रविवार, 10 नवंबर 2013

अब और नहीं…


डा. विजय प्रताप सिंह

कुछ राज्यों में चुनावी बिगुल बज चुका है। चुनावी वादों और मुद्दों का पिटारा खोलकर जमूरे मैदान में उतर चुके हैं । और जनता को बड़ी चतुराई से नए वादे और मुद्दों में उलझाने का प्रयास जारी है। चुनावी रैलियों से लेकर  बुद्धू बक्से के प्राइम टाइम तक लाइव आरोप-प्रत्यारोप। टी. वी. विज्ञापन कि तरह मेरी कमीज…तेरी कमीज।  मेरा साबुन…तेरा साबुन । मेरा नमक...तेरा नमक कि तर्ज पर...  तेरी चोरी मेरी चोरी से बड़ी।  तेरे घोटाले मेरे घोटाले से बड़े।  तेरा नेता मेरे नेता से बड़ा साम्प्रदायिक।लब्बोलबाब एक ही कि हमाम में सभी नंगे। और देश कि आधी आबादी (२०११ कि जनगणना के अनुसार ) हमाम तो छोड़िये शौचालय से भी महरूम। । तभी तो  "मंदिर से भी ज्यादा पवित्र है शौचालय" और  " देवालय से पहले शौचालय" की राजनीती होती है । 

खैर ! जनता भी तो ठहरी बहरी और गूंगी (कम से कम नेताओं कि नजर में )। चुनाव में कुछ भी वादा  करो सुनाई तो देगा नहीं । फिर पूरा करने कि क्या जरूरत। और अगर थोडा बहुत सुनाई दे भी गया तो बोलेगी क्या ? गूंगी जो ठहरी। माफ़ करियेगा ! मगर  पिछले ६० वर्षों का सच तो यही है। गरीबी हटाने का वादा। महंगाई कम करने का वादा। कुपोषण मिटाने का वादा। किस चुनाव में नहीं होता ?  मगर नतीजा ! वही ढाक के तीन पात। और अगले चुनाव में फिरसे वही मुद्दे। नई बोतल में पुरानी शराब कि तरह। राजनीतिक जमूरे बड़ी सफाई से उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराधों और घोटालों को अपने सफ़ेद लिबास में छुपा लेते हैं।  और आम जनता  बुरा मत देखो कि तर्ज पर…सफेदी कि चमकार  में उलझ जाती है।  नहीं तो खोखले वादे करने वाले और हर चुनाव के बाद अपनी तिजोरी भरने वाले नेताओं को बार-बार वह  मौका क्यों देती। मगर अब पर्दा धीरे धीरे उठ रहा है। चेहरों से नकाब हट रहे  है। आखिर कब तक जनता कि आवाज चुनावी नक्कारखाने में तूती की आवाज कि तरह  गुम होती रहेगी। 

लेकिन अभी एक और  प्रयास जारी है। राजनीतिक लफ्फेबाजों द्वारा।जनता को असल मुद्दे से भटकाने के लिए फेकू और पप्पू के जुमले गढ़े जा रहे हैं। और  गड़े मुर्दे उखाड़ने का प्रयास जोर शोर से हो रहा है । वह चाहे मंदिर-मस्जिद का मुद्दा हो या  अतीत में हुए साम्प्रदायिक दंगे। ब्यापार तो फायदे का ही किया जाता है। इसलिए साम्प्रदायिक दंगों कि चिंगारी को हवा देकर सुलगाए रखना जरुरी है। क्योंकि दंगों की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेकना सबसे आसान जो है। फिर इसे इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकते हैं। रोजी- रोटी का सवाल जो है। इसलिए चुनावी फायदे के लिए आग में घी डालने का काम सभी राजनीतिक दल अवश्य  करेंगे।मुजफ्फरपुर के साम्प्रदायिक दंगे इसका सबसे हालिया उदहारण है। एक तरफ सम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के नाम पर अयोध्या को छावनी में तब्दील कर दिया जाता है और दूसरी तरफ साम्प्रदायिक दंगों को होने दिया जाता है। क्योंकि आम जनता (वह चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय से हो ) कि जिंदगी पर राजनीतिक नफा नुकसान का गणित भारी जो है। 

राजनीतिक रंगमंच पर बहुरूपिये कलाकार घूम-घूम कर  नाटकों का मंचन बखूबी कर रहे हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने कि होड़ में भाषा कि शालीनता कहीं खो गई है।  प्राइम टाइम पर कुतर्क, गाली-गलौज और सर फुटउअल करने में इन्हें कोई शर्म नहीं। और मीडिया की बाजारू संस्कृति चाहती भी तो यही है। आखिर जो बिकता है वही दिखता है। फिर टी. आर. पी. का सवाल भी तो है। मगर दर्शक भी होशियार हो गया है और ताली पीट खूब मजे ले रहा। उसे पता है कि ५० फीसदी मार्क तो किसी को नहीं मिलने वाला।  मगर चुनावी गणित में  ३० फीसद से भी टॉप किया जा सकता है। परीक्षा का समय आ गया है।  पूरे साल पढाई न करने वाले विद्यार्थी कि तरह नेता भी दिन रात एक कर रहे हैं। मगर अन्धों में काना राजा कौन ? देखना दिलचस्प होगा। इस बार जनता सब कुछ देख, सुन और समझ रही है। और अपने वोट से कहेगी कि बहुत हो चुका ……कोरे वादे अब और नहीं.......... । 


1 टिप्पणी: