतार कर उसे झाड़ू की तरह इस्तेमाल कर फर्श पर पड़े कचरे को इकठ्ठा  रहा था। मैं हमेशा से ट्रेन में यात्रा के दौरान झाड़ू लगाने वाले इन बच्चों को बड़े ध्यान से देखता था। इसी के चलते मैंने यह जाना की ये बच्चे इक्कट्ठा किये गए कचरे को पूरी तरह बोगी से नीचे नहीं  गिराते। बल्कि उसका एक हिस्सा दरवाजे के पीछे या दो बोगिओं के बीच की जगह में लगा देते हैं।  जिससे बोगी में कचरा न होने पर कोई दूसरा लड़का उसी कचरे को निकाल कर यात्रियों से कुछ पाने की आस में एक तरफ से दूसरी  तरफ ले जाता  और फिर दरवाजे के पीछे लगा देता। मुझे यह एक दूसरे के लिए कमाई के  संसाधन  को सुरछित रखने का नायाब उदाहरण लगा।


थोड़ी देर बाद वह लड़का अपनी शर्ट से झाड़ू लगाता हुआ मेरी सीट के पास आ गया । और मुझसे कुछ पैसे देने के लिए कहा। मैंने उसे इकठ्ठा किये गए कचरे को ट्रेन से नीचे गिराकर आने पर पांच रुपये देने की बात कही। यह वही कचरा था जिसे हम और आप शायद ही कभी अपने ड्राईंग रूम में फेंकते।  लेकिन यह तो ठहरी भारतीय रेल, एक सार्वजनिक संपत्ति ।  हमें तो अगले स्टेशन पर उतर जाना है।  सफाई का जिम्मा तो रेलवे का है। की मानसिकता के चलते हमने इकठ्ठा किया था। मुझे अपने पूर्व राष्ट्रपति ड़ा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी का एक लेख याद आ रहा है जिसे उन्होंने राष्ट्रपति बनने से पहले लिखा था। की कैसे एक ब्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से सिंगापुर , न्यूयार्क, सिडनी या टोक्यो पहुंचता है तो चाकलेट या अन्य कोई चीज खाने  के लिए उसके ऊपर से हटाये गए कागज या प्लास्टिक को कैसे वह कूड़े दान न दिखने पर अपने बैग में कहीं रख लेता है।  लेकिन वही ब्यक्ति वापस लौट कर दिल्ली हवाई अड्डे से बहार निकलते ही ऐसी चीजें सड़क पर फेंकना चालू कर देता है। समझ नहीं आता हम सभी सार्वजनिक जगह को कूड़ेदान क्यों मान लेते हैं।  काश हम अपनी  इस सोंच में थोड़ा बदलाव ला पाते।

खैर ! कुछ मिनटों बाद वह झाड़ू लगाने वाला लड़का वापस मेरे पास आया। मैंने पूछा कचरा गिरा दिया? उसने हाँ में जबाब दिया। मैंने उसे चलकर दिखाने को कहा और उसके साथ दरवाजे के पास निरीक्षण करने  पहुँच गया। देखा तो कचरे का कुछ हिस्सा उसने दरवाजे के पीछे लगा रखा था।  मेरे कहने पर वह अनमने मन  से उसे नीचे गिरा दिया। मै अपनी सीट पर आ गया।  वह भी मेरी सामने वाली सीट पर आकर बैठ गया। मैंने उसे कहे  के मुताबिक ५ रुपये दे दिए। फिर उसने एक बात कही जिसने मुझे बहुत कुछ सोंचने पर मजबूर किया। उसने बड़े ही मासूमियत से कहा की सर " उस कचरे को बोगी से नीचे फिकवा कर आज आपने कई बच्चों के पेट पर लात मार दी"। यह सुन कर मैं हतप्रभ था। मैंने उसे अपने बगल में बिठा कर उसके परिवार के बारे में जानने की कोशिश की। उसने बताया की  उसका बाप दारू पीता था जो मर गया।  माँ झोपड़ पट्टी में रहती है और कुछ घरों में काम करती है। मैंने उसके पढ़ाई के बारे में पूछा।  उसने कहा की वह पढ़ना चाहता है।  लेकिन माँ कहती है की कुछ कमा कर ला। इसलिए वह यह काम करता है। 

मैंने उससे पूछा गिनती आती है। बोला नहीं आती। तभी मैंने अपनी जेब में पड़े कुछ सिक्के निकले। और उसमें से एक रुपये का सिक्का उसे  देते हुए पूछा यह कितना रूपया है।  उसने कहा एक रूपया ।  मैंने एक और सिक्का दिया।  उसने कहा दो रूपया। इस तरह वह १० तक की गिनती  बड़े आराम से कर लिया। मैंने उसे वह १० रुपये भी दे दिए। और कहा की तुम्हें तो गिनती आती है।  यह सुनकर उसके चेहरे पर उभरी मुस्कान और आत्मबिस्वास आज भी मेरे नज़रों के सामने उसका चेहरा उकेर देती है।

अगला स्टेशन आने तक वह मेरे साथ रहा। मैंने उसे एक नोटबुक पर ५० तक की गिनती और हिंदी की वर्णमाला लिख  कर दिया।  जब तक वह मेरे साथ रहा अंको को  लिखने का प्रयास करता रह।  फिर अगले स्टेशन पर  ट्रेन रुकी और वह उतर गया। ट्रेन कुछ देर तक रुकी रही और मैं खिड़की से उसे देखता  रहा। उसके जैसे कुछ और बच्चे जो उसी ट्रेन से उतरे थे। उसके हाथ में नोट बुक और पेन देख कर उसके पास आ गए।  और वह उन्हें अपने द्वारा नोट बुक में लिखे गए अंकों को बड़े ही उत्सुकता से दिखा रहा था। फिर ट्रेन आगे बढ़ गई और मै  रास्ते भर उसी के बारे में सोंचता रहा।

वापस उज्जैन (तब मैं विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से पी.एच.डी. कर रहा था ) पहुँच कर मैंने ऐसे बच्चों को पढ़ाने का एक प्लान बनाया। कुछ किताबें, नोटबुक और पेन्सिल खरीद कर अपने यात्रा करने वाले बैग में रख लिया। सोंचा कि जब भी मैं ट्रेन में सफर करूंगा तो ऐसे कुछ बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करूँगा और यह पाठ्य सामग्री उन्हें दूंगा। पर ऐसा कर पाने में मैं असफल रहा। क्यों की उसके बाद मैंने कई ऐसे बच्चों के साथ यात्रा के दौरान पढाई के बारे में बात की। लेकिन सभी ने दो टूक जबाब दिया। कुछ देना है तो दो नहीं तो टाइम क्यूँ ख़राब करते हो साहब ।  शायद उनकी बात सच भी थी । एक दिन पढ़ाई की बात करने से क्या होगा ? उसे तो उस दिन के खाने का इंतजाम करना है। आज सोंचता हूँ क्या सभी के लिए शिक्षा के कानून में इन बच्चों के लिए कोई जगह है ? या कोई ऐसा जरिया जो इनके खोते हुए बचपन को लौटा सके। 

मैंने ४ जून १९९७ को एक ऐसे ही बच्चे को सुल्तानपुर, (उत्तर प्रदेश ) रेलवे स्टेशन पर हमारे द्वारा फेंके गए कचरे में अपनी भूख मिटाने  का सामान ढूढता देख कर "तलाश" शीर्षक से यह कविता लिखी। 


जिसे देख कर यह कविता लिखी 

तलाश 

कुछ भी नहीं है 
जिंदगी में
जीने लायक  
फिर भी 
वह भटक रहा है 
वस्त्र हीन 
दुर्बल काया के साथ 
इधर उधर 
कचरे के ढेर में 
कुछ तलाशता 
शायद 
जिंदगी 
जो 
सिमट गई है 
पेट भर रोटी तक 
फिर भी 
अधूरी ही रही 
तलाश 
आज भी 
कल की तरह 
और 
कल
फिर 
वह निकल पड़ेगा 
अपने 
बारह साल 
बूढ़े 
कंधे पर 
मैला बैग लिए 
जेठ की
तपिस को चीरता  
अंजान 
जिंदगी की 
तलाश में।